डॉ. रंजना वर्मा

Drama Horror Thriller

4.6  

डॉ. रंजना वर्मा

Drama Horror Thriller

खौफ़

खौफ़

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'टप टप टप टप'

अचानक ही टप टप की आवाज सुन कर प्रभास की नींद टूट गई। उसने उठ कर चारों ओर देखा। तभी फिर वही स्वर सुनाई दिया -

'टप टप टप '

 "यह पानी कहां टपक रहा है ?"

प्रभास ने सोचा। यह टप टप की आवाज ऐसी ही थी जैसे कहीं ऊंचाई से पानी की बूंदें टपक रही हों। वैसा ही स्वर -

'टप टप टप' 

कहीं बाथरूम के शावर से पानी तो नहीं टपक रहा है। प्रभास ने सोचा - जरूर वहीं टपक रहा होगा। पहले भी एक बार उसकी चूड़ियां ढीली हो गई थीं और फिर सारी रात पानी टपकता रहा था। कल सुबह ही उसे ठीक कराना होगा। 

उसने उठ कर पांवों में स्लीपर डाली और बाथरूम की ओर चल पड़ा। बाथरूम का दरवाजा खोलते ही वहां सन्नाटा सा छा गया। लाइट जला कर देखा उसने। बाथरूम पूरी तरह सूखा हुआ था और उसका नल और शावर दोनों बंद थे।

 फिर कहां टपक रहा है यह पानी ? प्रभात बड़बड़ाता हुआ बाहर निकला। बाथरूम का दरवाजा अच्छी तरह बंद कर दिया और रसोई की ओर बढ़ गया। शायद वहां सिंक का नल टपक रहा होगा। रसोई में भी नल बंद था और सिंक पूरी तरह सूखा था। कहीं पानी की एक बूंद भी नहीं थी लेकिन पानी टपकने की आवाज तो अब भी आ रही थी। 

प्रभास ने पूरा घर अच्छी तरह देख लिया। कहीं पर भी पानी नहीं टपक रहा था। यहाँ तक कि वह गेस्ट रूम का बाथरूम भी चेक कर आया। लौट कर वह बिस्तर पर बैठा। आँख बंद की तो फिर वही 'टप टप' की आवाज।

कहां देखे अब ? उसने घड़ी की ओर देखा। रात का ठीक बारह बजे थे। दस बजे ही तो वह बाहर से अपने दोस्तों के साथ समय बिता कर लौटा था। लौटते समय उसकी कार के सामने एक काली बिल्ली अचानक ही आ गई थी उसको बचाने के प्रयास में एक्सीडेंट होते-होते बचा था। अमूमन प्रभास नौ से साढ़े नौ के बीच घर लौट आता था। उसके घर न लौटने पर माँ उसकी प्रतीक्षा में भूखी बैठी रहती थी।

गत वर्ष माँ नहीं रही। उनके स्वर्गवास के बाद से ही अकेला है प्रभास किंतु माँ की कही हुई बातें उसके लिए आदर्श हैं। माँ के लिए जल्दी घर लौटने की आदत अभी भी बरकरार थी। 

माँ कहती थी -

"ऐसे ही समय पर लौटते रहा करो हमेशा वरना अभी मैं और मेरे बाद तेरी बीवी तेरे इंतजार में भूखी बैठी रहा करेगी।"

माँ तो उसके लिए बीबी लाने का अरमान दिल में लिए ही दुनिया से विदा हो गई। अकेला हो गया प्रभास लेकिन उसने माँ की दी हुई शिक्षा और आदत गांठ बांध ली।

आज ही व्यतिक्रम हुआ था इस आदत में। वह भी उस काली मनहूस बिल्ली के कारण और आज ही ....

'टप टप टप' यह मनहूस आवाज तो जैसे कान फाड़े डालती है। जैसे दिमाग पर सीधे चोट कर रही है यह टप टप की आवाज। झुँझलाता हुआ उठा वह। बिस्तर पर लेट कर कंबल ओढ़ कर सोने की कोशिश करने लगा लेकिन वह आवाज उसके कानों में निरंतर गूंजती रही। 

बहुत देर तक करवटें बदलने के बाद उसने उठकर कॉटन बॉल ली और कानों में लगा ली तथा सोने का प्रयत्न करने लगा। कुछ देर तक शांति रही। उसकी आंखों में नींद उतरने लगी। तब अचानक फिर से वही -

'टप टप' 

झुंझला उठा वह। जब किसी प्रकार चैन नहीं मिला तो घर का दरवाजा खोल कर वह बाहर बरामदे में आ गया। वहीं एक और खंभे से टिक कर बैठ गया। कंबल को अपने चारों ओर अच्छी तरह लपेट कर वह ठंड से बचने का प्रयत्न करने लगा।

दिसंबर का महीना था। खुले में बैठने के कारण ठंडी हवा के झोंके बार-बार उस पर आक्रमण कर रहे थे। उनसे बचने के लिए वह स्वयं में ही सिमटता जा रहा था। घुटनों को पेट से चिपका कर उसने सिर झुका लिया और सोने का प्रयत्न करने लगा।

"म्याऊँ"

अभी उसे नींद का झोंका आया ही था कि 'म्याऊं' की आवाज ने उसे चौंका दिया।

यहां बिल्ली कहाँ ? कंबल से मुंह निकाल कर देखा तो सामने ही चार पांच फुट की दूरी पर बैठी काली बिल्ली दिखाई दी जो अपनी सुर्ख आंखों से उसे घूर रही थी। तभी उसके दृष्टि उसके गले में बंधे हुए लाल रिबन पर पड़ी।

अरे, यह तो वही बिल्ली है जिसे बचाने के चक्कर में उसकी कार का एक्सीडेंट होते होते बचा था। यह यहां कैसे ? कैसा विचित्र संयोग है ? उसमें फिर उसकी आंखों में देखा - देखते ही देखते उसकी आंखों में छाई लाली सफेदी में बदलने लगी। अब उनमें क्रोध नहीं बल्कि सौम्यता का आभास हो रहा था। प्रभास का धड़कता हृदय थोड़ा शांत होने लगा कि तभी -

