मंज़िल और सुकून की तलाश
मंज़िल और सुकून की तलाश
वो थी एक सुहानी सुबह सोमवार की,
सलोना सा मेरा मन न जाने क्यों सांझ की तलाश में था,
सुबह की सादगी न जाने क्यों उसे मोहित न कर पाई,
वो तो बस एक गुलाबी सांझ के खयाल में डूबा था,
जो उसे तारों के देश तक ले जाए,
चांद के करीब, शायद सुकून बस्ता है जहां.
ये सुकून का मुखौटा पहनकर सोचा अब सब मंगल होगा,
और देखते ही देखते मंगलवार भी आ गया,
कुछ नया अपने ख़्वाबों के खज़ाने में जड़ दू,
यही एक फितूर सा चढ़ गया,
ये जुनून न जाने मुझे किस गली ले जा रहा था,
चल रही थी और रास्ता बस लम्बा होता जा रहा था.
सूर्य फिर अपने सिंहासन पर विराजा,
और बंदिशों भरा बुधवार मेरी राह में पधारा,
रास्तों की आज़माईश अब भी जारी थी,
पर थेढ़ी मेढ़ी गलियों ने मानो मुझे बस जकड़ लिया था,
बंदिशों से घिरी बस मंज़िल को खोज रही थी,
बावला सा मेरा मन पर अब भी अडिग खड़ा था.
वही मन मेरा गुरु मेरी राह में था,
अनिश्चितताओं से जूझ रहा खुद
फिर भी मुझे संभाले खड़ा था,
गुरुवार ने पुकारा इसका साथ संजोए रखना,
गुरु भी यही और साथी भी यही है तुम्हारा.
शुक्रवार फिर मानो एक तूफ़ान लेकर आया
मन कह रहा ये मुश्किलों का बवंडर बस है लाया,
इस चक्रव्यूह में कहीं फस्ती सी जा रही थी,
पर मंज़िल की महक का नामोनिशान तक न था.
फिर शहर में शनिवार आया
सीख का सैलाब लेकर,
मेरी निराशाओं को मानो चुनौती सी दे गया,
क्यों थक गया क्या सपना इतना सस्ता है तेरा,
चीखकर मेरे जज़्बें को जगा गया.
हफ्ते का था वो आखिरी दिन इतवार का,
मगर मेरे सपनों की उड़ान की तो बस शुरुआत हुई थी,
थक गई थी हां रास्तों के रोड़ों से मैं,
मगर इसे कायनात की करामात कहो,
या फिर मेरे मन का ही एक फ़लसफ़ा,
जो सीखा गया मुझे कि,
ज़मीन ने गर पैरों में छालें दिए,
तो आसमान की असीमता अब भी तुम्हारी राह देख रही है,
ये पंख अपने खोलो और बस उड़ चलो मंज़िल की ओर,
शायद ख़्वाबों के संग अपने सुकून से भी मुलाक़ात कर पाओ !