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अनजान रसिक

Drama Others

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अनजान रसिक

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बसंत पंचमी

बसंत पंचमी

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अलसाई बेलों पर हौले-हौले,आहिस्ता आहिस्ता अब बौरें आने लगीं,

भीषण सर्दी के बस-अंत का प्रतिबिम्ब बन आखिरकार बसंत-ऋतु आ ही गयी। 

कुहू-कुहू बोली कोयल जब, समस्त श्रोता-गण मंत्रमुग्ध हो गए,

बसंत का आगाज़ क्या हुआ, पेड़ों की शाखाओं पर झूले पड़ गए।

कहीं गुलाब की मनमोहक महक तो कहीं सरसों की भीनी-भीनी खुशबू भर गयी,

बसंती हवाओं की ताज़गी पूरे विश्व का कुछ इस प्रकार, नव-निर्माण गयी।

पक्षियों के मन- भावन कलरव ने चहुँ ओर का वातावरण मधुर बना,

मिजाज़ उनका ऐसा रंगीला देख, प्रफ्फुल्लित पुष्पों का भी सीना खिल उठा।

खुले नीलाम्बर की चादर,रंग-बिरंगे रंगों की दुनिया के प्रेमपाश में कैद हो गयी दुनिया सारी,

नयी उमंग से चहुँ ओर बहती नदियाँ बिखेर गयी सर्वत्र हरियाली ही हरियाली।

अलसी की शोभा, प्रसूनों पर मंडराते भौरें, पीले वस्त्र धारण किये सब सृष्टि का सौंदर्य निखार देते,

सूनी शाखाओं पर नवीन कलियों का आगमन मृत्यु के पश्चात भी

जीवन की मौजूदगी का साक्षात उदाहरण प्रस्तुत करते।

कहती प्रकृति खिलखिला के कि अभी ना होगा अंत मेरे वजूद का,पिक्चर अभी बाकी है,

वन में आयी मृदुल वसंत से नयी आशा और लहर ह्रदय में जागृत हो गयी है।

हरे-हरे पात, डालियों और कलियों ने फिर से छेड़ दी है मधुर तान,

सपने मृदुल कर दिए, निद्रित कलियों पर जगा एक प्रत्युष मनोहर,

थकते ना लोग करते जिसका गुणगान।


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