समाज की विडंबना
समाज की विडंबना
कैसी विडंबना इस समाज की, दोष कितने उजागर करती है
ना जग जीवन का मोल जीवन में, हैवानियत स्वीकार करता ये इंसान।।
एक दलित को हाथ लगाकर, इंसान अशुद्ध हो जाता है
बेजुबान को मार के खाता, फिर शान दिखाता ये इंसान।।
जिस बच्चे की खातिर सहती, सब कुछ, उसका दोष वही बन जाता है
दुल्हन आते ही नई-नवेली, उस माँ को त्यागता ये इंसान।।
जिंदगी की जंग हार जो जाता, आरोप-प्रत्यारोप लगाता है
कामयाबी की सीढ़ी चढ़े तो, सबको भूल जाता ये इंसान।।
पत्थर के आगे शीश झुकाते, जिसका निर्माण खुद करता है
पत्थर तो भगवान हो जाते, सही इंसान ना बनता ये इंसान।।