'टप टप टप टप'

वही पानी की टपकती बूंदों जैसा स्वर।

 उसने घबरा कर चारों ओर देखा। दूर-दूर तक नीरवता और अंधकार के अतिरिक्त और कुछ न था। उसने फिर सामने देखा और ... अरे , वह बिल्ली कहां चली गई ? क्या उसका घटनाओं से कोई संबंध है ? प्रभास ने कलाई में बंधी घड़ी पर दृष्टि डाली। तीन बज रहे थे।

 रात देर से आने और उस दुर्घटना से दो-चार होने के बाद वह कपड़े उतार कर बिस्तर में घुस गया था। घड़ी उसकी कलाई में ही बंधी रह गई थी और जुराबें भी। जुराबें कहां है उसकी ? 

उसे अच्छी तरह याद आ रहा था कि रात वह घड़ी और जुराबें पहने हुए ही बिस्तर में घुस गया था और फिर न जाने कब नींद ने उसे अपने आगोश में ले लिया था। वह अजीब पानी टपकने का स्वर न हुआ होता तो शायद अभी भी वह गहरी नींद सो रहा होता। प्रभास उठ कर कमरे में चला आया। 

थोड़ी ही देर में सुबह हो जाएगी। चलो , थोड़ी देर सो लूं। भूख भी लग रही है। अरे हाँ , उसने कल रात खाना भी तो नहीं खाया था। लौटते समय होटल से खाना पैक करवा लिया था लेकिन फिर उस अफ़रा तफ़री में उसे कार में ही भूल गया था।

 अचानक उसे याद आया। इतनी देर से वह घर से बाहर बरामदे में बैठा रहा था। हवास उड़े उड़े हुए थे उसके फिर भी कार तो वह अपने दरवाजे के पास ही पार्क करता था। कहां गई उसकी कार ? बाहर तो कोई कार नहीं थी। कार जहां पार्क की जाती है वहीं तो बैठी थी वह काली बिल्ली। क्या हो रहा है यह सब ? कहीं दिमाग तो नहीं हिल गया है उसका ? उसके व्यवस्थित जीवन में एक साथ इतनी अनियमितताएं ? कैसे ?

अकेलापन खलने लगा। उसे विचारों के झंझावात में उड़ते जुड़ते एक घंटा बीत गया था। वह शिद्दत से किसी साथी की जरूरत महसूस कर रहा था। थका शरीर और दिमाग शिथिल पड़ता जा रहा था।

अब न उसे अपनी जुराबों की याद आ रही थी और न कार की। वह तो यह भी भूल गया था कि कल दोपहर के बाद से उसने केवल एक सेब ही खाया है और वह बिस्तर पर गिर कर गहरी नींद में डूब गया।

सुबह सात बजे नौकरानी ने दरवाजा खुला हुआ पाया। प्रभास बिस्तर पर पड़ा बेसुध सो रहा था। वह चकित हुई।

ऐसा तो कभी नहीं हुआ आज तक। चंपा प्रभास की माँ के समय से ही उसके घर में झाड़ू पोछा , बर्तन किया करती थी। खाना उसकी मां स्वयं ही बनाती थीं। प्रभास ने मां के बाद भी चंपा को काम से हटाया नहीं था।

रोज सुबह सात बजे आकर वह घर की साफ-सफाई , बर्तन साफ करना आदि करके प्रभास के लिए नाश्ता बना कर चली जाती थी। परंतु आज ..... आज तो सब कुछ अव्यवस्थित सा है। 

प्रभास अभी तक सो कर नहीं उठे। इस समय तक तो वह हाथ मुंह धोकर पेपर पढ़ा करता है। रसोईघर में जूठे बर्तनों का ढेर लगा था जैसे तीन या चार लोगों ने खाना बनाया खाया हो। चंपा जल्दी-जल्दी सफाई करने में जुट गई। बाथरूम में उसे प्रभास के एक पैर की जुराब पड़ी दिखाई दी। कीचड़ से लथपथ और दूसरी घर के बाहर बरामदे में। घर के सभी दरवाजे खिड़कियां खुले हुए थे।

 इतनी ठंड में सारे घर के खिड़की दरवाजे खोल देने से घर बहुत ठंडा हो रहा था।

चंपा ने सारी खिड़कियां बंद कीं और सफाई में जुट गई। काम खत्म करते-करते उस दिन साढ़े आठ बज गए। चाय और दो अंडों का आमलेट बना कर और ब्रेड में मक्खन लगा कर उसने ट्रे में रखा तथा प्रभास को जगाने चली गई।

कई बार पुकारने पर भी जब वह न उठा तो उसने उसका पैर पकड़ कर जोर से हिला दिया।

"उठिए भैया ! साढ़े आठ बज गए। नाश्ता तैयार है। आज आपको ऑफिस नहीं जाना है क्या ?"

प्रभास ने कुनमुना कर करवट बदल ली। 

"उठिये भैया !"

चंपा ने उसका पैर पकड़ कर फिर से हिला दिया। 

 प्रभास ने करवट लेकर आंखें खोल दीं और... कितनी भयानक थीं उसकी आँखें। बिल्कुल लाल , सुर्ख़।

"भैया ssss"

चीख बड़ी चंपा। प्रभास उठ कर बैठ गया। उसने आंखें मूंद कर फिर खोलीं तो सब कुछ सामान्य था।

"आपकी तबीयत तो ठीक है न भैया ?"

चंपा ने पूछा।

"हाँ , ठीक हूँ। अरे , साढ़े आठ बज गए ? बाप रे।"

प्रभास हड़बड़ाते हुए बोला और जल्दी से बाथरूम में घुस गया।

"भैया की आंखे इतनी लाल क्यों थी ?"

