विकलांग
विकलांग
गाड़ी – बंगला नहीं पास मेरे
कोई दौलत नहीं पास मेरे
कोई अफसोस नहीं दिल में मेरे
शिकायत किसी का नहीं मन में मेरे
पर साहब अफसोस है मुझे
क्योंकि विकलांग शरीर है पास मेरे।
कोई बात नहीं
शायद दिल में खोट था उसके
उस मालिक का
जिसने अधूरा बनाया था मुझे।
मैंने पूछा हर बार ,
मैंने पूछा उस माँ से बार – बार
ऐसा क्यूँ जना मुझे ?
माँ तो माँ होती है
हर बार रो , रो कर कहती है
नहीं मेरे लाल तू सुन मेरी भी बात
इसमें कोई गलती नहीं था कर्म का मेरे।
बेटा हूँ , दिल मेरा भी है
कैसे दोष देता माँ को मेरे
झूठा ही सही पर
मधुर मुस्कान लिए कर कहता माँ को मेरे।
ठीक ही किया उस विधाता ने
जो बनाया विकलांग तन से मुझे
कुछ तो रहम मिला मुझे
न बनाया विकलांग मन को मेरे।
अकसर देखा गया है उन हैवानों को
करते है खुले आम अपराध
शरमिंदगी और दरिंदगी के सारी हदें कर देते है वो पार
अपहरण कर करते है किसी मासूम का बलात्कार
अपंग है विकलांग है मन से सब के सब
कोई भी नहीं करता है इन पर खुल कर वार ?
सब रहते है बन ठन कर
नहीं करते है कोई विवाद
चाहे पड़ोस में खुले आम हो जाये अपराध।
शायद डरते है और डरना भी चाहिए साहब
अपराधियों को डर नहीं जो कोई
कानून के नाम होती जो खातिरदारी
दलाल बैठे है बचाने को अदालत के बाहर।
घर निकालना जरा सम्हल कर
मन से विकलांग घूम रहे है बाहर सीना अपना तान
मुझे अब कोई अफसोस नहीं विकलांग होने का
खुश हूँ माँ, मैं जो मन से नहीं हूँ विकलांग।