तिपहिया भाग्य-रथ
तिपहिया भाग्य-रथ
उसका घर था शहर की कच्ची सड़क पर
फर्श, दीवारें मगर पक्की सभी थीं।
छोटी मँझली तीन मील की मालिकी के
चर्चे बस्ती में होते, जो लाजमी थे।
तीन मंजिल की हवेली से कभी तो
चार दिन तक नीचे वे आते नहीं थे।
नव ग्रहों का कोप या रूठे नक्षत्र सब
भूकंप सा था, बस धरा विचलित नहीं थी।
मच रही थी धूम, था उल्लास घर में
प्रलयंकारी क्षण की आहट थी न बिल्कुल।
तीन मंजिल की मुंडेर से फिसल बन्दा
क्या संभलता जब गिराया स्वयं ईश्वर ने।
टूट गया तन रूठा मन और भाग्य फूटा
चुकी कमाई तीन पीढ़ियों की दवा में।
खूब रिश्तों ने निभाई सामाजिकता
दिल खोलकर बिल चुकवाये अस्पताल के।
और मूल में सूद जोड़कर खूब निचोड़ा
किश्तों ने रिश्तों को तोड़ा थोड़ा-थोड़ा।
चार दशकों बाद सुना यह किस्सा हमने
बात चली जब वक्त की दादागिरी की।
उसके सिर के आधे का आधा अब गायब
और धकेल में दिखे हमें बस तीन पहिये।
सरकारी आवास योजना के मकान से
तीन बजे उठकर चल देते सब्जी मंडी।
तीन फुट के नाले के ऊपर धकेल खुद को
तीन चौथाई की राहत है रंगदारी में।
जिसके कारण टंगे तीन मंजिल पर रहते
तीन गुनी बदबू को अब नौ-दस घंटे सहते।