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subhashree pattnaik

Abstract Crime

4.0  

subhashree pattnaik

Abstract Crime

आज भी वो रोती है

आज भी वो रोती है

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तुम चले गए अपने मुल्कों में,

छोड़ गए मुझे इन दरिंदों के हाथ ।

रोती हूँ आज भी मैं ,

जब सोचती हूं तेरे वो बात।


इंसाफ के नाम से यहां मिलती है धोखा

सच के नाम से सज्जा।

जब जब देखा मैंने आंख खुल के,

हर जगह जानवर बैठे हैं यहां मुंह में लेते मुखा।


घिन आती है मुझे मेरे ऊपर ,

कैसे पैदा कर दी मैं ऐसे जानवर।

ना मां ना बहन किसको छोड़ा तूने,

चार साल की छोटी बेटी को भी मार दी सबने।


कैसे हो गए तुम ऐसे जिस्म के भूखा,

याद नहीं आया क्या तुझे तेरे मां का चेहरा।

तुझे भी जन्म दिया था एक मां ने

सोच के तेरे लिए कितना सबेरा।


खुद पर एक बार झांक कर देख  

समझ आएगा तुझे अपना मां की सिख।

जनम दी तुझे क्या समझ कर ,

भूल गया तू आज जिस्म का भूखा बनकर।


फिर से बन जाए कोई माता का सुपुत्र,

बचाए इस देश को बन के वीर पुत्र।

आज भी तेरे देश की मां तुझे याद करती

तेरे लिए हर घूंट का जहर पीती।


बचाए कोई देश को इन दरिंदों से

सब को जीने दे अपना मां बहन जैसे।

आज भी भारत माता रोती है,

रोती रोते तुझे याद करती है।


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