ये आदतें...
ये आदतें...
उफ़! इन आदतों का क्या करूँ मैं?
ये वही आदतें हैं,
जो दुनिया की मुझे परखती नज़रों पर टिकी रहती है,
जो खुद के आशियाने में हमेशा कोई छेद ढूँढ़ती रहती हैं
क्या करूँ मैं इन आदतों का,
जो मेरी एक गलती को गुनाह बनाकर
मुझे सूली पर चढ़ाने को भी तैयार रहती है,
जो बार बार मुझे ये एहसास दिलाती है,
कि ये रास्ता कांटों भरा है,
और तुझे तो फूलों पर चलने की आदत हैं
क्या करूँ मैं इन आदतों का,
जो हर वक़्त मुझे दुनिया के तराज़ू में तोलते रहती है,
और ये याद दिलाती है कि दूसरों का पलड़ा
अब भी मुझसे भारी है,
जो मेरी जीत में भी कोई खोट ढूँढ़ ही लेती हैं
क्या करूँ मैं इन आदतों का,
जो पहले ख़ामोश रहना सिखाती है,
और फिर उस ख़ामोशी को न तोड़ने की
सज़ा भी मुझे ही दे जाती है,
ये आदतें इन हसरतों को पूरा करने की
मेरी लाख कोशिशों पर भी पानी फेरना जानती है,
ये आदतें फिर मुझे ही इसका दोष देना भी जानती हैं
डर लगता है ये कि कहीं इनकी सोहबत में बिगड़ न जाऊँ मैं,
पर इन आदतों को ख़ुद से जुदा करूँ भी तो कैसे,
ये आदतें ही तो आखिर मुझे मैं बनाती हैं..!!