 चंपा ने सोचा लेकिन फिर उसके सामान्य स्थिति का ध्यान आने पर सिर को झटक दिया उसने। 

"शायद वह भ्रम था मेरा। हुँह ..." 

बाथरूम से नहा कर आया प्रभास तो जैसे वह वही पुराना प्रभास बन गया था जिसे चंपा रोज देखती थी।

"भैया , ऐसे खिड़कियां दरवाजे खोल कर मत सोया करो। ठंड लग जाएगी और कोई घुस आया तो घर में कुछ भी नहीं छोड़ेगा। आजकल के चोर तो पुराने कपड़े तक उठा ले जाते हैं।"

चंपा ने हंसते हुए कहा।

"लेकिन .... लेकिन मैं दरवाजे खिड़कियां खोल कर कभी नहीं सोता। तुम तो जानती हो चंपा ! बिना दरवाजों को बंद किए कोई कैसे सो सकता है ?"

"कल तो अच्छी दावत की थी तुमने भैया !"

"दावत ... नहीं तो। अरे , कल तो मुझे खाना भी नसीब नहीं हुआ था।" प्रभास जल्दी जल्दी नाश्ता समाप्त करता हुआ बोला -

"अब तुम जाओ। मुझे भी निकलना है ऑफिस के लिए।

"जी भैया !"

चंपा ने कहा और घर से बाहर निकल गई। वह समझ नहीं पा रही थी कि भैया ने उससे दावत की बात क्यों छिपाई ? झूठ क्यों कहा कि उसने कल से कुछ नहीं खाया था ? और ....और ....भैया की कार ...उफ़ , कैसी कीचड़ में लिथड़ी हुई है।"

चंपा आगे बढ़ी तो मोड़ पर ही रईस के गैराज में काम करने वाला पिंटू मिल गया। वह उसे उसे रोक कर बोली -

"भैया , जरा समय हो तो अभी जल्दी से जाकर प्रभास भैया की कार साफ़ कर दो। न जाने कैसे कीचड़ से लिथड़ी खड़ी हुई है। जैसे कोई कहीं दलदल में चला कर आया हो। अभी ही धो देना नहीं तो ऑफिस जाने के लिए परेशान होंगे।"

"अच्छा बहन , अभी ही देख लेता हूँ।" 

कह कर पिंटू तेजी से प्रभास के घर की ओर बढ़ गया चंपा ने भी अपनी राह ली।

पिंटू प्रभास के घर के पास पहुंचा तो दरवाजे के पास ही उसकी कार खड़ी थी। ऐसी जैसे अभी अभी वर्कशॉप से धुल कर आई हो। बिल्कुल साफ , चमचमाती हुई। पिंटू सोचने लगा 

"कार तो प्रभास भैया की बिल्कुल साफ धुली हुई है। फिर चंपा ने मुझसे झूठ क्यों कहा ?

०००००

 प्रभास जल्दी-जल्दी तैयार हुआ। जूते स्टैंड से उठाए। जुराबे पहनीं। जूते पहने और घर लॉक करके ऑफिस जाने के लिए निकल पड़ा। 

कार तो वहाँ थी ही नहीं। वह वाहन की तलाश में आगे बढ़ा तभी एक ऑटो रिक्शा उसकी बगल में आकर रुका। प्रभास जल्दी से उस में बैठ गया। ऑटो वाले ने मीटर गिराया और ऑटो आगे बढ़ा दिया।

प्रभास का ऑफिस वहाँ से आधे घंटे की दूरी पर था। वह आराम से पुश्त से टिक कर बैठ गया और आँखें बंद कर लीं। हवा के झोंके उसे बड़ी राहत पहुंचा रहे थे। नींद की झोंक में उसके हाथ से ऑफिस का बैग छूट कर पैरों पर गिर पड़ा। झुक कर उसने बैग उठाया तो निगाह मोजों पर पड़ी।

'अरे , ये तो वही मोजे थे जिन्हें वह रात में ढूंढता रहा था। वह भी बिल्कुल साफ सुथरे। यह कैसे हो गया ? उसके पास मोजों का एक ही जोड़ा है। वही कल उसके पैरों से गायब हो गया था और आज खुद-ब-खुद धुल कर साफ सुथरा उसके जूतों में मौजूद था। तैयार होने की जल्दी में उसने उस पर ध्यान ही नहीं दिया था और अब ... वह बड़ी उलझन भरी दृष्टि से देर तक जुराबों को देखता रहा। 

"क्या हुआ साहब ? कुछ खो गया क्या ?"

ऑटो वाले ने पूछा।

"नहीं , कुछ भी नहीं।"

प्रभास ने उत्तर दिया। कुछ देर बाद ऑटो रुक गया।

"आपका ऑफिस आ गया।"

ऑटो वाला बोला। प्रभास ने बैग उठाया और ऑटो से बाहर निकलने के लिए पाँव बढ़ाया। अचानक वह ठिठक गया। उसने ऑटो वाले को तो बताया ही नहीं था कि उसे कहां जाना है फिर वह उसे उसके ऑफिस तक कैसे ले आया ?

"सुनो , कौन हो तुम ?"

प्रभास ने पूछा।

ऑटो वाले ने चेहरा उसकी ओर घुमाया तो प्रभास की चीख निकल गई। उफ़ , इतना भयानक चेहरा ...। 

उसका चेहरा बेहद भयानक और डरावना था। माथे पर बिंदी लगाने के स्थान पर गोल छेद जिसमें आग धधक रही थी। आंखें खून आलूदा .... बिल्कुल सुर्ख़ और दोनों गाल ... उन्हें तो जैसे किसी नुकीली चीज से गोद डाला गया हो।

"ऑफिस आ गया साहब !"

