अश्रु धारा
अश्रु धारा
अश्रु धारा यूँ ही नहीं बह जाती,
अंदर
उस ठोस जटिल मन को कोई तोड़ता।
इतनी पीड़ा अर्पित करता
कि वह तड़पता, मचलता, विचलाता।
और वह ठंडा सा मन
भावों से रिक्त, भावुक हो उठता
और बह जाती अश्रु धारा।
गालों को आँसुओं का स्पर्श
ऐसे ही नहीं मिल जाता।
दृग गीला होना नहीं चाहते
इसलिए नीर छुपते फिरते।
कभी अर्ध मुस्कान से रोकते
कभी विभिन्न क्रीड़ा कर
दिल में भ्रम उत्पन्न करते।
"अहम् सुखमय", कह उन्हें
नयन द्वार पर आने नहीं देते।
पर अंदर का उफान
स्नानघर की ओर ले जाता
और लोचन पट खुल जाते
वेग से गंगा-से बह जाते।
फिर शीघ्र ही अपने को संभाल
थोड़े-से साहसी बनते।
कोई ये अनमोल मोती देख न ले
फिर उन्हें पलकों में मूँद लेते
और अंदर ही अंदर पी जाते।
अंतः मन की
बर्फीली वादियों में जमा देते।
होंठों को भी
एक हँसी की चादर ओढ़ा देते।
हम ऐसे ही
अपने भावों को छुपा-छुपा जीते।
अपनी हकीकत अपने से ही छुपा लेते,
जाने कब मदिरा का गिलास उठा लेते।
भीतर जमी दर्द की परतें पिघलना चाहते
पर अपने से ही दूर हो जाते।
जाने किस भीड़ में खो जाते।
अपने नैनों से नैन नहीं मिला पाते।
आज भी अंदर से खोखले
पर अश्रु बहाने से कतराते
इंसान बनने से घबराते।