N.s Kadhian

Horror Romance Fantasy

4.2  

N.s Kadhian

Horror Romance Fantasy

काल देवी

काल देवी

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  कहानी का अति सक्षिप्त परिचय- पृथ्वी पर जो जीवधारी पैदा होता है उसे एक काल अवधि बाद मौत की देवी यानि काल देवी अपने आगोश में ले लेती है। मरते सब हैं लेकिन मरना कोई नहीं चाहता, ये अटल सत्य है। काल देवी की आगोश से बचने के लिये लोग नाना प्रकार के उपाय टोने-टोटके करते हैं। मंदिर, मस्जिद, गुरुद्वारों में सलामती की दुवाएं मांगते हैं, छल-कपट, बे-हिसाब दौलत एकत्र करते हैं। प्रस्तूत कहानी का नायक काल देवी से दहशतजदा है। वह मौत से बचने के लिए भागता है, जोड़-तोड़ लगाता है मगर अंतत काल देवी उसे समझाती है कि स्भाविक रूप से प्रकृति के साथ तालमेल बना कर जीवन व्यतीत करो। मौत कष्ट नहीं जीवन रूपांतरण क्रिया है। जैसे तुम्हे पैदा होते समय कोई कष्ट नहीं होता ऐसे ही स्भाविक मृत्यु में भी तुम्हे कष्ट नहीं होगा और तुम चीर नींद्रा में सो जाओगे।

    सत्य घटना- अशोक विहार कालोनी पानीपत 15 मार्च 1995,


                                  कहानी

                                           काल देवी

                                                    नफे सिंह कादयान                                                      


    मुझे अच्छी प्रकार याद है। वह मार्च महीने की एक सामान्य मौसम की रात थी। अर्थात न तो अधिक सर्दी थी, और न ही गर्मी। यह हकीकत में थी मगर मेरी आभासी दुनिया में ये सब नही चलता। यहां दिन, महीने, मौसम कोई और शक्ति तय करती है। मैं चीजों में से गुजरता जरूर हूं, कुछ कर भी रहा होता हूं, ऐसा आभास होता है कि हर स्थिति मेरे नियंत्रण में है मगर वास्तव में ऐसा होता नही है। मेरा आन्नद, खोफ, उत्तेजना, रोना, हंसना सब होता है मगर मेरे सामने बनने वाले दृष्य मेरे नियंत्रण से बाहर होते हैं। मैं करना कुछ चाहता हूं, पर हो कुछ और जाता है।

  मैं बचना चाहता हूं, पर बच नही सकता। भागना चाहता हूं, पर भाग नही सकता। ऐसा नही है कि मैं भागने के लिये हाथ पैर नही मारता। मैं पुरजोर कोशिस करता हूं, पर जितनी भी कोशिस करूं, मेरी क्रिया स्लो-मोशन में बदल जाती है। बस, बचने का मेरे पास एक ही उपाय होता है, और वो है सपने से बाहर निकल कर हकीकत की दुनिया में आ जाऊं। पर ये सब मेरे लिये आसान नही है।

  मैं कोशिस करता हूं और बाहर आने के लिये पूरा जोर लगता हूं। कई बार समस्या यह हो जाती है कि मैं सपने में ही जागने के लिये जोर लगाने का सपना देख रहा होता हूं। अर्थात मुझे लगता है कि मैं जाग गया हूं, मगर अफसोस की मैं कई बार वाकई जाग जाता हूं, और कई बार सपने में जाग कर किसी खोफनाक घटना से पलायन करने लगता हूं। वह घटना कुछ थोड़े से फेरबदल के साथ फिर चलने लगती है।  

   भगवान गढ़ में टिल्लु के टयूबवैल वाली घटना से पहले मुझे सामान्य सपने आते थे। यानि मेरे सोने के बाद ही कोई सपना चलता होगा मगर अब मेरे आंख बंद करने के कुछ ही देर बाद नींद के झोकों में ही कोई चित्र बनने लगता है। मुझे ये भी अहसास रहता है कि मैं अभी सोया नही हूं। चित्र बना...., झटका सा लग कर फिर मिट गया। काफी देर तक ऐसे होता रहता है, जैसे किसी ने कोई वाक्य बोल दिया, या कोई मेरे पास आकर खड़ा हो गया। कुछ परछाईयां सी भी एकाएक चल कर गायब होने लगती हैं, फिर एक नया आकाश खुलने लगता है, मैं एक नई दुनिया में प्रवेश करने लगता हूं।

  आज कंबल फैक्ट्री में काम करने के बाद मैं हर रोज की तरह घर आ गया। रात का भोजन करने के बाद नित्य की तरह पत्नी के पास बैड पर बैठ टी.वी. पर अपना पसंदीदा जुबान संभाल के नाटक देखने लगा। वहां मेरे दोनों बच्चे नेहा और राहुल मेरे पास ही खेल रहे थे। आज दिन भर काम कर मैं बहुत थका हुआ महसूस कर रहा था। शीघ्र ही मुझे नींद आने लगी। पत्नी को कह कर मैं टी.वी. की आवाज कम करवा अपनी खाट पर आ लेटा। मेरी पत्नी दोनों बच्चों के साथ बैड पर सोती थी और मैं चारपाई पर। लेटने के बाद कुछ देर मैं छत पर लगी लकड़ी की कड़ियों की तरफ देखता रहा फिर मन ही मन अपनी मशीन पर चढ़े कंबल ताने का हिसाब लगाने लगा कि कितनी बुनाई अभी बाकि है। मेरे ताने के दस पीस कब तक कटेंगे, और फिर....

  पेड़ों की एक बहुत लम्बी श्रृंखला है जो उपर शिखर तक दिखाई दे रही है। मैं धीरे-धीरे चलता हुआ उसकी तरफ बड़ने लगा। वह एक बहुत ऊंचा काला सा पहाड़ है जिस पर स्याह काली रात में बड़े-बड़े पेड़ों के झुरमुट चमक रहे हैं। पश्चिम में सूरज अभी छिपा नही है। वो पहाड़ की चोटी के ठीक पीछे है। मेरी तरफ अंधकार है मगर पहाड़ के पीछे से रोशनी के फौवारे से फूट रहे हैं। जैसे-जैसे सूरज नीचे और नीचे जा रहा है वैसे वैसे अंधकार भी बड़ता जा रहा है।

  पश्चिम में सूरज जैसे ही नीचे आया काले पहाड़ ने उसे निगल लिया। देखते ही देखते ऊंचे पहाड़ के साये सर्द काली रात के दामन में सिमट कर लुप्त हो गए। गहन निरवता से डर कर पहाड़ी चिडियां अपने घोंसले में छिप कर सो गई। अब यहां निशाचरों की पदचाप शुरू हो गई थी। वे अपनी खोहों से निकल कर पेट की आग शांत करने के लिए गीजा तलाशने लगे। 

  मैंने इस प्रकार का काला पहाड़ पहली बार देखा था। मैं उसकी तलहटी में खड़ा होकर अभी उसके बारे में कुछ सोच ही रहा था कि मुझे अपने पीछे घोड़े के टापों की आवाज सुनाई दी। घोड़े वाला बिल्कुल मेरे पास आ चुका था। मैने उसे ध्यान से देखा। वह लगभग अस्सी साल का लम्बा मरियल सा बूढ़ा था। सफेद लम्बी दाढ़ी, कमर थोड़ी झुकी हुई। उसने मेरे पिता जी की तरह सर पर पगड़ी बांधी हुई थी। वह मेरे पास आ घोड़े से उतरते ही मुझ से बोला- ‘रूक क्यों गया... जा उपर चला जा, तेरी मंजिल वहीं है।’

 ‘आप कौन हैं? मैं तो बस यहां वैसे ही खड़ा हूं। पहाड़ के उपर जाने थोड़े ही आया हूं।’ मैं उस से प्रश्न पूछते हुए बोला।

  ‘हां आजकल के तेरे जैसे बच्चों को बात करने की तमीज ही नही है। मैं तेरे बाप के बाप का बाप हूं...... समझा कुछ। अपने बुजुर्गों की तुझे पहचान नही है। होगी भी कैसे, उस समय तो तुम यहाँ थे ही नही।’ वह बुजुर्ग कुछ रूखे शब्दों के साथ मुझ से बोला।

  ‘अच्छा तो तुम मेरे दादा जी हो। झाड़-झंखार, पेड़-पौधों के अलावा इस उबड़-खाबड़ बदरंग से काले पहाड़ के उपर ऐसा क्या है जो मुझे पसंद आयेगा?’ मैने उस से पूछा। मुझे वह बुजुर्ग बहुत ही रहस्मयी सा प्रतीत हो रहा था। उसकी परछाई कभी दाएं घूम जाती थी कभी बाएं जबकि वह बिल्किुल स्थिर था।