उसके खुले मुख से जैसे गर्म भाप का भभका निकला। प्रभास के रोएं खड़े हो गए। दहशत से वह चीख उठा और फिर अचानक ही बेहोश होकर गिर पड़ा। प्रभास की चीखें दूर-दूर तक गूँज गईं।

जब उसकी आंखें खुली तो वह अपने ऑफिस की टेबल पर पड़ा था और उसके सहकर्मी उसे चारों ओर से घेरे खड़े हुए थे। एक ओर चपरासी पानी का जग लिये खड़ा था। पता नहीं कितनी देर तक वह बेहोश रहा था ... और वहां कैसे आया वह ?

"मैं ... मैं .."

"तुम ठीक हो न ?" ओ गॉड , हम तो डर ही गए थे।"

उसके सहकर्मी रमेश ने कहा। 

"क्या हुआ है मुझे ? यहां कैसे आया मैं ?"

प्रभास ने पूछा। 

"हम लाये तुम्हें उठा कर। तुम ऑफिस के सामने सड़क पर बेहोश पड़े थे।"

"सड़क पर ? और वह ऑटो ..... ऑटो वाला .."

"वहाँ कोई ऑटो नहीं था। तुम तो पैदल आए थे आज।"

"पैदल ?"

"हाँ। वह पानवाला बनवारी है न ! उसी ने बताया कि तुम पैदल एक हाथ में बैग लटकाए चले आ रहे थे। फिर अचानक ही ऑफिस के सामने खड़े होकर चीखने लगे और गिर कर बेहोश हो गए।"

मनोहर ने बताया फिर पूछा -

"तुम्हारी कार कहां गई ?"

"पता नहीं। मैं ..... मैं आज ऑटो से आया था। फिर ...."

"फिर क्या ?"

"फिर वह ऑटो वाला .. उसका वह उसका वह भयानक चेहरा .... प्रभास ने जोर से झुरझुरी ली। 

"कौन ऑटो ? कौन ऑटो वाला ? कहां गई कार ? यार , कुछ ठीक से बताओ तो समझ में भी आए।"

विनोद में झुंझला कर कहा।

"ओह , मुझे .... मुझे थोड़ी देर के लिए अकेला छोड़ दो प्लीज !"

प्रभास बोला।

"ओके !"

उन्होंने उसे उसके केबिन में पहुंचने में मदद की और फिर अपनी अपनी सीट पर चले गए।

उनके जाने के बाद प्रभास दोनों हाथों से सिर थाम कर बैठ गया। अजीब उलझन में पड़ गया था वह। क्या हो रहा है उसके साथ यह सब ? उसकी जुराबें गायब होना और फिर धुल कर जूतों में पहुंच जाना .... वह पानी टपकने की दहशतनाक आवाजें .... रात भर सो न पाना.... कार गायब हो जाना .... क्या था वह सब ? चंपा ने कहा था कि उसे सारे घर के खिड़की दरवाजे खुले मिले थे। उसने पूछा था कि क्या रात में कोई दावत हुई थी। और ..... और वह रहस्यमय भयानक चेहरे वाला ऑटो वाला जो बिना बताए ही उसे ऑफिस तक ले आया था।

बनवारी कहता है कि वह पैदल ऑफिस आ रहा था। तो .... तो.. क्या वह सब वहम था उसका ? रात की वह सब घटनाएं ..... सच नहीं था वह सब ? शायद कोई भयानक सपना जो उसके ह्रदय में कहीं गहरे पैठ गया है। ऑफिस वालों से किसी से कुछ कहेगा तो सब हँसेंगे। जरूर भयानक सपना ही था वह। उसके दिमाग का वहम। लेकिन ..... लेकिन उसकी कार कहां गई ? उसकी कार.... कहाँ गयी उसकी कार ?...

तभी चपरासी ने आकर बताया -

"साहब ! एक लड़का आपकी कार नीचे छोड़ कर चाबी दे गया है।यह लीजिए।"

उसने कार कार की चाबियां उसके सामने मेज पर रख दीं। 

"कौन था ?"

"पता नहीं साहब ! बोला गैराज से आपकी कार लेकर आया है। मैं चाबियां आपको दे दूं। पेमेंट वह बाद में आपसे ले लेगा।"

चपरासी ने बताया।

"पेमेंट ?"

प्रभास ने मस्तिष्क को झटका सा लगा। पेमेंट तो उसने ऑटो वाले को भी नहीं किया था ... वह तो उसे देखते ही बेहोश हो गया था। तो क्या वह भी वह भी बाद में पेमेंट लेगा कैसा पेमेंट ? 

प्रभास एक बार फिर उलझ गया।उसने चाबियां अपने सहकर्मी रमेश को देकर कार को पार्किंग में लगाने के लिए कहा। फिर न जाने क्या सोच कर स्वयं भी साथ हो लिया।

"ठहरो , मैं भी चलता हूँ।"

रमेश ने उसे विचित्र दृष्टि से देखा। जब वह स्वयं ही कार पार्क करने जाता रहा है तो रमेश को साथ ले जाने का क्या मतलब ?

"आओ , चलें।"

प्रभास ने रमेश के कंधे पर हाथ रखते हुए कहा।

बिना कुछ बोले रमेश उसके साथ चल पड़ा। ऑफिस के सामने बनवारी की दुकान के पास ही खड़ी थी उसकी कार। चमचमाती हुई जैसे अभी ही वर्कशॉप से आई हो। रमेश के साथ प्रभास भी कार की चमकती बॉडी को देखते ही रह गए।

"आप की कार तो बिल्कुल नयी लग रही है साहब !"

बनवारी ने टोक दिया।

"अभी अभी कोई लड़का खड़ी करके गया है। किस वर्कशॉप का था ?"

प्रभास ने पूछा।

"पता नहीं। बड़ी अच्छी सर्विसिंग की है।"

रमेश बोला।

"हां !"

