धरा की व्यथा
धरा की व्यथा
चीख पुकार कर कह रही धरा,
बच्चों सुन लो अब मेरी व्यथा।
अत्याचार कब से लाँघ रहे हो,
भ्रष्टाचार भी तुम फैला रहे हो।
पापों से ही तुमने किया है भारी,
जैसे चला दी हो मुझ पर आरी।
खून खराबा यहाँ नित्य प्रतिदिन,
देख कृत्य तुम्हारे आती है घिन।
श्रद्धा जैसी कइयों को मार दिया,
उन्हें कई टुकड़ों में ही बाँट दिया।
कहाँ गई वो इंसानियत तुम्हारी,
क्यों दिखा रहे हैवानियत तुम्हारी।
अपनी हवस का शिकार बना कर,
उन पर ही अपना ज़ोर दिखा कर।
ऐसी भी क्या मर्दानगी दिखा रहे हो,
आती पीढ़ी को क्या सिखा रहे हो।
हृदय के दर्द को मैं संभालूँ कैसे,
निकल रही जान लगता है ऐसे।
निहार रही कब लोगे अवतार,
निष्पाप करोगे मुझे भरतार।
संतानें हमारी क्यों बिखर रही हैं,
सोच सोच कर ये सिसक रही है।
चीख पुकार कर कह रही धरा,
बच्चों सुन लो अब मेरी व्यथा।
