ख़ास मुलाकात
ख़ास मुलाकात

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आम सी कहानी
रोज़मर्रा की ज़िन्दगी जैसे
तुम को सुनाने वाली थी
जिक्र बस इधर-उधर की बातों का होता
कुछ बार बार बुने,
और कुछ होठों तक ही रुके
ऐसे फलसफातों का होता
पर जब तुम आये मेरे दर पे
आज भी हर रोज़ की ही तरह
हर ढलते दिन बाद,
उन हज़ारों शाम की शुरुआत लिए
फिर से महफ़िल बन गयी कुछ ख़ास,
फिर से कही मैंने हर बात तुम्हें,
लाखों में एक जज़्बात
बयां किया हो जैसे।