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Mahak Garg

Drama Tragedy

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Mahak Garg

Drama Tragedy

गरीब की झुग्गी

गरीब की झुग्गी

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इस दुनिया में आ कर जब,

मैंने आँखे अपनी खोली थी।

नम आँखों से देखे मेरी माँ

मुख से कुछ न बोली थी।

अपनी मस्ती में मशगूल मैं

दुनिया के इरादों से अनजान था।

न जाने मेरे सर पर क्यूँ

काला आसमान सवार था।


फटे कपड़े से बाँधे मुझे

मेरी माँ काम किया करती थी।

कभी किसी के झूठे बर्तन साफ,

कभी कूड़ा उठाया करती थी।

चारपाई पर नहीं,

मैं भी मेरी माँ की गोद में सोया करता था।

मुझे पालने की खातिर

मेरा पिता बहुत रोया करता था।


तिनको से तैयार घर,

कभी कपड़े से ढका रहता था।

जिसमें न खिड़की,

न दरवाजे का पहरा रहता था।

बारिश मे जब कभी

घर मेरा टूट जाता था,

आराम की आशा में, मेरा चित

बस फुटपाथ का ही सहारा पाता था।


कूड़े के ढेर में

कभी बचा-खुचा कुछ पाता है।

वही खुरचन खाकर

मेरे पेट को सुकून मिल जाता है।

मंदिर के भंडारों से

कुछ भोजन मुझे मिल जाता है।

एक जून का खाना मुझे

कई दिनों तक भाता है।


होली के रंग नहीं

बस काले धुएँ का साया है।

पानी की पिचकारी नहीं

मुझे बस वो फटा-पुराना थैला ही भाया है।

कहीं से एक सिक्का मिल जाए

उसी में अपनी दिवाली होती हैं।

हमें क्या पता

वो सिक्को की खनक, कैसी होती हैं।


मेरी फटी - मैली कमीज़ में

पैबंद की चित्रकारी होती है

कडाके की ठंड में हम हाथ सिकोड़ सो जाते हैं

हमें क्या पता वो स्वेटर गर्मी कैसी होती है।

उबड़-खाबड़ रास्तों की

पहचान कुछ अलग होती है,

हमें क्या पता

वो जूतों के नीचे, दुनिया कैसी होती हैं।


कूड़ा बीनने के थैले से

रोज़ मुलाकात होती हैं

हमें क्या पता

वो खिलौनों की सजावट कैसी होती हैं।

चमचमाती गाड़ी को

हम टकटकी लगा देखते हैं,

हमें क्या पता

फ़रारी की सवारी कैसी होती हैं।


कूड़े में पड़े सिकुड़े हुए

कुछ कागज़ हमने देखे है,

हमें क्या पता

वो किताबों की महक कैसी होती हैं।

यदि बीमार पड़ जाए

तो बस बिस्तर पकड़ लेते है

हमें क्या पता

चिकित्सक की जाँच कैसी होती है।


इस नन्ही सी देह ने

न जाने कितनी ठोकरे खाई है।

जीवन के हर मोड़ पर हमने

कितनी फटकार पाई है।

ढाबे पर न जाने हमनें

कितने बर्तन माँजे हैं।

छोटी सी उम्र में हमनें

न जाने कितने परिश्रम किए हैं।


सुबह देर से उठने का

हमें कोई शौक न था।

माँ-बाप की मजबूरियाँ हमने देखी है

ज़िद जैसा कोई रोग न था।


छोटी उम्र में हम जवान हो गए

जवानी की उम्र आई

हम बुढापे के शिकार हो गए।

गरीब की झुग्गी का संसार बस इतना हैं

के जहाँ से हम आए थे,

जिंदगी पूरी होने से पहले

वही रवाना हो गए।


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