"तुम्हें तो पता होगा कि कहां भेजी थी कार।"

"नहीं यार ! किसी से भिजवाई थी। आओ बैठो।"

प्रभास ने कार का दरवाजा खोलते हुए कहा।

कार में बड़ी अच्छी भीनी भीनी सुगंध फैली हुई थी। कार ड्राइव करके वह पार्किंग में ले गया। सब कुछ सामान्य था। कोई नयी बात नहीं हुई लेकिन फिर भी प्रभास के मन में कहीं कुछ खटक रहा था।

०००००००

दिन भर बहुत बेचैन रहा वह। किसी भी काम में मन नहीं लगा। शाम को उसने अपने दोस्त अनूप से बात करने का निश्चय किया किंतु ऐन वक्त पर साहस जवाब दे गया। क्या कहेगा वह ? इन सारी बातों , घटनाओं का कोई भी प्रमाण नहीं है उसके पास। अगर उसने भी इसे मेरे दिमाग का फितूर या वहम न समझा तो मुझे पागल अवश्य समझेगा। इसी विचार ने उसे हतोत्साहित कर दिया।

 अंत में उसने घर जाने का ही निश्चय किया। दोपहर में लंच उसने आफिस के पास स्थित रेस्टोरेंट्स से ही किया था जहां वह हमेशा खाना खाया करता था। शाम को घर जल्दी पहुंच कर उसने खिचड़ी बनाने की सोची। कभी-कभार वह घर पर खिचड़ी , तहरी या जीरा राइस , पुलाव जैसी चीजें बना लिया करता था। रोटी बनाना उसे नहीं आता था इसलिए जब रोटी खाना होता तो बाहर से ही खाना पैक करा कर ले आता।

 उस दिन वह जल्दी ही घर पहुंच गया। अभी आठ ही बजे थे। कपड़े बदल कर उसने खूब मलमल का स्नान किया जैसे पानी के साथ ही अपनी सारी परेशानियां भी बहा देना चाहता हो। नहा कर उसने पायजामा बनियान पहन कर शॉल ओढ़ लिया और रसोई का प्रबंध करने लगा। रसोई में प्रवेश करते ही वह चकित रह गया। कुकर गैस पर चढ़ा हुआ था और सीटी बजा रहा था। उसने बढ़ कर गैस बंद कर दी। यह कुकर किसने चढ़ाया गैस पर ? उसने सोचा। पानी का गिलास लेकर वह बिस्तर पर जाकर बैठ गया। एक एक घूंट करके उसने पानी खत्म किया। 

मन अभी भी वहीं उलझा हुआ था। रसोई में कौन था ? चंपा तो कब की चली गई होगी। शाम को कहां आती वह है। वह तो .... और इसके आगे वह सोच नहीं सका।

रसोई घर में जाकर कुकर खोला तो एक और आश्चर्य उसका इंतजार कर रहा था। कुकर में खिचड़ी थी। बिल्कुल उसकी पसंद वाली। छिलकेदार मूंग की खिचड़ी - घी और जीरे की छौंक वाली। प्रभास को भूख लग आई थी इसलिए बिना इस विषय में अधिक कुछ सोचे उसने खिचड़ी थाली में परोसी और डाइनिंग टेबल पर रख कर खाने के लिए चम्मच उठाया। अचानक उसे याद आई माँ की कही बात -

"बेटा , खाना खाने से पहले ईश्वर को हाथ जोड़ कर धन्यवाद जरूर दिया करो जिसने तुम्हें अन्न मुहैया कराया। भगवान को भोग लगा कर खाओगे तो विष भी अमृत हो जायेगा।"

उसने चम्मच रख दिया थाली को हाथ लगा कर ईश्वर का स्मरण किया -

"ओम नमो भगवते वासुदेवाय .. लो प्रभु ! भोजन ग्रहण करो।"

आचमन छोड़ कर उसने भोजन करना आरंभ किया। वास्तव में बहुत अच्छा स्वाद था। मन प्रसन्न हो गया।

"बहुत-बहुत धन्यवाद प्रभु ! मुझ अकेले पर इतनी कृपा करने के लिए। अपना वरद हस्त मेरे सिर पर बनाए रखना।"

 उसने मन ही मन ईश्वर को धन्यवाद दिया। 

 दिन भर की सारी घटनाओं को दिमाग से निकाल कर वह बिस्तर पर लेट गया। थोड़ी ही देर में उसे नींद आ गई। अचानक उसे अपने माथे पर किसी के ठंडे हाथ के स्पर्श का एहसास हुआ।

"कौन ? कौन है ?"

"सो जाओ। सो जा बेटा ! मैं हूँ तेरे पास।"

प्रभास के कानों में जैसे उसकी माँ का स्वर गूंजा। उस ने करवट बदल ली। मां के साथ के एहसास ने उसे अनोखी शांति दी।

"मुझे छोड़ कर मत जाना माँ !"

वह और बड़बड़ाया। 

"नहीं जाऊंगी। तू डरना मत। हमेशा तेरे साथ तेरी माँ है।"

वही स्वर फिर उभरा। आंखे बंद किए किए ही वह माँ के हाथों का स्पर्श अपने सिर पर अनुभव कर रहा था। बड़ा सुखद अनुभव हो रहा था उसे। नींद गहराने लगी थी कि तभी..

 'फटाक' 

तेज आवाज के साथ खिड़की के पट खुल गए। ठंडी हवा के झोंके के साथ ही तीव्र दुर्गंध का झोंका भी कमरे में प्रवेश कर गया। घबरा कर प्रभास ने आंखें खोल दीं। खिड़की के पास कोई था। उस अंधेरे में भी उसका साया स्पष्ट दिखाई दे रहा था।

"कौन-कौन हो तुम ?"

प्रभास ने चिल्ला कर पूछा।

"मैं .. मैं हूँ ..हा हा हा ..."

और वह पीछे पलट गया। ओह , यह तो वही था ... वही जिसे उसने ऑटो वाले के रूप में देखा था। वही चमकती लाल आंखें और बिंदी के स्थान पर गोल छेद जिसमें आग की लपटें मचल रही थीं। उसके बाल बिखरे हुए थे। अट्टहास करते समय उसके बड़े-बड़े डरावने दाँत चमक उठते थे। उस अंधेरे में भी प्रभास उसके फैले फैले होठों और उसके किनारे से बहती लहू की धार को स्पष्ट देख पा रहा था। उसके बाल खिचड़ी हो रहे थे। कहीं सफेद तो कहीं काले और कहीं-कहीं लाल। बिखरे हुए बालों , बड़े-बड़े दांतो और भयानक चेहरे वाली उस आकृति ने अपने हाथ फैलाए तो उसके चार पांच इंच लंबे नाखूनों को देख कर वह सिहर गया।

"माँ ...."