  ‘नहीं मैं तेरे उस दादा का भी दादा हूं। तुम इस चक्कर में मत पड़ो और कान लगा कर ध्यान से मेरी बात सुनों। उपर काले पहाड़ की चोटी पर काल देवी का मंदिर है। आज अमावस की काली रात है। मन्दिर में आज रात ठीक बारह बजे काल देवी की पूजा करोगे तो तुम्हारे जन्म-जन्मातर के पाप धुल जायेंगे। मरने के बाद तुम प्रेतयोनी में नही भटकोगे। सीधे स्वर्ग में तेरा निवास होगा। तुम उपर चढ़ते जाना, रास्ते में बहुत कठिनाईयां आएंगी। झाड़-झंखार तेरा रास्ता रोकेंगे। चाहे कुछ भी हो डरना नही। पीछे मुड़कर बिल्कुल भी मत देखना।’ वह बुजुर्ग जो की मेरे दादा का भी दादा था मुहं से बोलता जा रहा था और जमीन पर पड़ती हुई उसकी काली परछाई दोनों हाथों को विभिन्न मुद्राओं में हिलाते हुए मुझे उपर चढ़ने का इशारा कर रही थी। 

  ‘मैं भूत-प्रेत, देवी-देवता, स्वर्ग-नर्क में विश्वास नही करता। ये कुछ नही होते बस अंधविश्वासियों के विचार मात्र हैं जो कुछ लोगों का पैसा कमाने का धंधा, दाना-पानी बने हुए हैं, आप मेरे दादा जी हैं, आप कह रहे हैं तो मैं उपर जाकर पूजा कर आता हूं, इसमें कुछ हर्ज भी नही है।’ मैं दादा जी से बोला। 

  ‘दाना-पानी......, दाना-पानी। अब मुझे लगता है तेरा दाना-पानी उठने वाला है। वो उपर बनी पगडण्डी देख। तुम उपर जाते हो या नही? तुम समझते क्यों नही। एक बार वहां गए तो फिर बार-बार जन्म लेना नही पड़ेगा। तुम मुक्ति पा हमेशा के लिये अमर हो जाओगे। बस अभी चल दो।’ दादा जी इस बार अपने हाथ से पहाड़ पर पेड़ो के झुरमुट में सांप की तरह बलखाती हुई उपर जाने वाली पगडंडी की तरफ इशारा करते हुए गुस्से से बोले।

  ‘हां, हां, जा रहा हूं, गुस्सा नही होने का।’ कहते हुए मैं उस पगडण्डी का अवलोकन करने लगा जिधर दादा जी इशारा कर रहे थे। दादा जी के स्वर में न जाने कैसी शक्ति थी कि फिर मैने बहस करना उचित नहीं समझा। मैं पलटा और पहाड़ पर बनी पगडंडी पर तेजी से उपर चढ़ने लगा। मैने काफी उपर जाकर नीचे झांक कर देखा। मन में विचार आया कि देखूं दादा जी चले गए, या वहीं खड़े हैं।

   ‘ओह! वे ये क्या कर रहे हैं ? मेरे मन से अन्यासा ही विस्मयकारी शब्द निकले। नीचे जहां मैं और दादा जी बातचीत कर रहे थे वहां से नीचे बहुत गहरी खाई थी। अब दादा जी और घोड़ा खाई में नीचे उतर रहे थे। जितना मैं पहाड़ पर चढ़ा था उतना ही वो नीचे उतरे थे। दादा जी घोड़े पर नही थे बल्कि अपने हाथों पैरों से सरकते हुए नीचे उतर रहे थे, ऐसे जैसे कोई इल्ली टहनी पर रेंगती हुई चलती है। उसके साथ ही उसकी परछाई भी नीचे उतर रही थी। जमीन पर दादा जी के हाथ पैर चलाने की मुद्रा और परछाई की अलग थी। ऐसे जैसे दोनों अलग-अलग हों। घोड़ा भी ऐसे ही अपनी टांगे पत्थरों पर रगड़ते हुए नीचे जा रहा था। हैरानी ये थी कि उस घोड़े की परछाई मुझे कहीं दिखाई नहीं दे रही थी।

  ‘शायद घोड़े के अंदर हो। घोड़े के अंदर?...हा हा हा।’ मैंने अपने से ही सवाल किया और जैसे अपनी ही मुर्खतापूर्ण बात पर हंसने लगा, फिर मैने अपने सिर को हल्का सा झटका दिया और दोबारा उपर चढ़ने लगा।

   रात में पहाड़ पर चढऩा आसान नही था, उपर से पगडंडी के आस-पास उगा झाड़-झंखार मेरे चलने में बाधक बन रहा था। कई जगह बेलें पैरों में लिपट कर मुझे गिराने की कोशिस कर रही थी। मैं थोड़ा डगमगाता मगर फिर संभल कर चलने लगता। कई जगह कांटेदार झाड़ियां भी मेरा रास्ता रोक रही थी और उपर से गहन अंधकार। 

   मुझे इस बात का अहसास था की पूजा पाठ में मेरी कोई रूची नही है। और न ही मैं कभी मंदिरों में पूजा करने जाता हूं। दादा जी की हठ की वजह से ही मैं इस दुर्गम रास्ते से काल देवी के दर्शन करने आया था। दादा जी ने कहा था कि वर्ष की अंतिम अमावस को अर्ध रात्रिकाल में काल देवी के दर्शन करने से जन्म जन्मांतर के पाप धुल जाते हैं। काल देवी के दर्शन मात्र से ही व्यक्ति मरने के बाद स्वर्ग में प्रस्थान कर जाता है।

  'मैं तो अगले पिछले किसी जन्म के बारे में नही जानता फिर कैसे पाप....कैसे पुण्य।, मैंने तर्क देकर दादा जी को समझाया था पर वो नही माने। वो बलात् मुझे मेरे तथाकथित पापों से मुक्ति दिलवाना चाहते थे। आखिरकार मुझे अहसास हुआ कि एक बार काल देवी की पूजा कर ही आता हूं, इसमें परेशानी भी क्या है। इससे उसका वहम भी दूर हो जाएगा और फिर कभी दादा जी मुझे परेशान नही करेंगे।

  वह एक अनजान पगडंडी थी जिस पर मैं जीवन में पहली बार चल रहा था, दादा जी ने मुझे रास्ते की कठिनाइयों के बारे कुछ हद तक पहले ही अवगत करा दिया था। आखिरकार दो-तीन घण्टे चलने के बाद मुझे एक रोशनी का बिंदु सा दिखाई देने लगा। वहां उपर पहाड़ के शिखर पर गहन अंधकार की कोख में चमकते छोटे से अग्रिपुंज से मुझे अपनी मंजिल के निसा मिल ही गए। ज्यों-ज्यों मैं आगे बड़ता गया अग्रिपुंज भी बड़ा और बड़ा होता चला गया। फिर रोशनी के साथ मंदिर की घंटियां खनकने की आवाजे भी मेरे कानों में पडऩे लगी। 

   वहां अमावस की स्याह काली रात में झिलमिलाती रोशनियां दूर से ही मेरा मन मोह रही थी। उन्हे देखते ही मेरे सफर की थकान जैसे छू मंतर हो गई। मंदिर के आस-पास दो-तीन रंग-बिरंगे तंबु लगे थे। दूर से मुझे वह तम्बु भव्य रोशनियों के पिटारों जैसे नजर आ रहे थे। वहां उपर पहाड़ की चोटी पर काल देवी का मंदिर सबसे अधिक भव्य जगमगाता हुआ दिखाई दे रहा था। रोशनी किस चीज से हो रही थी मालूम नहीं पड़ रहा था पर ऐसा लग रहा था जैसे पूरा मंदिर किसी सफेद चमकते गोले से जगमगा रहा हो।

  घंटियों की आवाज सुनाई देते ही मंदिर की तरफ बड़ते हुए मेरे कदमों में स्वत: ही तेजी आ गई। विराने में स्थित इस मंदिर के चारों तरफ का जंगल गहन अंधकार की चादर लपेटे था। वहां पेड़ पहाड़ झाड़ झंखार सब रहस्यमय सायों की तरह नजर आ रहे थे। मंदिर की रोशनी के दर्शन से पहले एक अनजाना सा भय मेरे मन में समाया था पर अब मैं पूरी तरह उत्साह से भर कर मंदिर की तरफ तेजी से जाने लगा। तेजी से चलते हुए मैने मंदिर के प्रांगण में प्रवेश कर लिया।

