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अभिषेक योगी रौंसी

Crime Inspirational

4.7  

अभिषेक योगी रौंसी

Crime Inspirational

नगरवधू -भाग 1

नगरवधू -भाग 1

3 mins
495


एक पत्रकार एवं नगरवधू का इंटरव्यू चल रहा है... 


मैं कॉल गर्ल अपनी कहानी बताती हूं

कैसे हुई बदनाम मैं अपनी जवानी बताती हूं 

एक धुंधली याद बन गया मेरा नाम मधु

आज में हूं इस जमाने में सिर्फ नगरवधू

मैं भी थी कभी तुम्हारे ही बीच एक नन्ही सी कली 

तुम्हीं लोगों के बीच रहकर मैं भी थी पली

जब मेरी कद काठी बचपन से आगे निकलने लगी

कुछ अपनों कुछ गैरों को मैं फायदे का सौदा दिखने लगी

पर क्या खता मेरी जो हुस्न के बाजारों में चढ़ गई बली

मैं सबसे आगे दौड़ी आ रही थी स्कूल से 

आज टिफिन छूट गया था घर मेरा भूल से

इसलिए थी व्याकुल बहुत क्योंकि मुझे तेज लगी भूख थी

पर शायद आज स्कूल जाना ही मेरी बड़ी चुक थी

और अचानक एक अनजान हाथ मेरी तरफ बढ़ा 

पलक झपकते ही उसने मुझे गाड़ी में लिया चढ़ा

जब सुबह आंख खुली तो वहां गहरा अंधेरा था 

अब मुझे यहाँ बचाने वाला कोई नहीं मेरा था

कई दिन संघर्ष किया मगर इंसान हूं ना 

अंत में मजबूर हो जिंदा लाश बन गई 

और उस दिन से बचपन में ही 

मेरी जिंदगी एक तलाश बन गई

फिर भी थी उम्मीद शायद कोई रास्ता भटका इंसान आएगा 

जो मेरे जिस्म को नहीं बल्कि मेरे रूह को छू जाएगा

हां एक दिन आया भी पर बहुत नशे में था 

मुझे लगा शायद यही है जो हर रोज मेरे सपने में था

मैं उसके सिरहाने के पास बैठ सो गई

इकतरफा प्रेम के सपनों में खो गई

जब आंख खुली तब तक वो जा चुका था 

मगर सच वह मेरे दिल पर छा चुका था

एक बार घूमने गई मैं दूर गांव बाजार 

वहां दिख गया मुझे अपना इकतरफा प्यार 

वो वहां कर रहा था किसी का इंतजार

मैं करने चली गई उससे प्यार का इजहार 

उसने देखते ही मुझे पहचान तो लिया

मेरे हाथ पे सौ का नोट रख मजे करो 

ये कह एक बिन मांगा एहसान किया 

मगर मैंने उसे अपने दिल की बात बता दी 

कैसे गुजारी उसके पास बैठ वो रात बता दी 

जैसे ही बताया मैंने उसे अपने दिल का किस्सा 

बस आ गया उसको मुझ पर बहुत तेज़ गुस्सा

दूर हो जा मेरी नजरों के सामने से बेहया साली 

यूं तो हर रोज थी मगर उस दिन लगा 

सच में मैं थी एक गंदी गाली


(खैर जाने दो साहब) 

तुम भी तो अपने लेखों में हमें अप्सरा ही लिखोगे 

यहां से जाने के बाद हमें समाज का कचरा लिखोगे 

अजी मालूम है हमको तुम हमारे घरों को कोठे ही लिखोगे 

और अखबार बेचने बदनामी वाले अक्षर मोटे ही लिखोगे 

पर साहब ये जो समाज के ठेकेदार है जिनके ऊंचे किरदार है

जो बनते तो इज्जतदार है पर उतने ही जिस्मों के खरीददार है

और जो ये तुम जैसे सफेदपोश लोग खुद को खानदानी बताते हैं

हर शाम जाने कितने ऐसे खानदान हमारी खूंटी पर टंगे पाते हैं

और ये जो इंसानों में इंसान के सिवा ऊंच-नीच और जात पात ढूंढते हैं 

वो बेशर्म बिना जात पूछे हर रोज 10-10बारी हमारे हमारे चरण चूमते हैं 

ओ साहब हमें जिन लोगों ने पहुंचाया इस नरकी जहाँ में 

तुम उनका थोड़े ही वहशी नाम लिखोगे 

अरे छोड़ो मालूम है हमको ए कलम वाले बाबू 

तुम केवल हमको ही बदनाम लिखोगे । 


Continue........ 


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