उसके होंठ काँपे। 

"दूर हट। यह मेरा शिकार है।"

वह भयानक साया चिंघाड़ा।

"नहीं नहीं .... मेरा बच्चा ...."

"हा हा हा ....तेरा बच्चा..... हा हा हा ..."

 वह अचानक ही ठहाके लगाने लगा। उसके अट्टहास से जैसे घर की दीवारें काँपने लगीं। प्रभास के सिर को अपने प्यार भरे स्पर्श से सहलाने वाला साया कमरे के द्वार की ओर कोने में सिमट गया और देखते ही देखते धुंआ बन गया। उसी समय कुछ रोशनदान से बाहर की ओर कूदा। वह .... वह तो वही काली बिल्ली थी । कमरे में अभी भी वही भयानक रात गूँज रहा था। सारा घर थरथरा रहा था। दीवाने दी जा रही थी और फिर धड़ाम ....

 प्रभास की चेतना डूबती चली गई।

००००००

 सुबह सात बजे चंपा आई प्रभास तब भी सो ही रहा था। उसने जल्दी जल्दी चाय तैयार की और उसे जगाया। जब तक उसने नाश्ता तैयार किया तब तक प्रभास भी फ्रेश हो कर नहा धोकर आ गया था। उसे नाश्ता दे कर चंपा रसोई में चली गई। बर्तन देख कर वह मुस्कुरा पड़ी। प्रभात भैया ने कल खिचड़ी बनाई थी शायद। 

 जल्दी जल्दी घर के सारे काम निबटा कर वह चली गई। नियत समय पर प्रभात भी ऑफिस के लिए निकल पड़ा।

कार उसके घर के सामने ही खड़ी थी। चमचमाती हुई। जैसे उसे अभी कुछ देर पहले ही धोया गया हो। उसने श्रद्धा पूर्वक अलमारी में रखी। हनुमान चालीसा निकाल कर मेज पर रख दी माँ की तस्वीर को प्रणाम किया और ऑफिस के लिए निकल गया।

वह दिन सामान्य बीता हालांकि पिछले दिन के अनुभवों ने उसे परेशान कर रखा था। कभी-कभी उसे लगता जैसे जो भी घटा वह सब सपना था या फिर उसका वहम। बहरहाल ....

शाम होने पर वह अपने दोस्तों के साथ रेस्टोरेंट चला गया।

गपशप करते नौ बज गए तब ध्यान आया कि वह फिर देर तक घर से बाहर रहा है। उसका मित्र अनूप उसके साथ ही था उस दिन। हरीश और सोहन तो वहीं पास में ही रहते थे। अनूप का घर प्रभास के घर से भी आठ नौ किलोमीटर आगे था।

जब वे घर जाने के लिए तत्पर हुए तो अनूप ने देखा कि उसकी बाइक तो पंचर हुई पड़ी है। अब इतनी रात में कहाँ बनेगा पंचर ?

"परेशान मत हो यार ! चलो , मेरे साथ ही चले चलो। घर पर फोन करके बता देना भाभी को और मेरे घर पर ही रुक जाना आज रात।"

प्रभास बोला।

"लेकिन सरस्वती वहाँ रात भर अकेली रहेगी। बहुत डरती है वह अकेलेपन से।"

अनूप ने कहा।

"कोई बात नहीं। चल , मैं तुझे घर छोड़ दूंगा।"

"ओके ... एक शर्त पर। बोल , तू मेरे घर से खाना खाकर लौटेगा।"

 अनूप बोला।

"लेकिन .....

"कोई लेकिन नहीं। मंजूर हो तो बोल वरना मैं कोई ऑटो पकड़ता हूँ।"

"अच्छा बाबा ! चल , आज का डिनर तेरे घर पर ही सही। अब तो खुश ?" प्रभास ने कुछ इस अंदाज से कहा कि सभी खिलखिला पड़े।

हरीश और सोहन को विदा करके अनूप और प्रभास कार में बैठे। रास्ते में प्रभास ने कहा -

"पहले घर चलूं।"

" क्या करेगा घर जाकर ? चल , पहले मेरे घर। फिर आकर सो जाना यहाँ।"

 अनूप ने कहा।

"हूँ।"

 प्रभास ने हुंकार भरी।

 अनूप का घर बस्ती से कुछ हट कर था। शहर से थोड़ा बाहर। प्रकृति की गोद में बसा हुआ खूबसूरत सा घर जिस की बालकनी से दूर तक फैली पहाड़ियां और वनराजि स्पष्ट दिखाई देती थी। दिन में वह दृश्य बहुत सुंदर लगता था परंतु रात का अँधेरा फैलते ही सब कुछ काले साए में बदल जाता था। इसीलिए संभवतः अनूप ने अपनी पत्नी के अकेले रहने पर भयभीत होने की बात कही थी।

घर के निकट पहुंच कर प्रभास ने स्वयं इसे महसूस किया। दूर तक फैले प्राकृतिक दृश्यों पर फैली काली चादर ने एक बार तो जैसे उसे भी सहमा दिया 

"अनूप ! तू शहर में आकर क्यों नहीं रहता ?"

