पिताजी
पिताजी
पिताजी को भाई अपने साथ
शहर ले गया है
जानकर दिल को सुकून मिला
पिताजी को गांव भेजकर
खुद से ही दिन-रात
कर रही थी मैं गिला
अब शिथिल हो गई हैं इंद्रियां
ढ़ंग से चल नहीं पाते हैं
घर से निकल जाते हैं
राह भूल जाते हैं
किंतु अपने पुराने किस्से
आंखों में चमक लिए सुनाते हैं
प्रेम से बोलो,कुछ मीठा खिलादो
बच्चे की तरह खुश हो जाते हैं
मन उनका बैचेन रहने लगा है
क्योंकि कुछ कर नहीं पाते हैं
घर के आगे से गुजरते
हर व्यक्ति को राम राम कहते हैं
मैं उनका वो रुप याद करती हूं
जब वे हल-बैल लिए निकलते थे
कड़ी मेहनत के बाद भी
शाम को घर लौटते हुए
सीना ताने से चलते थे
तरह तरह के धान खेत में
उपजाते थे
भूमिपुत्र और पिता का फर्ज
बखूबी निभाते थे
घर की चीज वस्तुओं के लिए
मीलों पैदल चलते थे
सुबह कलेऊ में खाई
छाछ राबड़ी से
पूरा दिन भूख को छलते थे
हम बच्चों के लिए इतना करके भी
कभी नहीं थकते थे
मुझे पढ़ाने के लिए
अपना मन बड़ा किया
हमारी हर जरुरत को
पूरा किया
अपनी थाली से कुत्ते के लिए
रोटी का टुकड़ा
आज भी बचाते हैं
परमात्मा सबके हृदय में है
जीवदया सिखाते हैं
क्यों बसंत से आ गया पतझड़
सहा नहीं जाता
पिताजी का ये रुप
देखा नहीं जाता
परिवर्तन का नियम याद आता है
अपना बचपन याद आता है।।