समाज की तासीर.....
समाज की तासीर.....
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समाज की तासीर पर अक्सर
उंगलियां मैं उठाता रहा
पर खुद भी तो मैं
उस समाज का हिस्सा रहा
शिकायतों की इक लंबी
फ़ेहरिस्त है पास मेरे
पर खुद भी तो मैं
उस धारा में बहता रहा
मेरे किरदार में
क्या अलग था भला
जो कही सुनी कहानियों को
बार-बार मैं दोहराता रहा
सब कुछ जानकर भी
अंजान बनने का ढोंग रचता रहा
खुद से खुद को बचाने की फिराक में
खिड़की ढाप कर समाज की
तासीर बनता गया.....