प्रभास ने टोका। 

"यहाँ की प्राकृतिक सुंदरता मन को मोह लेती है इसीलिए यह जगह छोड़ी नहीं जाती। माता-पिता ने बड़े अरमान से जिंदगी भर की जमा पूंजी जोड़ कर इस घर को बनाया था। उनका प्यार बसा है यहाँ , इस घर में।"

अनूप ने भावुक होकर बताया।

"फिर तो इसे छोड़ने का कोई मतलब ही नहीं। माँ बाप का आशीर्वाद जहां पर हो वह स्थान जन्नत से कम नहीं होता।"

 प्रभास बोला। उसके हृदय पटल पर उसकी माँ की छवि तैर गई।

"आओ , भीतर चलें।"

सरस्वती ने उनका स्वागत किया। फिर डिनर करते-करते साढ़े दस बज गए।

"ओह, साढ़े दस बज गए।"

 प्रभास ने घड़ी देखते हुए कहा।

"तो क्या हुआ ? अकेले ही तो हो। आज यहीं सो जाओ। बैठक में तुम्हारा बिस्तर लगवा देता हूँ।"

अनूप बोला।

"हां भाई साहब ! हमें कोई दिक्कत नहीं होगी।आप भी यहीं आराम कीजिए। कल ऑफिस यहीं से चले जाइएगा।"

दोनों ने बड़े आग्रह से उसे वहीं रोक लिया। आदत के विपरीत रात देर तक दोनों बातें करते रहे।

दूसरे दिन प्रभास और अनूप एक साथ ही घर से निकले। ऑफिस जाते समय रास्ते में ही प्रभास का घर पड़ता था तो उसने घर के सामने ही कार रोक ली।

"क्या हुआ अनूप ने पूछा।

"कुछ नहीं , चलो। इधर से ही तो जाना है। अभी वक्त है तो घर होते चलो। चंपा को कुछ काम भी सहेज दूंगा।" 

प्रभास बोला। दोनों कार से उतर कर घर की ओर बढ़े। घर खुला देख कर अनूप ने पूछा -

"अरे , तुम्हारा घर तो खुला है। कोई आया है क्या ?

"घर की एक चाबी चंपा के पास रहती है। वही होगी। साफ सफाई कर रही होगी।

घर में प्रवेश करते ही किचन से सब्जी की बड़ी अच्छी सुगंध आई। 

"बड़ी अच्छी खुशबू है। तुम्हारी चंपा खाना भी बनाती है क्या ?"

अनूप ने पूछा।

"नहीं यार , खाली साफ सफाई करती है लेकिन इधर दो एक दिनों से लगता है कि खाना भी बना जाती है।"

प्रभास बोला।

"लगता है का क्या मतलब ?"

"कभी सामने उसने कुछ कहा नहीं। मैंने कभी उससे खाना बनाने के लिए नहीं कहा तो भी ...."

"अरे वाह , ऐसी नौकरानी तो बड़े भाग्य से मिलती है।"

"हां , सो तो है। विश्वसनीय है और सीधी भी। माँ के समय से काम कर रही है।"

"कहीं तुमसे इश्क विश्क तो नहीं करने लगी वह ? "

अनूप ने आँख मारते हुए शरारत से पूछा और अचानक ही जैसे घर में तूफान आ गया। फटाफट खिड़कियों के दरवाजे खुलने बंद होने लगे जैसे घर में बवंडर घुस आया हो। और फिर अचानक ही प्रभास की राइटिंग टेबल उड़ कर अनूप से टकराई। चीखता हुआ वह जमीन पर जा गिरा।

"ओह , क्या हो रहा है यह सब ? हे माँ ! रक्षा करो .."

प्रभास चिल्ला कर अनूप की ओर बढ़ा। उसने उसे सहारा देकर उठाया और पलंग पर बैठा दिया। मेज के कोने ने उसके माथे को घायल कर दिया था। रक्त बहने लगा था। उसने रूमाल निकाल कर उसका घाव पोछना चाहा। यह क्या ? घाव से बढ़ती रक्त की बूंदे हवा में उड़ने लगीं और पूरे कमरे में चक्कर काटने लगीं। 

"यह सब क्या है प्रभात ? मैंने तो मजाक किया था। सारी यार , अब कभी मजाक नहीं करूंगा तुमसे।"

अनूप बोला। प्रभास कुछ भी कह नहीं सका। सहारा देकर उसने अनूप को उठाया और बाहर की ओर बढ़ चला। 

"तेरी मरहम पट्टी करा दूँ।"

तभी उनके दृष्टि रसोई के द्वार पर पड़ी तो वे सिहर उठे। रसोई का द्वार खुला हुआ था और अंदर गैस के चूल्हे के पास बिखरे बालों वाली कोई लड़की खड़ी थी।

"कौन ? चंपा ?"

उसने पलट कर देखा तो प्रभात सिहर कर रह गया। कितना भयानक रूप था उसका। आंखें आंखें तो जैसे थीं ही नहीं। बड़े-बड़े काले गड्ढे जिन से खून बह रहा था। बिखरे हुए बाल और गहरा साँवला रंग। 

"कहां... कहां है चंपा ?"

अनूप ने पूछा।

प्रभास के मुख से आवाज नहीं निकली। उसने इशारे से रसोई की ओर संकेत किया -

"वहां..."

"कहां ? वहां तो कोई नहीं है।"

अनूप बोला।

"वह .... वह...."

प्रभास ने दृष्टि उठाई -

यह क्या ? रसोई तो खाली पड़ी थी। बर्तन धुले हुए एक और रखे थे। रसोई व्यवस्थित थी। कहीं भी खाना बनाए जाने का कोई चिह्न नहीं था। तो वह खुशबू ? वह औरत ? हे ईश्वर ! क्या हो रहा है यह सब ?"

प्रभास ने अनूप का हाथ कस कर थामा और बाहर निकल आया। वहाँ एक नया ही आश्चर्य उसकी प्रतीक्षा कर रहा था। उसकी कार गायब थी और उसके स्थान पर अनूप की बाइक खड़ी थी। दुरुस्त और साफ-सुथरी। 

"तुम्हारी कार कहाँ गई ? और यह मेरी बाइक यहाँ कैसे ?"

अनूप ने बौखला कर पूछा।

"पता नहीं ... मुझे कुछ पता नहीं अनूप ! चलो यहाँ से ...."

