चिड़िया
चिड़िया
कैसे फुदकती थी तुम अल्हड़
पंखों को समेटे
नन्हे पैरों से टहनियों पर बैठे
कभी थोड़ा सा उड़े और कभी
पेड़ों के तनों को खटखटाती हुई
मेरे ध्यान को तुम बूँद बूँद बटोरती थी।
क्या पेड़ों में कोई खज़ाना छिपा था
जो दिन भर उनका साथ
नहीं तुमसे था छूटता ?
मैंने तो कई काट के देख लिए
पर वो तो बेजान से मायूस से
सड़क के किनारे को घेरे गिर जाते थे।
कितनी सदियों से तुमने खेल खेले इनके साथ
कभी राज़ न बताया मुझे इनका
मेरा भी तो हक़ था इनपे
इतना ढूंढो न अब उनको तुम
आयो हीरों से जड़े सिहासन पर बैठा यूं तुम्हें
तुम भी रहो मेरे संग सोने के पिंजरे में।
अब तो चंद ही पेड़ों का साथ बचा है
अब तो मेरी गली का मुख करोगी ही तुम
फिर भूल जाओगी उन हरे पत्तों को
जो बस गर्मी के ताप में हो जाते थे गुम।
पर यह क्या, ऐ नादाँ चिड़िया !
तू अपने परों को क्यों त्याग रही है
अजब ज़िद है तुम्हारी
कराह के जो मुझसे कह रही है।
इस आकाश में उड़ान कैसे भरूँ
जब बंजर हैं इसके नीचे की ज़मीन
अब कण नहीं है इसमें जीवन का बचा
आखिर डाली डाली
फुदकने का नाम ही है ज़िन्दगी।।