**अछूत**
**अछूत**
छुआ न जाए वो, छाया से भी डराए,
जन्म से बंधी बेड़ी, इंसानियत झुकाए।
मिट्टी में मिलते उसके अरमान,
आंखों में बुझते सपनों का जहान।
घर के बाहर, मंदिर के द्वार,
तिरस्कार भरी दुनिया हर बार।
फिर भी उसके हौसलों में आग,
जो जलाए हर अन्याय का राग।
क्यों है ये बंधन, किसने बनाए?
इंसान को इंसान से अलगाए।
समय अब आ चुका, आवाज उठाने का,
समानता का सूरज फिर से उगाने का।
तेरे मेरे बीच अब दीवार न रहे,
सबके दिलों में प्यार का व्यवहार रहे।
अछूत नहीं कोई, सभी एक समान,
इंसान से बड़ा न कोई पहचान।
