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Vijay Kumar parashar "साखी"

Tragedy

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Vijay Kumar parashar "साखी"

Tragedy

"बेदर्दी मौसम"

"बेदर्दी मौसम"

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बारिश जब आये,उसकी अपनी ही मर्जी

कैसी चल रही है,आजकल मौसम सरगर्मी


इंतजार में सजी संवरी कुंवारी सी बैठी गर्मी

कब आयेगी,मेरी बारी,चुपचाप सी बैठी,गर्मी


पता नही चल रहा,मौसम की कैसी जबर्दस्ती

कभी हमे लगती है,सर्दी कभी लगती है,गर्मी


कैसी अजब सी है,आजकल मौसम बेदर्दी

बारिश जब आये,उसकी अपनी ही मर्जी


साखी समझ गया,मौसम की बदलती,वर्दी

इस प्रकृति से की हमने बहुत छीनाझपटी


ख़ास की हम वृक्षों को नही काटते,बेदर्दी

कल-कारखानों से न निकालते,धुँआ डर्टी


गर न छोड़ते वृक्ष लगाने की आदत,अच्छी

क्योंकि बदलती फिर ऋतुएं इतनी, जल्दी


यज्ञ करने की पुरातन आदते थी,अच्छी

जिसे हम भूल गये,आधुनिकता में जल्दी


आओ पेड़ लगाए,प्रकृति मां को सजाये

फिर ये मौसम कभी नही बनेगा,बेदर्दी


फिर तो सब ऋतुएं वक्त पर ही आयेगी, 

क्या बारिशें,क्या सर्दी और क्या ही गर्मी।


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