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अनिच्छा

अनिच्छा

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साड़ी के पल्लू को,

वह बार-बार,

उड़ाये जा रही थी,

लापरवाह-सी,

गिराये जा रही थी !


फिर कभी-कभी,

अनिच्छा से,

उठाये जा रही थी,

उठे हुए अंगों पर,

बिठाये जा रही थी !


संभवतः,

उसे अहसास था कि,

वह टिकेगा नहीं,

मुड़ तो जायेगा,

किन्तु रुकेगा नहीं !


इसीलिये शायद,

उसका निरंतर प्रयास,

जगत को दिखावा था,

अतिशयोक्ति भी नहीं,

स्वयं को छलावा था !


एकाध बार वह,

असहज हो जाती,

पर उससे भी अधिक,

कई लोग बेचैन थे !


और निरुत्तर ही रहा,

उनका प्रश्न साधारण-सा,

या असाधारण कह लो-


बैर या प्रीति है तुम्हारी,

इस बेजान परिंदे से,

बार-बार इसे तुम,

गिराती क्यों हो !


इतने नखरों से,

बार-बार हवा में,

उड़ाती क्यों हो,

यदि सरक जाये तो,

उठाती क्यों हो !


सजकर, संवरकर,

सजाती क्यों हो,

पसन्द ही नहीं तो,

संग लाती क्यों हो !


फटकार लगाकर,

मनाती क्यों हो,

जिसकी अमानत हो,

लजाती क्यों हो !


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