  रोशनी के दायरे में प्रवेश करते ही मै पहले तंबू झांक कर देखने लगा। अंदर देखा तो वहां एक स्त्री गीली माटी को गूंथ कर खिलौने बना रही थी। वहां शेर, हाथी, चीता, भालू व अन्य जानवरों के खिलौने बने हुए थे। बाहर से देखने में वो तंबू छोटा दिखाई देता था मगर अंदर जब देखा तो तो हैरानी से मेरा मुंह खुला का खुला रह गया। सामने देखने पर उस तंबू का ओर-छोर मुझे कहीं नजर ही नही आ रहा था। हर जगह खिलौने ही खिलौने थे। वहां पेड़-पौधों तक के खिलौने नजर आ रहे थे। ऐसा लगता था अंदर एक अलग नया संसार है जो अनेक प्रकार के खिलौनो से भरा हुआ है।

  वहां उसके बनाए अनेक स्त्रियों के खिलौने थे जो अपनी गोदी में बच्चे लिये थी। कोई बच्चे को अपना दूध पिला रही थी तो कोई उसे हाथों से दुलार रही थी। एक खिलौना स्त्री ने छोटे बच्चे की उंगली पकड़ी हुई थी। ऐसा प्रतीत हो रहा था जैसे वह उसे चलना सिखा रही हो। उस स्त्री की शक्ल मुझे कुछ जानी पहचानी लग रही थी। मैने उसे ध्यान से देखा तो हैरानी से मेरा मुंह खुला का खुला रह गया।

  'ओह! ये तो मेरी मां जैसी लगती है। लगती क्या पक्का ये मेरी मां की मुर्ति है।, मेरे मन से आवाज आई पर प्रत्यक्ष में कुछ नही बोला। वहां वह खिलोने बनाने वाली स्त्री जैसे मन की भाषा पढऩा जानती हो। वह उंगली पकड़े बच्चे की तरफ इशारा कर हंसते हुए बोली- 'और ये तुम हो बेटा।,

 ओह! हां ये तो मैं ही हूं। उस बच्चे को देख मुझे अपना बचपन याद आ गया। बचपन में मेरी ऐसी ही शक्ल सूरत थी। 

  'मेरी मां की मुर्ती आप ने कैसे बना दी। क्या आप मेरा मां को जानती हैं? मैं हैरानी से उस से पूछता हुआ बोला। 

 'मैं बे-माता हूं बेटा, तुम्हे ही क्यों, मैं तो सारे जहान को जानती हूं। तुम्हे मैं ही तो बनाती हूं।, वह स्त्री मेरी तरफ देख कर हंसते हुए बोली।

 'बे-माता.., मै समझा नही। हम माटी के पुतले नही बल्कि हाड़-मांस से बने हैं।, 

  'तुम नही समझोगे बेटा, मैं जीव आत्मा देने वाली माता हूं। तुम्हारी मां   तुम्हे जन्म देती है और मैं तुम्हारे अंदर प्राण डाल देती हूं।

   मैं उसकी बातें सुन असमंजस की स्थिति में पड़ गया। उसकी बातें मेरी समझ से बाहर थी पर वह मां की तरह जरूर थी। उसे देख कर मुझे न जाने क्या हो रहा था। दिल कर रहा था की शामियाने के अंदर जाकर उस की गोदी में बैठ जाऊं। उसके आंचल मे छुप कर सो जाऊं। मां से लिपटने का अहसास ही मुझे रोमांचित कर रहा था। मेरे रोम-रोम में आन्नद की तरंगे भर गई थी। 

  मै कुछ देर वहीं खड़ा उसे निहारता रहा फिर अगले तंबुओं की तरफ चल दिया।

   अगले तंबू में गया तो वहां अजीब नजारा था। यह बहुत ही विशाल उंचा तंबू था इसके मध्य में एक गोल शिवलिंग जैसी बहुत उंची चिकनी चट्टान थी। कई लोग चारों तरफ से उसकी चोटी पर चढऩे की जी तोड़ कोशिस कर रहे थे। वे कुछ उपर जाते मगर चट्टान चिकनी होने के कारण वापिस नीचे आ गिरते। इस कोशिस में वे सर्दी में भी पसीने से लथपथ हो रहे थे। उन्हे देख कर मेरे मुंह से हंसी का ठहाका निकल पड़ा- 'भाई लोगो ये क्या मुर्खता कर रहे हो। चिकनी चट्टान पर भी कभी चढ़ा जाता है।, मैं जोर से बोला।

  'देख नही रहा हम काम कर रहे हैं...काम। हमारे बुजुर्ग भी ऐसे ही काम करते रहे हैं। देखना एक दिन हम इस पर जरूर चढ़ जाएंगे। अगर हम नही चढ़ सके तो हमारे बच्चे जरूर इसकी बुलंदी पर होंगे। उनमें से एक बोला और वापिस चट्टान पर चढऩे की कोशिस करने लगा।,

  'जरूर होंगे।, मैं उनकी मुर्खता पर हंसता हुआ काल देवी के भवन के अंदर आ गया। मंदिर में एक सीधी खड़ी चट्टान के नीचे खोह नुमा गुफा थी जिसमें सिर की तरह उभरे हुए एक छोटे पत्थर का पुजारियों ने सुंदरता से श्रृंगार किया हुआ था। पत्थर को हीरे, जवाहरात, सोने, चांदी की माला, मुकट पहनाए गए थे। यहां सैकड़ों स्त्री, पुरूष एकत्र थे जो माता की भजन आरती पूजा पाठ में मग्न थे। लोग माता की जय-जय कार करते हुए लोट पोट हो रहे थे। ‘शायद ये उभरा हुआ पत्थर ही वो काल देवी है दादा जी के कथना अनुसार जिसकी पूजा करने से मेरे जन्म जन्मांतर के पाप धुल जाएंगे। मुझे जन्म-मरण के बंधनों से मुक्ति मिल जायेगी।’ अनमने मन से मैने उस पत्थर को हाथ जोड़ कर नमन किया।

  'लो हो गई पूजा, धुल गए मेरे जन्म जन्मांतर के पाप।, दादा जी की नसीहतों पर मुझे मन ही मन हंसी आ रही थी। पूजा अर्चना कर मैं वापिस जाने लगा तो एक पुजारी पीछे चौखाने की तरफ हाथ से इशारा करते हुए बाला- ‘वहां से जाओ बेटा, जहां से आए हो उस रास्ते से वापिस नही जाया जा सकता।’

  ‘क्यों नही जाया जा सकता?’ जी में तो आया की पुजारी से बहस करूं मगर कुछ सोच कर मैं मंदिर में पिछली तरफ से बाहर जाने वाले द्वार की तरफ चल दिया।

  उस मंदिर में आने के लिये सामने से दरवाजा था और बाहर निकलने के लिये पीछे एक छोटा झरोखेनुमा चौखाना बना हुआ था। बाहर निकलने वाले द्वार के बाहर एक गैलरी नुमा विशाल लम्बी परछत्ती बनी थी। उस गैलरी के अंदर से होकर ही बाहरी द्वार पार किया जा सकता था। वहां गैलरी में एक लम्बा-चौड़ा काला बुजंग आदमी हाथ में तलवार लिए खड़ा था। उसने काले कपड़े पहने थे जिन पर फौजियों की तरह चमड़े की बैल्ट लगी थी। जेब के उपर कई तमगे से लटक रहे थे जिन पर नर कंकालों के छोटे-बड़े चित्र बने थे। वह देखने में ऐसा लगता था जैसे रावण के दरबार का कोई डरावना राक्षस खड़ा हो।

  'आ जाओ..आ जाओ....अंदर आकर लोगों की कतार में लग जाओ, बस अपनी बारी की प्रतिक्षा करो।’ वह मुझसे इस अंदाज में बोला की डर से मेरा शरीर थर-थर कांपने लगा। 

  अंदर गया तो वहां पर दर्जनों लोग बाहर जाने के लिये कतार लगाए खड़े थे। वे सब काल देवी की जय-जय कार करते हुए झूम रहे थे। लाइन में लगी हुई कुछ औरतें तो सर हिला-हिला कर पता नही कैसा गीत गा रही थी जो मेरी समझ में नही आ रहा था। लोगों की लाइन से कुछ आगे बाहर जाने के लिये दरवाजा था जिस पर काले रंग के बेल-बुटटों से नक्कासी की गई थी। यह ऐसा दरवाजा था जैसे किसी मस्जिद का बड़ा गेट होता है। वहां ये देख कर मुझे बेहद आश्चर्य हुआ कि गैलरी में तो भरपूर रोशनी थी मगर उससे बाहर निकलने वाले द्वार से आगे गहन अंधकार छाया था।

