Moumita Bagchi

Horror Thriller

3.3  

Moumita Bagchi

Horror Thriller

निशि डाक, भाग-1

निशि डाक, भाग-1

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निशि-डाके कभु दियो नाको साड़ा

( अर्थ= निशि बुलाए तो कभी जवाब मत देना।)

[ निशि कथा: " निशि' यानी रात को आने वाली आत्मा!

बंगाल में प्रचलित मान्यता के अनुसार निशि अपने शिकार को सिर्फ दो ही बार आवाज़ देती है। ज्यादातर ऐसा होता है कि यह निशि अपने शिकार के किसी प्रियजन की आवाज़ को नकल करके पुकारती है, लेकिन किंवदंती है कि वह दो बार से अधिक बार आवाज़ नहीं दे सकती। आज भी दूर- दराज़ के गाँवों में यह प्रचलित है कि यदि रात को कोई बुलाए तो उसकी तीसरी पुकार तक प्रतीक्षा करनी चाहिए और तभी जवाब देना चाहिए!]

कहानी: भाग-1

आज भय से पूर्णतः मुक्त होकर निशीथ अपने जीजा जी के साथ रेलगाड़ी से गाँव वापस जा रहा है। विगत दो वर्ष उसकी जिन्दगी का एक भयानक उथल- पुथल वाला दौर रहा है। एक समय तो उसे खुद ऐसा लग रहा था कि अब शायद वह बच नहीं पाएगा।

चारों ओर निराशा का घना अंधकार छाया हुआ था। आशा की एक भी किरण कहीं से नज़र नहीं आ रही थी। यहाँ तक कि उसके दोस्तों ने भी उसका खोज- खबर लेना बंद कर दिया था। इतने बड़े शहर में वह बिलकुल अकेला पड़ गया था!

और सब कुछ जानते और समझते हुए भी पतन के उसी गर्त में हर रोज़ थोड़ा- थोड़ा करके वह गिरता जा रहा था!

अब भी निशीथ को देखकर ऐसा नहीं कहा जा सकता है कि वह पूरी तरह से स्वस्थ हो चुका है! उसकी आँखों के इर्द- गिर्द मौजूद वे गहरा काले घेरे बताते हैं कि पिछली कई रातों से वह ढंग से सो नहीं पाया। उसका मन अभी तक दिग्भ्रमित और दिशाहीन है। उसकी आँखों में एक अजीब सा भटकाव भी नज़र आता है।

परंतु उसके जीजाजी बहुत आशावादी है। उनका मानना है कि कुछ दिनों तक जब निशीथ माँ के स्नेहांचल में रहेगा तो वह पूरी तरह से स्वस्थ्य हो जाएगा। गाँव के वातावरण में, जलवायु परिवर्तन के माध्यम से वह शीघ्र ही आरोग्य को प्राप्त कर सकेगा!

समय आधी रात से कुछ ऊपर का हो रहा था। रेलगाड़ी की खिड़की के बाहर घुप्प अंधेरा छाया हुआ था। कभी- कभी इक्के- दुक्के लैम्प- पोस्ट के पास से जब गाड़ी गुज़रती तो कमरे के अंदर थोड़ी सी रौशनी बिखर जाती थी परंतु चलती ट्रेन की तेज़ रफ्तार से वे जल्द ही पीछे छूट जाते थे!

कमरे के अंदर की बत्तियाँ इस समय सारी गुल कर दी गई थी। इधर- उधर लोग गहरी नींद में सोए पड़े थे। निशीथ को आजकल अकेलेपन से और अंधेरे से बहुत डर लगने लगा था! उसने अपनी बगल वाली बर्थ की ओर देखा!

पास वाली बर्थ में जीजा जी का अस्पष्ट सा अवयव उसे नज़र आया। परंतु उनके खर्राटों की आवाज़ के साथ- साथ तोंद का बार- बार ऊपर उठना और फिर तेज़ी से नीचे गिरने की प्रक्रिया को कुछ देर तक देखते रहने से यह स्पष्ट पता चल ही जाता था कि उस लोअर बर्थ में जो शख्स निद्रामग्न है वह निशीथ के जीजा जी ही हैं!

रेलगाड़ी के हौले- हौले कंपन से सब लोग बड़े मजे से नींद ले रहे थे। परंतु निशीथ की आँखों से निद्रा देवी इस समय कोसों दूर थी! कितनी रातें उसने यूँ जाग कर काटी थी। अब तो एक प्रकार से रात जागने की उसकी आदत सी बन गई थी।

वह उठकर अपनी बर्थ पर बैठ गया और खिड़की से बाहर अंधेरे में देखने की कोशिश करने लगा। थोड़ी ही देर में बाहर का अंधेरा भी उसकी आँखों को सहनीय लगने लगा था। और अब उसे अंधेरे में भी थोड़ा- थोड़ा दिखाई भी देने लगा था! वह दूर खड़े पेड़ों और खेत-खलिहानों को पहचानने लगा!

इस अंधेरी रात की एकांत में उसे अब याद आने लगा कि कितने अरमानों को संजोकर आज से करीब एक वर्ष पहले इसी तरह एक दिन रेलगाड़ी में बैठकर वह गाँव से शहर गया था!

