STORYMIRROR

Sonal Gour

Abstract

3  

Sonal Gour

Abstract

शायद

शायद

1 min
220

शायद मैं ज़िंदगी में अपना और

ज़िंदगी मुझमें खुद का अक्स ढूंढ रही है,

शायद मैं ज़िंदगी के नाटक का सूत्रधार और

ज़िंदगी मेरी कहानी में खुद का किरदार ढूंढ रही है,

शायद मैं ज़िंदगी में अपनी मंज़िल और

ज़िंदगी मुझमें खुद की राह ढूंढ रही है,

शायद मैं ज़िंदगी में सुबह का शोर और

ज़िंदगी मुझमें रात का सुकून ढूंढ रही है,

शायद मैं ज़िंदगी में अपना मकान और

ज़िंदगी मुझमें एक छत ढूंढ़ रही है,

शायद मैं ज़िंदगी में अपना खुदा और

ज़िंदगी मुझमें खुद का इंसा ढूंढ रही है,

शायद मैं ज़िंदगी में अपना और

ज़िंदगी मुझमें खुद का अक्स ढूंढ रही है...!!



Rate this content
Log in

Similar hindi poem from Abstract