   अंदर की सफेद चमकदार रोशनी खुले हुए द्वार के पार क्यों नही जा रही हैरान होता हुआ मैं बाहर जाने के लिए द्वार की तरफ बड़ा ही था की पीछे से काले बुजंग की कर्कश आवाज मेरे कानों से टकराई- 'मुर्ख प्राणी तुमने सुना नही की श-शरीर यहां से जाने का कोई जरिया ही नही है, कोई बाहर नहीं जा सकता। अभी काल देवी आकर तुम्हे मुक्ति देगी।,

  'काल देवी...मुक्ति।, मैं अभी उसके शब्दों के अर्थ को समझने की कोशिस ही कर रहा था की द्वार से बाहर गहन अंधकार में घंटियों की आवाजों के साथ इतनी भयंकर चीखें सुनाई दी की डर की एक लहर सी मेरे सीने को चीरती चली गई। चीखों के साथ ही ऐसी आवाजें आई जैसे हजारों रूहें एक साथ रूदन कर रही हों। मैं गैलरी के बीच में खड़ा था पर अब वहां से एक छलांग लोगो की कतार में सब से पीछे इस प्रकार छुप कर खड़ा हो गया जिससे किसी को नजर न आऊं।

  उस दरवाजे से बाहर अंधकार में अब लाखों जुगनू से चमकने लगे थे जो चमकदार किरणे बिखेरते हुए जल बुझ रहे थे। चंद ही पलों में वहां हाथ में तलवार लिए एक बहुत ही कुरूप डरावनी ऐसी स्त्री प्रकट हुई जिसकी आंखे अंगारों के समान दहक रही थी। उसके रूखे-सूखे घने काले बाल इतने लम्बे थे की उनका निचला छोर जमीन को छू रहा था।

   मैं उसकी तुलना काली माता से करने लगा पर वह उस जैसी कतई नही थी। उसका शारीरिक ढांचा ही बहुत अजीब था। ऐसा लगता था जैसे वह केवल देखने भर को ही स्त्री हो, वरना तो वह एक लम्बे-चैड़े नर कंकाल की तरह थी। 

   'जिसका वक्त पूरा हो चुका है उसे यहां से बाहर जाने के लिये मुक्ति दिलवाओ यमदूत।’ आते ही वह उस बुजंग से बोली। 

  'शायद इसी कालिये का नाम यमदूत है, और ये है असली काल देवी। पर मुझे क्या। आखिर ये है क्या बला?, सोच कर मेरा दिमाग कुंद हो रहा था और डर से मेरी गिग्गी बंधी थी।

  मेरा मन मेरे ही अंर्तमन से सवाल जवाब कर रहा था तभी वहां चंद ही पलों में वह घटना घट गई जिसकी मुझे कतई उम्मीद नही थी, ये तो मेरे दिमाग में था की यहां कुछ अनर्थ होने वाला है पर इतना विभित्सक कृत्य होगा मालूम नही था। यमदूत ने कतार में आगे खड़े व्यक्ति की गरदन पकड़ कर उसे द्वार की चोखट पर लिटा दिया।

   काल देवी की तलवार का एक वार हुआ और उसकी गरदन कट कर धड़ से अलग हो गई। गरदन से जैसे खून की पिचकारियां चारों तरफ निकल कर फैलने लगी, और उसका निचला शरीर टांगे ऐसे चलाने लगा जैसे कोई सर्प मरने पर तड़पता है। उस यमदूत ने लापरवाही से उसके कटे सिर धड़ को गेलरी में एक तरफ फैंक दिया। ऐसे जैसे कोई कुड़ा करकट कुरडिय़ों पर फैंकता है।

  वहां ये कृत्य देख मेरे मुहं से दहशत में एक चींख निकल गई पर बाकि कतार में लगे लोग जैस अर्ध-बेहोशी में थे। ऐसा लगता था जैसे वे किसी घातक नशे के वशिभूत थे। क्या था वो नशा, शराब, स्मैक, गांजा, शायद नही। ये इनसे भी खतरनाक नशा था। उनके उपर चढ़ा हुआ था धर्म का नशा। वे सब जोर जोर से जय काल देवी का उचारण करते हुए झूम रहे थे, नाच रहे थे। केवल मैं ही वहां पर पूर्ण सजग था। तभी यमदूत ने कतार से दूसरे व्यक्ति की गरदन पकड़ कर चोखट पर डाला तो काल देवी ने तलवार से उसकी भी गरदन काट दी। 

  तीसरे व्यक्ति को लाया गया तो काल देवी उसके सर पर हाथ फिराती हुई बोली- 'इसे कहां बुला लाये। इसे वापिस भेज दो, अभी इसका मुक्ति समय नही आया है।,

  यमदूत ने उसका मुंह मंदिर की तरफ कर दिया तो वह उस तरफ चला गया जहां से मैने इस परछत्ती में प्रवेश किया था। अब में अपने आप से ही खफा हो रहा था की आखिर इस तरफ आ ही क्यों गया। मैं हैरान था कि इस तरफ आने के लिये मुझे जिस पुरोहित ने प्रेरित किया था वह उनसे एकदम अलग था जो वहां काल देवी की पूजा कर रहे थे। हो सकता है यहां सब का काम बंटा हुआ हो। जो भी हो यहां मैं बुरी तरह से फंस गया था और अब सोच रहा था कि मुझे दादा जी की बात नहीं माननी चाहिये थी। अब तो मुझे शक होने लगा था की वो सचमुच में मेरा दादा था या उसने मुझे यहां मरने के लिये भेज दिया था। 

  काल देवी कईं लोगों की गरदने काटने के बाद एक दो को ही छोड़ रही थी। मेरे बचने के आसार न के बराबर थे। वहां गरदनों व धड़ो के डेर लग गए थे। खून की जैसे वहां नदी बहने लगी थी। वह मेरे पैरों तक पहुंच चुका था। बस अब शीघ्र ही मेरा नम्बर भी लगने वाला था।

  'अगर जान बचानी है तो भाग ले यहां से।, मेरी अंर्तआत्मा मुझे वहां से भगाने के लिए तैयार करने लगी। मैने उस स्थिति से पलायन करने के लिये पूरा जोर लगाया मगर बात नही बनी। एक बार तो ये भी अहसास हुआ जैसे नेहा कहीं आस-पास ही जोर-जोर से हंस रही हो मगर फिर सब कुछ गडमड हो गया। वहां यमदूत मेरे आगे के चार पांच व्यक्तियों में से सबसे आगे वाले व्यक्ति को पकड़ कर देवी के पास ले गया। उसने उसकी गरदन चोखट पर रख दी। देवी ने जैसे ही उसकी गरदन काटने के लिये हवा में तलवार लहराई मेने वापिस मंदिर की तरफ छलांग लगा दी। मेरे पास बस ये ही एक क्षण था अपनी जान बचाने के लिये। 

  मैं बिना पीछे देखे सर पर पांव रख वहां से सरपट भागने लगा। मंदिर से होता हुआ तंबुओं की तरफ भागा मगर ये देख कर आश्चर्य चकित रह गया की वहां मंदिर में एक भी आदमी नही था। आगे कोई तंबु भी नही था। 

  'शायद अब उखाड़ लिए हों, इस समय तो कुछ भी सोचने का वक्त मेरे पास नही था। मैं तो बस अपनी जान बचाना चाहता था।

  भागता हुआ जब तंबुओं वाले स्थान से आगे गया तो मेरे सामने एक और समस्या खड़ी हो गई। वापिस पहाड़ से नीचे जाने वाली पगडंडी न जाने कहां लुप्त हो गई थी। वहां मुझे चारों तरफ घना जंगल, पेड़, बेलें, झाड़ झंखार ही दिखाई दे रहे थे। मैं दोड़-दोड़ कर अपने दादा को भला-बुरा कहता हुआ इधर-उधर भाग कर पगडंडी खोजने लगा। तभी मुझे अपने पीछे घंटियों के साथ वो ही भयानक चीखें सुनाई दी जो द्वार पर देवी के आगमन पर आई थी। चीखों के साथ हजारों रूहों का रूदन सुन कर मेरे शरीर का जैसे लकवा मार गया। मैं वहीं जड़ होकर खड़ा हो गया।

    मैं भागना चाहता था मगर कदम साथ नही दे रहे थे। एक बार और चीखों की बौछार मेरे कानों के परदों से टकराई तो अर्ध-बेहोशी सी की हालत में मैने पीछे मुड़ कर देखा। पीछे काल देवी कहीं नजर नही आ रही थी और मंदिर की सफेद रोशनी भी गायब हो चुकी थी। वहां गहन अंधकार के अतिरिक्त मुझे कुछ दिखाई नही दिया। मंदिर भी या तो गहन अंधकार में डूब चुका था या गायब हो गया था।