निशीथ ने उन दिनों जिन्दगी में पहली बार अपने गाँव से बाहर कदम रखा था। रेलगाड़ी में भी शायद पहली बार ही बैठा था!

उसने अपने गाँव से ही मैट्रिक की परीक्षा भली- भाँति पास कर ली थी। फिर छात्रवृत्ति पाकर आँखों में आगामी दिनों के बहुत से सुंदर सपनों को सजाए, आगे काॅलेज की पढ़ाई पूरी करने के लिए कलकत्ता शहर के लिए निकल पड़ा था।

माँ के स्नेह आंचल के बाहर भी उसने पहली बार ही कदम रखा था। घर में माँ के अलावा और कोई न था! बचपन में उसके पिताजी का स्वर्गवास हो चुका था। एक बड़ी बहन थी, उसकी भी बरसों पहले शादी हो चुकी थी। अब जीजाजी ही उनके परिवार के अभिभावक थे।

माँ की बिलकुल भी इच्छा न थी इकलौते निशीथ को इतनी दूर भेजने की। परंतु जब निशीथ ने जाने की जिद्द की और जीजाजी से भी आज्ञा मिल गई थी तो माँ ने आगे कुछ न कहा,, फिर!

निशीथ को पहुँचाने साथ में उसका चचेरा भाई आया था, जो निशीथ से केवल दो साल ही बड़ा था। माँ ने उन्हें इसलिए भेजा था कि वे जाकर निशीथ को अच्छे से शहर में बसा दें!

परंतु राजेश भी निशीथ की ही तरह पहली बार कलकत्ता आया था तो यहाँ की चकाचौंध में वह बिलकुल खो गया था। यहाँ कितनी आज़ादी थी और समय काटने के कितने अच्छे साधन थे, सारे! राजेश तो जैसे खुशी से पागल हो उठा!

उसने कुछ दिनों तक तो खूब बायोस्कोप ( फिल्म) देखकर, एस्प्लैनेड में गोल- गप्पे खाकर, ट्रामों और बसों में सैर करके खूब मौज- मस्ती उड़ाई! फिर जब उसके जेब के सारे पैसे खत्म हो गए तो वह वापस गाँव चला गया!

कलकत्ता आते ही निशीथ को शीघ्र ही पार्क स्ट्रीट में एक मिशनरियों के काॅलेज में दाखिला मिल गया था। और हो भी क्यों न? निशीथ ने अपने पूरे जिले में सर्वप्रथम स्थान जो प्राप्त किया था!

शहर आकर इतना बड़ा काॅलेज देख कर गाँव का निशीथ शुरु में थोड़ा सा घबरा जरूर गया था, परंतु यह सोचकर उसने बहुत गर्व भी महसूस किया कि आज से वह भी इस प्रसिद्ध काॅलेज का एक छात्र है! वह भी धीरे- धीरे शहरी संस्कृति का हिस्सा बनता चला गया!

अब सिर्फ एक ही काम करना और शेष रह गया था। निशीथ को अपने लिए एक बासा ( घर, निवास- स्थान) ढूँढना था।

निशीथ की जरूरतें बहुत कम थी। अगर चाहता तो वह भी दूसरे लड़कों की तरह पूरा समय मेस में ही बीता सकता था। परंतु उसने सोचा कि एक तो निरिविलि ( एकांत ) में अच्छे से एग्ज़ाम के लिए पढ़ पाएगा, ऊपर से यदि गाँव-घर से कोई नाते-रिश्तेदार कभी कलकत्ता घूमने को आए तो, हाथ में एक पूरा कमरा होने से उनको यहीं पर ठहराया भी जा सकेगा।

शहरों के होटलों में जाकर रहना ग्रामीण लोगों की बस की बात कहाँ थी? फिर कोई यहाँ आकर कलकत्ता घूमना चाहेगा तो उसके लिए गाइड के रूप में निशीथ हाज़िर है ही!

जैसा सोच वैसा विचार!

निशीथ ने अगले ही दिन से अपने लिए बासा देखना शुरु कर दिया । इसी एवज़ में वह मल्लिकबाज़ार से लेकर श्यामबज़ार तक का इलाका पूरा- पूरा छान मारा था, परंतु कोई भी मकान उसकी रूचि के मुताबिक का न मिल पाया था।

कहीं कमरे के साथ संलग्न बाथरूम नहीं था तो कहीं कमरा ही इतना छोटा था कि उसमें रसोई बनाना संभव न था। किसी का किराया बहुत अधिक था तो कोई उसके काॅलेज से इतनी दूर था कि आने- जाने के किराये में छात्रवृत्ति का एक बड़ा सा अंश निकल जाता। फिर वह खाता क्या और काॅलेज की फीस क्या देता?

जब वह इसी उधेड़बुन में था तो एक दिन उसी का सहपाठी ग्रैबरियल उसके पास आया और बोला,

" देख निशीथ मेरे नज़र में तेरे लायक एक कमरा तो है,,,  परंतु --!"

" परंतु क्या रे? कितनी दूर है,पहले यह बता।"

" यहीं इंटाली मार्केट के पास!"

" अरे शाबाश!! यह तो बिलकुल ही पास है,,, फिर तू परेशान क्यों है?"

" चल तू पहले कमरा देख ले, फिर तुझे सब बताता हूँ!"

( क्रमशः)


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