आम आदमी की माँग
आम आदमी की माँग
आम आदमी की माँग
रोटी कपड़ा और मकान
नही बेचना चाहता कोई अपना ईमान
हर कोई चाहता है सम्मान...
लालच का ये ऐसा खेल दिखाते
आम आदमी को है खास बनाते
खास बना है जो बंदा ईमानदारी से
फिर नहीं चलता उसका धंधा....
बड़े-बड़े वो फिर सपने देखे
हो जाता है उसको अभिमान
आम आदमी के हिस्से की
वो फिर खा जाता है
रोटी, कपड़ा और मकान....
आम से बने हैं जब से खास
लगता है सत्ता के नशे में
ये हो गये हैं बदहवास
नहीं दिखती इनको
आम आदमी की आस...
जो करता है यह माँग
रोटी, कपड़ा और मकान
नहीं बनना है हमको
आम से ऐसा खास,
जो भूला देता है
इंसानियत के सारे
एहसास......
नहीं चाहिए कोई अहसान
और गोदी
बस मिले अपने हक की
दो वक्त की
रोटी और रोजी...
बाकी कपड़ा और मकान तो
हम खुद जुटा लेंगे...