  'मैं मृत्यू से बच सकता हूं। शायद देवी मुझ से अभी कुछ दूर है।’ मेरे अंदर जैसे फिर रक्त संचार हो गया। पगडंडी खोजने का मतलब है काल देवी की तलवार से गरदन कटवाना। मैं दोबारा नाक की सीध में झाड़-झखार को चीरता हुआ पहाड़ पर सरपट भाग कर नीचे उतरने लगा। चीखें और घंटियों की आवाजे थी की मेरा पीछा नही छोड़ रही थी। वे एक अंतराल के बाद रह रह कर मुझे सुनाई दे रही थी मगर अब मैं पीछे मुड़ कर नही देख रहा था। 

  भागते-भागते झाड़-झंखार में फंसकर मेरे कपड़े चिंदियां बन गए। पत्थरों से टकरा कर शरीर लहु लुहान हो गया। मैं भाग रहा था, और तेजी से भाग रहा था। भागते-भागते मेरी आंखे बोझिल होने लगी। मन इन परिस्थितियों से निकलना चाहता था मगर कामयाब नही हो रहा था। नीचे से उपर तक जब लाल-पीला उजाला फैला तो दिन बन गया। उसमें काले रंग के पेड़-पौधे पहाडों के दृष्य बनाने लगे। कब दिन निकलता, कब रात हो जाती मुझे कुछ मालूम नही। मुझे दिन रात घंटियों की आवाजे और चीखें सुनाई दे रही थी। मैं बस अपनी मौत से बच कर भाग रहा था। मुझे ऐसा लगा जैसे घंटियां चीखें झाड़-झंखार शायद अब ये ही मेरी बाकी जिंदगी में चलेंगे

  मैने एक बार फिर शरीर की पूरी शक्ति एकत्र की और एक जोरदार झटका दे मारा। मैं बाहर तो नही आया पर दृष्य में थोड़ा परिवर्तन जरूर हो गया। अब मैं पहाड़ो से मैदानों में आ गया था। पहाड़ कहीं पीछे छुट गए आगे विरान, बंजर झुलसे हुए मैदान थे जिनमें जिंदगी का कहीं नामोंनिशान नही था। वहां लाल रंग के गर्द गुब्बार इधर-उधर उड़ रहे थे। मैदान में कहीं-कहीं बहुत गहरे खडडे थे जिनमें से धूआं निकल रहा था। गहरा काला घुटन भरा धूआं, ऐसा जैसे किसी ने सैकड़ों टायर जला दिये हों। वह धूआं मेरे फेफड़ो में प्रवेश करता तो मैं जोर-जोर से खांसने लगता। मैं उस धुएं से इधर-उधर बच कर भागने लगा। 

  अब मैं वहां मैदानी इलाके में भाग रहा था। चीखें थी की अब भी मेरा पीछा नहीं छोड़ रही थी। एक दिन भागते-भागते मुझे अहसास हुआ की एक परछाई भी मेरे साथ-साथ भाग रही है। ध्यान से देखा तो पता चला की वह मानव परछाई है।

  ‘आखिर ये क्या माजरा है?’ मैं रूक कर इधर-उधर देखने लगा पर कहीं कोई नजर नही आया। जब मैं रूका तो मेरे रूकते ही परछाई भी रूक गई। तभी मेरा ध्यान अपने सिर के उपर गया। मैने सर उठाकर उपर देखा तो मैं ये देख हैरान रह गया की वहां एक आदमी ठीक मेरे सिर के उपर उड़ रहा था। मेरे रूकते ही वह भी हवा में स्थिर हो गया। उसके तन पर भी मेरी तरह कपड़े फट कर चिंदियों में लटके हुए थे। शरीर पर मुझ से भी अधिक घाव बने थे। उसके घावों मैं मवाद पड़ गया था और उनमें असंख्य कांटे लगे नजर आ रहे थे। बबुल के पेड़ और झाड़-झंखार की बड़ी-बड़ी शूलें उसके शरीर में गड़ी हूइ थी। मुझे नही मालूम की वह कैस उड़ रहा था मगर वह बिन पंखों के ही हवा में था।  

   'कौन हो तुम, मेरे सर पर क्या कर रहे हो? क्या तेरी भी गरदन काटने के लिए काल देवी तलवार लिए तेरे पीछे पड़ी है?, अपनी गरदन उपर कर मैने उस व्यक्ति से पूछा।

  'हां भाई।, वह जैसे रो पड़ा- 'मैं कई सालों से मौत से बचकर भाग रहा हू्ं, ये देखो झांड़-झंखार के अंदर से भागते-भागते मेरे तन पर कांटे उग आये हैं। मैं इतनी तेजी से भागा की अब हवा में उडऩे लगा। कुछ दिन बाद शायद तुम भी उडऩे लगोगे। काल देवी आती ही होगी। आओ भाग चलें राही, अब मैं तेरे सर के उपर ही रहूंगा। एक से भले दो होते हैं।, 

  मुझे घंटियां चीखें सुनाई दी तो मैं डर कर फिर भागने लगा। मेरे साथ साथ उपर कांटों वाला आदमी भी उडऩे लगा। विरान मैदानों में भागते हुए मुझे एक चर्च दिखाई दिया।

 'इस विराने में यह चर्च?, मैं हैरान रह गया। जब मैं उसके पास आया तो देखा की चर्च के आगे एक लोहे का नुकीला क्रॉस हवा में लटक रहा था। ठीक उसके नीचे बैठा एक व्यक्ति मस्ती में गीत गा रहा था-


‘ले जा थोड़ा प्यार ओ राही,

जिंदगी न मिलती उधार ओ राही,

ओ राही ओ....ओ राही ओ..

निद्रा में है जाग रहा है,

किस मकसद से तू भाग रहा है,

हो के घोड़े पे सवार हो राही,

‘ले जा थोड़ा प्यार ओ राही,

जिंदगी ना मिलती उधार ओ राही,

ओ राही ओ....ओ राही ओ..

जीवन की अभिलासी दुनिया,

सच में ये आभासी दुनिया,

फिर क्यूं है तकरार ओ राही,

‘ले जा थोड़ा प्यार ओ राही,

जिंदगी न मिलती उधार ओ राही,

ओ राही ओ....ओ राही ओ..

काहें तू फिरता है छुपता,

काल कली का वक्त न रूकता,

हर पल रह तैयार ओ राही,

‘ले जा थोड़ा प्यार ओ राही,

जिंदगी न मिलती उधार ओ राही,

ओ राही ओ....ओ राही ओ.. 


 (नोट-उपरोक्त गीत वाकई उस बुढ़े ने गाया था जो मुझे चर्च के आगे बैठा दिखाई दिया था, उसका आशय कुछ ऐसा ही था जिसके हिसाब से मैने छंद बना दिये हैं।)


   चर्च के आगे बैठे व्यक्ति की जैसे नजर हम दोनों की तरफ गई वह गीत बीच में ही छोड जोर से चिल्लाया- 'रूक जाओ, भागने वालो, रूक जाओ मृत्यु तुम्हारे साथ ही है। उससे तुम बच नही सकते।, वह मुझे देख कर पागलों की तरह इतनी जोर से हंसा कि मैं रूक कर उसका मुहं देखने लगा। क्रॉस ठीक उसकी गरदन के उपर लहरा रहा था। वह किसी भी क्षण उसकी गरदन में पैवस्त हो सकता था मगर वह उससे दूर हटने की बजाए उसके ठीक नीचे बैठा था, वह भी इतनी मस्ती, इतने आन्नद में।

  'ओये पागल......हट जा यहां से। तेरे सर पर नुकीला क्रॉस है। वह किसी भी क्षण तेरी गरदन में घुस सकता है, मारा जायेगा।, मैं जोर से चींख कर बोलते हुए उसे सावधान करने लगा।

  'हा..हा..हा, कहां जाऊं इससे बच कर। मैने भागकर देख लिया है, मगर जहां भी जाता हूं यह मेरे सर पर ही बना रहता है। मुझे इससे ही मरना है। यह मेरे लिये मुकर्र की गई तय मौत है। जब आनी होगी आ जाएगी तो भागने से फायदा क्या होने वाला। वो देखो तुम्हारे पीछे जो आदमी आ रहा है वह एक मस्जिद से भागा हुआ है। वहां उसके शरीर में एक भाला गडऩा था। पर ये भाग कर जायेगा कहां। आखिर अब उसकी मौत का समय आ गया है। उसे जितना भागना था भाग लिया और तेरे उपर उड़ रहे कांटो वाले आदमी की भी मुक्ति का समय आ गया है।,

