गिरते पत्तों की व्यथा
गिरते पत्तों की व्यथा
मौसम बदला
प्रकृति ने रूप बदला
बसंत की विदाई हुई
पतझड़ की अगुवाई हुई।
आम बौराये
धान सरसराये
पत्ते पकने लगे
शाख से गिरने लगे।
शाख से जैसे ही
कोई पत्ता गिरता है
दूसरे पत्तों को
गिरने का भय लगता है।
पत्ते पतझड़ को कोस रहे हैं
सब मिल कर सोच रहे हैं
ड़ाली पर हम सुरक्षित हैं
डाल पर हम संग संग हैं।
डाल से गिर कर खाक हो जायेंगे
आते जाते कदमों तले रौंदे जायेंगे।
साथ अठखेलियां करते हैं
एक दूजे को धकियाते हैं।
हँसते हैं खिलखिलाते हैं
पंछियों संग बतियाते हैं
हवा संग खेलते सरसराते हैं
गिरते ही जीवन थम जायेगा।
अब नया बसंत न आयेगा
पत्तों की व्यथा कोई जान नहीं पाता
उनका क्रदंन कोई सुन नहीं पाता
सब पैरों तले रोंद कर निकल जाते हैं।
पत्ते हवा संग यहाँ वहाँ उड़ जाते हैं
अनकही व्यथा को अपने साथ लिए
मिट्टी में दफन हो जाते हैं सदा के लिए।।
