क्यूँ
क्यूँ
क्यूँ प्रेम पाश में बंधती हो
हे नारी क्यूँ तुम खुद को छलती हो
ये देह के पुजारी दिल को कुचलते
तुम क्यूँ दिल की बात सुनती हो
नहीं बने ये चाँद सितारे और
ये प्रेम के रीते प्याले तुम्हारे लिये
तुम क्यूँ आसमान छूने से डरती हो
उठो छू लो आग उगलते सूरज को
बदल दो तुम आँधियों का रूख
आग में तप कुंदन बनना सीखो
तुम क्यूँ चुप रह सब सहती हो
रणचण्डी बन तुम अब शत्रु कुचलना सीखो
पोंछ लो इन आँसुओं को
उठो अब तुम हवा का रूख बदलना सीखो
ले उड़ो इन तिनको को दूर कहीं पटको
आकाश पर चलना, नींद में जगना सीखो
तुम धर्म पताका लहरा अब
मिटा लिंग भेद कृष्ण बनना सीखो।