  मैने पीछे मुड़कर देखा तो वहां एक व्यक्ति पूराने सैनिकों जैसी पोषाक पहने भागा आ रहा था। उसने सिर से पैर तक फौलाद के बने कवच धारण किये हुए थे। ऐसा लगता था जैसे किसी मुगलिया राजा का जंगी सिपाही युद्ध पर निकला है।

 'हा.हा..हा, तु तो गया।, क्रॉस के नीचे बैठा व्यक्ति जोर जोर से ठहाके लगाते हुए बोला तो फौलाद धारी रूक गया। 

  'हंस ले जितना तुझे हंसना है। अब मुझे कोई नही मार सकता। मैने फौलादी कवच धारण कर लिया है। अब कभी भाला मेरे पेट में नही...आ...आ..।, वह कुछ कहना चाहता था मगर तभी न जाने कहां से एक भाला आया और उसके फौलादी कवच को फाड़ता हुआ उसके शरीर के आर पार हो गया। उसका वाक्य एक चींख में बदल गया और वह धड़ाम से भूमि पर गिरते ही मर गया। 

  'हे भगवान! कांटों वाले भाई की रक्षा करना।, मैने मन ही मन प्रार्थना करते हुए उपर देखा मगर मेरी दुवाओं का कोई फायदा नही हुआ। एक बार जोर से घण्टियों चींखों की बाड़ सी आई और मेरे देखते ही देखते एक तलवार ने आकर उसका सिर काट दिया। आकाश से उसका सिर और धड़ मेरे कदमों में आ गिरे। 

  'अब मेरी बारी है।, मैं उन दोनो की लाशे देख कर एक कदम भी नही भागा। अब मैं पूरी तरह से समझ चुका था की डरने भागने से कोई लाभ नही होने वाला। मौत से कोई नही बच सकता। चंद क्षणो में ही मेरे दिमाग के दरवाजे जैसे खुल गए। विचार शुन्य अवस्था में मैने चारों तरफ देखा। कहीं कोई विराना नही था। खुले मैदान में मेरे आस-पास सुंदर फूल खिले हुए थे। वहां आस-पास खेत खलिआन, मानव बस्तियां थी। चारों तरफ पेड़ों पर सुंदर पक्षी चहचहा रहे थे। दूर पहाड़ों पर सफेद बादल उड़ते हुए बहुत मनमोहक लग रहे थे। मंद मंद समीर बह रही थी जो मुझे मदहोश किये दे रही थी। वहां की आबोहवा, पेड़-पौधे पशु-पक्षी सब के सब जैसे मेरी तरफ देख कर मुस्करा रहे हों। मुझ पर जैसे नशा सा छा गया। अनयासा ही मै एक जोरदार ठहाका लगा कर हंसा और सीना तान कर वहीं खड़ा हो अपनी मौत का इंतजार करने लगा।

  एक पल बीता, दो पल बीते, फिर तीन, चार....जब काफी समय बीत गया तो मुझे बड़ी हैरानी हुई। 'भाई मेरी बारी कितनी देर में आएगी।, मैं जैसे अपनी मौत से साक्षात्कार करने को उतावाला हो रहा था।

  'मुझे क्या पता। मैं क्या अंर्तयामी हूं प्यारे। वो तो मैने तलवार भाले को इनके पास आते देख लिया था तो तुझे बता दिया। मंदिर में वापिस जाकर पता कर की तेरी मृत्यू कब होगी, मैने भी तो इस चर्च के अंदर जा कर अपनी मृत्यू के बारे में जान लिया है, तभी तो मैं यहां मजे से मस्ती मार रहा हूं।, क्रॉस वाला व्यक्ति हंसते हुए बोला।

  'ओह, तो ये बात है, अब मैं मंदिर मे ही जाकर कतार में लगता द्द2ड्ड। अपने आप मृत्यु काल का ज्ञान हो जाएगा भाई। आप ने मुझे सबसे कीमती ज्ञान दिया है, आपका बहुत बहुत धन्यावाद।,

  'ऐसे फटे चीथड़ों को पहन कर जाएगा क्या मृत्यू से मिलने? यहां पास ही एक शुद्ध जल का तालाब है। काल देवी के मंदिर में जा रहा है, जरा नहा धोकर कपड़े पहन ले, कुछ खा पी ले।, उसने अपने पास रखी पोटली से कपड़े भोजन निकाल कर मुझे दे दिये। मैने उसका दोबारा धन्यावाद किया और तालाब में नहा कर उसके दिये सुंदर वस्त्र पहन लिये। 

  वस्त्र पहन कर मैने भरपेट भोजन किया और वापिस मंदिर की तरफ चल दिया। काले पहाड़ पर आते आते रात हो गई। वहां उपर जाने के लिए एक साफ सुथरी पगडण्डी बनी हुई थी। ये हैरानी की बात थी कि रास्ते भर मुझे एक बार भी दहशत में रखने वाली घंटियां और चींखे नही सुनाई दी। अभी मैने पहाड़ी क्षेत्र में प्रवेश किया ही था, मंदिर अपनी पूरी भव्यता के साथ दिखाई देने लगा। 

  'क्या मैं यहीं मंदिर के आसपास ही महीनों भटकता रहा? हां शायद ऐसा ही हुआ था।, मैं कई दिनों तक भागता ही रहा था, पर अब मैं पूरी मस्ती में मंदिर की तरफ बड़ रहा था। 

  मंदिर स्थल में प्रवेश करते ही मैने मृत्यू के लिए अपने आप को पूरी तरह से तैयार कर लिया। मृत्यू का आलिंगन करने से पहले मुझे मन को बहलाने के लिये किसी भी प्रकार के जय-जय कारों, गीतों, नारों, भगवान की वंदना की आवश्यकता नही थी। मुझे लगा जैसे मैं अलग ही तरह का इन्सान हूं। मेरे विचार हर किसी से मेल नही खाते। मैं तो बस ऐसा ही हूं। पहले की तरह ही वहां मंदिर में तंबु लगे थे। वहां उनके पास से गुजरते ही मैं पूरी तरह से विचार शुन्य अवस्था में आ गया। अब मेरे दिमाग के अथाह खानों में मन, बुद्धि, आचार-विचार कुछ नही था। 

  मैं मंदिर के उसी कक्ष में आ गया जहां गुफा में चट्टान पर उभरे पत्थर को सजा कर लोग पूजा करते थे, पर वहां पूरा कक्ष सुनसान पड़ा था। 'लगता है आज पूजारियों ने मंदिर में पूजा अर्चना बंद की हुई है। शायद छुटटी हो।, बड़बड़ाता हूआ मैं वहां से चल कर उसी गैलरी में आ गया जहां मुझे काल देवी के कर कमलों द्वारा इस शरीर से मुक्ति मिलनी थी। 

  ये हैरानी वाली बात थी की आज गैलरी में काला बुजंग यमदूत भी कहीं दिखाई नही दे रहा था और न ही वहां लोगों की कतारे लगी थी। गैलरी एकदम सुनसान पड़ी थी। मैं उसी बाहरी द्वार की तरफ चल दिया जहां अंधकार फैला था। अभी मैने उधर कदम बड़ाए ही थे की अंधकार से घंटियों की बहुत धीमी लयदार आवाज सुनाई दी। यह आवाज इतनी मधुर थी की मेरा रोम-रोम पुल्कित हो गया। तभी मुझे अंधकार में ऐसा दिखाई दिया जैसे कोई शक्तिपुंज प्रदिप्त हो गया हो। वह मेरे पास आया और उससे निकल कर एक बहुत ही सुंदर स्त्री मेरे सामने खड़ी हो गई।  

  मैने अपने पूरे जीवन में इतनी सुंदर स्त्री नहीं देखी थी। उसकी सफेद संगमरमरी काया पर काले और लाल रंग के वस्त्र थे जो असंख्य हीरे मोतियों से झिलमिला रहे थे। अधरों पर मोहक मुस्कान थी और आंखे किसी चंचल बालिका की तरह दिखाई दे रही थी। वह हाथ में एक गुलाब का सुंदर फूल लिये थी जिसके नीचे लगे पत्ते, कांटे भी दिखाई दे रहे थे।

  यह अगाध सुंदरी इस पृथ्वी की नहीं हो सकती, शायद स्वर्ग से उतरी कोई अप्सरा है। 'आप कौन हो सुंदरी?, मेरे दिल से आवाज आई। वहां मैं मंत्रमुग्द हो अपलक उसे देखे जा रहा था। उसके वजूद में इतना सम्मोहन था की पता नहीं क्यों मेरा दिल उसका आलिंगन करने को बेकरार हो रहा था। जब मुझ से रहा नही गया तो मैं अपनी बांहे फैला कर उसे आगोश में लेने के लिए उसके नजदीक आ गया। थोड़ा आगे बड़कर जैसे ही मैने उसका स्पर्श करना चाहा वह जोर से खिल खिला कर हंस पड़ी। मुझे ऐसा लगा जैसे असंख्य मधुर घुंघरू मेरे कानों में रस घोलते हुए बज उठे हों।               

