अपनो को खो देने का ग़म - २६/११ की याद में
अपनो को खो देने का ग़म - २६/११ की याद में
कैसे हम अब याद करे ना, उन हँसते-मुस्काते चेहरों को
एक पल में ही जो तोड़ निकल गए, अपने सांस के पहरों को
हम थे, संग थे ख्वाब हमारे, बाकी सब दुनियादारी थी
लेकिन उस दुनिया में तो, उन की भी हिस्सेदारी थी
चहल पहल थी वहाँ हमेशा मदहोशी का आलम था
लेकिन घात लगाकर बैठा एक आतंकी अंजान भी था
सब थे खोए अपने धुन में, नज़र सभी की अपनो पर थी
पर उससे अंजान रहे सब, जिसकी नज़र बस हमपर थी
अपनी जुबान में अपने ईश का, नाम बार बार वो लाते थे
अल्लाह-हु-अकबर कहकर वो जोर ज़ोर चिल्लाते थे
जाने कितनों को मारा, कितनों को अनाथ किया
ना जाने कितने बच्चों का, जीवन उसने बर्बाद किया
मैं वह
ीं था घायल भी था, लेकिन बचकर निकल आया
सबकुछ लूट गया वहीं मेरा, बस अपने प्राण बचा लाया
मैं ज़िंदा हूँ अब भी लेकिन, जीने जैसे कोई बात नहीं
ऐसे जीवन का क्या करना जब, अपना कोई साथ नहीं
मैं तो अब भी कहता हूँ कि मुझे किसी धर्म से बैर नहीं
लेकिन कैसे मान लूँ मैं कि आतंक का कोई धर्म नहीं
वो जाहिल है कहकर कबतक, खुद को हम बहलाएंगे
कबतक आंखें मूंद कर हम-तुम गम अपना भुलाएंगे
वो आयेंगे हर बार जाने कितने मासूमों को मारेंगे
जब तक हम तुम सब मिलकर उनको सबक नहीं सिखायेंगे
चलो हम तुम कसम ये खा लें अब डर कर तो नहीं रहना है
हम भी उनको मारेंगे फिर मरना है तो मरना है।