कि तुम..बड़ी हो गईं थी
कि तुम..बड़ी हो गईं थी
देख गर्भ में हलचल
मन भर आया खुशी से
ना ही था पहला
मातृत्व का एहसास ये।
भाई भी था तुम्हारा
स्वागत करने को तैयार
ये क्या कि
पिता को नहीं पसन्द तुम।
नहीं थे परिचित
अभी तुम्हारी पहचान से
फिर भी इतना डर
रोज प्रताड़ित होती जाती।
सहती जाती थी मैं
पीड़ा सभी
तुम पल रही थी
धीरे-धीरे बढ़ रही थी।
मातृत्व ने शायद
पहचान लिया तुम्हें
और तुम वैसी ही थीं
जब आई इस संसार में।
छोटी सी तुम्हारी उंगली
थामे देख रही तुमको ममता
ढूंढ रही थी कहीं
तुममे अपना अंश।
खुश थी बहुत
फिर महकेगा
मेरा आँगन अब
तेरी किलकारियों से।
भाई की कलाई
का इंतजार भी खत्म
हालाँकि रोज लड़ते तुम
अपने-अपने अस्तित्व को ले।
आते पूछते एक सवाल
कौन तुम्हें ज्यादा
प्यारा माँ
तुम दो आँखें मेरी
किसको कहूँ ज्यादा
प्यारी मैं।
झल्ला जाते दोनों
फिर हो जाते एक
खेलते-हँसते दिन भर।
एक दिन अचानक तुम
इतनी बड़ी हो गई
मेरी उपस्थिति से अनजान
झगड़ रही थी तुम
अपने पापा से।
कर रही थी
मेरी ही पैरवी
बता रही थी
नारी का सम्मान।
कानों में पड़ रहे थे
तुम्हारे बगावत के बोल
पापा आप गलत हो,
माँ जब रोज तपती है
तब घर की रोटी बनती है
वो चुप रहती है
क्योंकि वो सहती है।
दर्द अपना वो पी
मुस्कुराती रहती है
रोज लड़ती है
अपनी उलझनों से
अपने आप से।
तुम्हारे जुन्मों से
कितना दुखता होगा उनको
वो कहे जा रही थी
बह रही नदी जैसे
अपने ही प्रवाह से।
आँखें मेरी बरसने लगीं
इस बहाव के वेग
में बहने लगी मैं
बह रही थीं मेरी कुंठाएँ
अपमान, अतृप्ति, तिरस्कार,
कोई सी रहा था
वर्षों से खुले
नंगे पड़े जख्मों को
लगा रहा था मरहम
रिसते घावों पर
आज पीड़ा कुछ कम थी।।