  'मौत का आलिंगन...हा हा हा, इतनी बेताबी.....मैं काल देवी हूं मानव।, वह हंसती हुई बोली- 'तुम मेरे पास चलकर आए पहले मानव हो जो मौत को गले से लगाने को इतने बेताब हो रहे हो वरना तो मुझ से डर कर सभी लोग जीवन भर भागते रहते हैं। मैं तेरी ही हूं, तुझ में ही रहती हूं, बस तुम मुझे देखना नही चाहते, छूना नही चाहते, मुझसे भागते रहते हो। बचने के उपाय खोजते रहते हो मगर बच नही सकते।

  'मौत, इतनी हसीन......इतनी सुंदर, इतनी आन्नद दायक। आप काल देवी नही हो सकती। वह तो इतनी कूरूप डरवानी है कि उसे देख कर दहशत से ही लोग मर जाते हैं।,

  'मैं इतनी ही सुंदर हूं मानव। जैसे पैदा होने पर तुम्हे कोई कष्ट नही होता मगर तुम रोने लगते हो, ऐसे ही स्वभाविक मृत्यू काल के समय भी तुम्हे कोई दर्द नही होता पर तुम हाय-हाय करने लगते हो। डर से तुम्हारे चेहरे जर्द पड़ जाते हैं। मौत का भय ही दर्द पैदा कर देता है। डरावनी तो तुम्हे मैं तुम्हारे डर की वजह से दिखाई देती हूं। तुम जितना मुझसे डरते हो, जितना दूर भागते हो, उतने ही कष्ट उठाते हो। हर प्रकार के कर्म करते समय बराबर तुम्हे ये अहसास रहना चाहिये की मैं भी तुम्हारे साथ साथ चल रही हूं, अन्तत: तुम्हे मेरी आगोश में समाना ही होता हो है, क्या तुम नही डरोगे मानव?, काल देवी ने यह कहकर एक जोरदार ठहाका लगाया तो मेरी रीढ़ की हड्डी में कुछ सिहरन सी दोड़ गई। 

   मैं चाहता था की वो मुझे जल्दी खत्म कर दे। मगर मैं ऐसा क्यों सोच रहा था। मरने के लिये मैं मंदिर की तरफ भागा-भागा आया था। इसकी क्या जरूरत थी, जब की मृत्यू मझे कहीं पर भी मार सकती थी। मैने अपनी मौत के लिये मंदिर ही क्यों चूना, और मैं अपनी मृत्यू के बारे में ही क्यों जानना चाहता था। इसका मतलब तो ये है कि मेरे अंदर कहीं न कहीं मौत का डर बैठा हुआ है जो मुझे दिखाई नही दे रहा। मैं नाना प्रकार के उपाय कर उस डर पर काबू पाने की कोशिस कर रहा हूं।’

   जैसे-जैसे मैं सोचता जा रहा था काल देवी का रंग रूप भी बदलता जा रहा था। ‘हा हा हा... तो तुम तैयार हो मानव मेरा चुंबन लेने के लिये, मेरे आगोश में आने के लिये।’ उसकी आंखों में बला की चमक थी। अब गुलाब की जगह उसके हाथ में तलवार आ चुकी थी, एक दांतेदार तलवार, जिस पर ताजा खून लगा था जो तलवार के फलक से टपक कर नीचे गिर रहा था। वह हाथ में तलवार थामें बाहें फैला कर मेरी तरफ बढीं तो मेरे सामने उसके द्वारा मंदिर में बेरहमी से गरदन रेत कर एक तरफ फैंके गए लोगों के सिर, कटे धड़ों और इधर-उधर बिखरी पड़ी गर्दनों के दृष्य घूमने लगे।

  ‘अभी मेरी गर्दन कटी लाश यहां पड़ी होगी।’ मैं दयनीय नजरों से काल देवी की तरफ देखने लगा और अपनी यथास्थिति में आने के लिये जोरदार प्रयास करने लगा।

  ‘बस एक पल में हो गया तेरा मरने का जोश खत्म। मैदानों से तो बड़े उत्साह में आ रहा था इसलिये में तुझे एक प्यारी सी मृत्यु देने के मूड में थी मगर अब नही। अब तक तो ऐसा कोई माई का लाल आया ही नही जिस पर मैं फक्र कर सकूं। तुम भी उन्ही आम मानवों में से एक हो। अब ध्यान से देख मुझे और मेरे आगोश में समा जा।, इतना बोलते ही वह अपने उसी असली रूप में आ गई जिसमें मैने उसे यहीं गैलरी में लोगों की गरदने काट कर लाशों के अंबार लगाते देखा था।

  उसके चुडैंल रूप में आते ही एक साथ हजारों भयानक चींखों से वह परछती हिल गई। उसने आगे बड़ कर मुझे अपने कंकाल जैसे शरीर की मजबूत बाजुओं में झकड़ लिया। मैं छुटना चाहता था पर छुट नही पा रहा था। उसके हाथ ऐसे थे जैसे मेरे शरीर में दो कांटेदार लकड़ियां चुभ रही हों। मै उसके बाहुपाश से छुटने के लिये जोर लगाने लगा। जब उसके हाथों से नही छुट पाया तो झटके मार-मार कर छुड़वाने लगा। आखिरकार मैने अपनी पूरी शक्ति एकत्र कर एक जोरदार झटका मारा तो मेरा सिर फटाक से कमरे के दरवाजे में जा टकराया। सिर लगते ही मेरे दिमाग में बड़े जोर से एक विषफोट सा हुआ।

  गनीमत थी की मेरी खाट दरवाजे के आगे बिछी थी और दिवार दूसरी तरफ थी। अगर दिवार में सिर लगता तो आज वाकई काल देवी के आगोश में समा जाता।

   ‘क्या हुआ है आपको? लगता है सपने में आज फिर डर गए।’ मेरी पत्नी अचानक टी.वी का नाटक छोड़ मेरे पास आई और मुझे सहारा देकर उठाने लगी। 

   ‘कुछ नही बस ऐसे ही सपने में पता नहीं क्या बे-सिर पैर की चीजें दिख रही थी।’ मैं उसका हाथ एक तरफ कर अपने आप उठता हुआ बोला। मैने सिर के पीछे उस हिस्से पर हाथ फिराकर देखा जहां दर्द हो रहा था। जोर से दरवाजे पर लगने से उसमें पिछली तरफ एक गुम्मड़ सा बन गया था मगर मैं इस बात से प्रसन्न था कि मैं किसी काल देवी के मंदिर में नही अपने प्यारे बच्चों, अपने परिवार के साथ हूं।

  मेरे दोनों बच्चे खेलते-खेलते सो चुके थे। राहुल बैड पर था पर नेहा अपनी आदत के अनुसार आज फिर मेरी खाट पर मेरे साथ आ कर सो गई थी। वह अक्सर मेरे पास ही सो जाया करती थी। उसके हाथ में मेले से लाया हुआ लकड़ी की तिल्लियों वाला लम्बा सांप था जो खाट पर उसी जगह पड़ा था जहां से मैं उछल कर किवाड़ से जा टकराया था।

   ‘जरूर यह सांप मेरी कमर में चुभ रहा होगा और मुझे महसूस हुआ की किसी काल देवी ने मुझे पकड़ा हुआ है।’ सोचते हुए मैने उस सांप को उठाकर टी.वी. के पीछे बनी स्लेब पर रख दिया।  

  ‘कितनी देर हो गई मुझे सोते हुए।’ मैने पत्नी से पूछा मगर वह मेरी बात पर ध्यान दिए बगैर मेरे सिर को सहलाते हुए आदत अनुसार अपनी ही हांके जा रही थी- ‘मैं तो तुम्हे पिछले एक महीने से कह रही हूं कि वीरवार को कलंदर साहेब पर प्रसाद चढ़ा, माथा टेक कर आते हैं, मगर मेरी तुम सुनते ही कब हो। कोई बड़ा हादसा हो गया तो मेरे बच्चे अनाथ हो जायेंगे।’

  ‘ठीक है इस वीरवार को जरूर चलता हूं।’ मैं पत्नी से बोला।

  दिवार पर लगी दिवार घड़ी में टाइम देखा तो वहां ग्यारह बज कर बीस मिनट हो रहे थे, और मैं दस बजने के बाद सोया था। यानी केवल एक घण्टे से भी कम समय में मैने कई महीने का समय बीतने जैसा सपना देख लिया था। हैरानी तो इस बात कि है जब से मेरे साथ यमुना नगर में बिजली गिरने और यहां पानीपत में करंट लगने वाली घटना हुई है मेरे सपने लम्बे धारावाहिकों की तरह चलते हैं और जागने पर मुझे उनमें से बहुत सी घटनाएं याद रहती हैं। 

   पत्नी ने मेरे पास से उठकर हीटर जलाया और उस पर तवा रख अजवाईन जला दी। फिर वह तवा उठा कर पूरे कमरे में अजवाईन की धूनी सी देने लगी। इससे पूरे कमरे में अजवाईन की सोंधी गंध का धूआं फैल गया। जब मैं छोटा था मेरी बेबे भी ऐसे ही चुल्हे में से चिमटे की सहायता से आग की अंगारी निकाल उस पर अजवाईन डाल पूरे घर को भूत-प्रेत से बाधा मुक्त करती थी।

  मेरी पत्नी का ये बहुत ही नायब तरीका था घर से तथाकथित प्रेत-आत्माएं भगाने का। उसकी नजर में मेरे उपर प्रेत-आत्माओं का साया था। जब वह मुझ से नाराज होती थी तो मुझे कष्ट देती थी, खाट से उठा कर फैंक देती थी, मगर यह केवल उसका वहम था। भूत-प्रेत केवल मन का वहम होते हैं। भूत का तो अर्थ ही है भूत, यानी बीता हुआ, मरा हुआ। उसके तवे पर अजवाईन जलाने से भूत-प्रेत तो पता नही भागते हैं या नही, पर इसके धुएं की सोंधी तीखी महक मुझे खूब भाती है।

   कुछ वहम तो मेरी पत्नी के अंदर मेरे पिता जी ने भी डाल रखा था। उसके अनुसार पिछले चालिस साल से उसके साथ एक जिन्न रहता है जो उसके लिये काम भी करता है, और उसे कष्ट भी दे देता है। पिता जी उस जिन्न के अनेक किस्से हमें बचपन से ही सुनाते आए हैं। जैसा की गांव में रात को वह जिन्न उसके साथ तालाब के अंदर डाल से खींच कर खेतों में पानी दिया करता था। हल जोतता था, उसके टमाटर, खरबूजों, अमरूदों की रखवाली किया करता था और उसके लिये सत पकवानी खाना भी ले आता था। पर अगर वह नाराज होता तो उसे ईंट, पत्थर फैंक कर मारने लगता था। खाना खाने के वक्त उसकी थाली में मक्खियां, केंचुए, भीर्ड़, ततैये डाल देता था और सोते हुए उस पर टनों वजन लाद देता था।

   मेरी पत्नी का मानना था कि उस जिन्न का साया अब मेरे उपर आ चुका है। पर ये मैं जानता हूं कि मेरी समस्या कुछ और ही है। मैं अपनी खाट पर सिर तकिये पर टिका दोबारा लेट गया। सिर के पिछले हिस्से में बहुत पीड़ा हो रही थी। घर में दर्द निवारक दवा की गोली पड़ी थी। मैने पत्नी से कह कर एक गिलास पानी लिया और गोली निगल ली। फिर मैने उठकर सोती हुई नेहा को गोदी में उठा पत्नी के पास बैड पर लिटा दिया।

  नेहा को उसकी मम्मी के पास पलंग पर सुला मैं अपनी खाट पर लेट कर आज की घटना के बारे सोचने लगा। आखिर ये है क्या चक्कर कुछ समझ में नही आ रहा था। सपने तो हर किसी को आते होंगे। आते होंगे क्या आते ही हैं। सभी को अच्छे बुरे सब प्रकार के सपने आते हैं। मगर ये सपने से शारीरिक क्षति होना खतरनाक बात है। इससे पहले भी मैं दो-तीन बार खाट से गिर चुका था मगर इतनी बड़ी चोट आज पहली बार ही लगी थी।

  मैने जितना इसके बारे में सोचा उलझता ही चला गया पर ये तो मेरे साथ आभासी दुनिया में दुर्घटनाओं की बस शुरूआत भर थी। मैंने कई वर्षों बाद आज ( 2015 ) जो ये घटना लिखी है इसे अच्छी प्रकार से नही लिख पाया हूं।

  मैने जो काल देवी वाला सपना देखा था, जिसमें मेरा सिर फूट गया था उसमें बहुत कुछ लिखने से छूट गया। बहुत कुछ याद नही रहा और कुछ दृष्य तो ऐसे हैं जिनके बारे में ठीक से लिखा ही नही जा सकता अर्थात उन चीजों को केवल महसूस किया जा सकता है। ये ऐसे है जैसे आप किसी फूल की खुश्बू के बारे नहीं लिख सकते की वो कैसी है, बस अच्छी, मनभावन है ये ही लिख सकते हैं। उसका अहसास तो फूल को नाक से लगा कर सूंघने से ही होता है।

  जब में जंगल में भागता था, काल देवी का आगमन होता था, वहां पर कुछ अलग ही तरह का वातावरण बन जाता था। जबरदस्त शोर, चींखों में परिंदो, जानवरों की आवाजें सम्मलित होकर मेरे कानों में पड़ती थी ओर उसमें मेरे दिल की धड़कन की धक-धक, दिमाग की नसों में बहते हुए रक्त की झीं-झीं की आवाजें भी सुनाई देने लगती थी। कई चीजों की तो बस धुंधली सी यादें हैं। वो जो मेरे उपर आदमी उड़ता था वह मुझ से बात करने से पहले इधर-उधर अजीब तरह से हिलता था। मरे हुए लोगों के अंबार देख कर मैं जड़ सा हो जाता था और वहां से बार-बार भागना चाहता था। दरअसल मुझे उस समय नही मालूम था कि मैं अपने जीवन में कभी लेखन के क्षेत्र में किताबें, उपन्यास लिखने लगुंगा वरना तो उसी समय अपने साथ घटी हर घटना कॉपी पर लिख कर रख लेता।

  दोस्तो ये जरूरी नही की मुझे कोई भी सपना देखने के बाद हर घटना में चोट लगती है। कई बार तो ऐसा होता है कि मैं बस डर कर जाग जाता हूं, या फिर एकाएक उठकर बैठ जाता हूं। हम चलना चाहते हैं तभी चलते हैं। हमारी उठने-बैठने, खाने-पीने की क्रियाएं तभी सम्पन होती हैं जब हम उन्हे करना चाहते हैं। ये मुझे नही मालूम की शरीर को बिना बैठने का आदेश दिये मैं कैसे बैठ जाता हूं। मैं तो बस सपने के बाद अपने आप को खाट पर बैठा पाता हूं। ये सबसे पहले तब हुआ था जब गांव भगवान गढ़ के टयुबवैल की कोठरी में मुझ पर वज्रपात सा हो गया था जिसका वर्णन में पिछले अध्याय में कर चुका हूं।

  ये भी जरूरी नही की मुझे हर बार बहुत लम्बे सपने आते हों। कई बार तो मैं बहुत छोटी घटना से ही दब सा जाता हूं। यानी ऐसा लगता है जैसे किसी ने मेरे शरीर पर बहुत बड़ा वजन लाद दिया है। मुझे इस प्रकार से दबा दिया जाता है कि मैं सांस भी नही ले पाता। कई बार तो मुझे नीचे दबाने वाली कोई चीज दिखाई भी नही देती, बस ऐसा लगता है कोई मेरे उपर लेट गया है जो बहुत ही वजनी है। और कई बार सपने में मुझे अपने शरीर पर सांप की तरह गिलगिला सा कुछ चलता महसूस होता है। एक बार तो मुझे ऐसा महसूस हुआ जैसे किसी ने मेरी कमर के नीचे हाथ रख कर उठाना चाहा हो। हैरानी की बात ये है कि मैं उस समय सो नही रहा था बस आंखें बंद कर के लेटा हुआ कुछ सोच रहा था।

  मैने जब अपने डरावने सपनों की ध्यान से काल गणना की तो मालूम हुआ कि अधिकतर मेरे साथ ये सब या तो सोते समय होता है या फिर सुबह जागते समय डरावने सपने दिखाई देते हैं। यानी ये भूत-प्रेतों के सपने मुझे अर्धनिद्रा काल में ही दिखाई देते हैं। मेरे सपने देखने की काल अवधी भी कमाल की है। एक घण्टे में ही सपनों में सदियां बीत जाती हैं, ओर जब मैं जागता हूं पता चलता है कि मुझे सोये अभी एक घण्टा भी पूरा नही हुआ।


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