 प्रभास उसे घसीटते हुआ बाइक तक पहुंचा। उसे पीछे बैठाया और बाइक ऑफिस की ओर बढ़ा दी।

"मैं जाऊं ?"

ऑफिस पहुंचने पर अनूप ने प्रभास से पूछा।

"हाँ , अभी तुम अपने ऑफिस जाओ। शाम को यहीं आ जाना। बहुत कुछ बताना चाहता हूँ तुम्हें। लेकिन प्लीज ! अभी मत परेशान हो। शाम को बातें करेंगे।"

प्रभास कुछ विचलित स्वर में बोला -

"ओके , जैसी तुम्हारी इच्छा।"

अनूप बाइक लेकर अपने ऑफिस की ओर निकल गया जो वहां से आधा फर्लांग की दूरी पर था।

दिन भर प्रभास के मन में विचारों का संघर्ष चलता रहा। वह समझ नहीं पा रहा था कि उसे अपने विचित्र अनुभवों को अनूप से शेयर करना चाहिए या नहीं। कहीं उसने भी इसे उसका वहम मान लिया तो ? लेकिन ऐसा शायद न हो क्योंकि अनूप भी इन घटनाओं का थोड़ा सा साक्षी तो रहा ही है। अब जो भी हो शाम को वह अनूप से अपनी परेशानी जरूर बताएगा क्या पता कोई हल निकल ही आए। 

शाम को जब प्रभास घर जाने के लिए ऑफिस से बाहर आया तब उसकी कार अपने निर्धारित स्थान पर खड़ी थी। वह कार की ओर बढ़ा तभी बगल की गली से निकल कर अनूप की बाइक सामने आ गई।

"आओ प्रभास !"

अनूप ने उसे बुलाया।

"मेरी कार ?"

"छोड़ो उसे। जब चाहे तब धोखा दे जाती है। आओ , जल्दी से बैठो पीछे।

अनूप बोला।प्रभास के बैठते ही उसने बाइक स्टार्ट कर दी। जब प्रभात के घर का मार्ग छोड़ कर अनूप की बाइक दूसरी ओर मुड़ी तो उसने टोका -

"इधर कहां ?"

"मेरे घर। आज तू मेरे घर चल रहा है लेकिन ..."

"कोई लेकिन वेकिन नहीं।"

अनूप ने उत्तर दिया। जब वे अनूप के घर पहुंचे तब उसकी पत्नी बैग लेकर तैयार खड़ी थी और घर के बाहर टैक्सी भी खड़ी थी।

"यह क्या ? कहीं जा रहे हो तुम लोग ?"

"हम सब जा रहे हैं तुम्हारी भाभी के चाचा के घर। उनके यहाँ कुछ काम है तो उन्होंने अर्जेंट बुलाया है।"

अनूप ने बताया।

"लेकिन मैं ?"

"तुम हमारे साथ चल रहे हो। इतने टेंशन में हम तुम्हें अकेला नहीं छोड़ सकते प्रभास।"

"हां प्रभास भैया ! चलिए , टैक्सी में बैठिये।"

अनूप की पत्नी ने आग्रह किया तो प्रभास विरोध न कर सका। अनूप उसे खींचता हुआ टैक्सी तक ले गया। सबके बैठते ही टैक्सी चल पड़ी।

"हम कहां जा रहे हैं ?"

कुछ देर बाद प्रभास ने पूछा।

"मेरे साथ हो तुम। हमारा भरोसा नहीं है क्या ?"

अनूप ने पूछा।

"है यार , मैंने तो ऐसे ही पूछ लिया था।"

 प्रभास ने खिसिया कर कहा और कार की विंडो से बाहर देखने लगा। 

कार शहर से बाहर आ चुकी थी। शाम का धुंधलका फैलने लगा था पेड़ पौधे इमारतें सब तेजी से पीछे छूटते जा रहे थे। प्रभास ने सर को हल्के से झटका दिया। 

"लो , तुम लोग कुछ खा लो।"

अनूप की पत्नी ने अपने साथ रखे झोले से मेवे के लड्डू निकाल कर उन्हें पकड़ा दिए। उसे खा कर दोनों ने पानी पिया तो जैसे दिन भर की थकान मिट गई। जब टैक्सी अपने गंतव्य पर पहुंच कर रुकी। तब रात के दस बज रहे थे।

जहां पर वे उतरे वह एक अच्छा भला बड़ा सा भवन था जिसके गेट पर वॉचमैन खड़ा था और पास ही जंजीरों से बंधा हुआ अलसेशियन डॉग उन्हें अपनी तीखी दृष्टि से घूर रहा था। अनूप पत्नी और मित्र के साथ भीतर की ओर बढ़ा।

 भवन के सामने बड़ा सा बरामदा और उसके पीछे मुख्य द्वार। अभी वे द्वार तक पहुंचे ही थे कि द्वार निःशब्द खुल गया। सामने एक अत्यंत भव्य व्यक्तित्व के स्वामी खड़े थे। गले में रुद्राक्ष की माला और मस्तक पर त्रिपुंड।

"आओ आओ बच्चों ! रास्ते में कोई कष्ट तो नहीं हुआ ?"

"नहीं बाबूजी !"

अनूप ने उत्तर दिया। उसने बढ़ कर उनके पैर छुए तो प्रभास ने भी चरण स्पर्श किया। उसके चरण स्पर्श करते ही वे चौंक से उठे।

"तुम ?"

"यह मेरा मित्र प्रभास है बाबूजी !"

अनूप ने बताया। उन्होंने गहरी दृष्टि से प्रभास की ओर देखा।

"हूं ...हूं ..ठीक है..... ठीक है .."

वे जैसे स्वयं से ही बातें कर रहे थे। फिर अनूप की पत्नी की ओर मुख करके बोले -

"तुम भीतर जाओ सुरो ! माँ से मिल लो और मिसरानी के साथ जाकर रसोई देख लो।"

"जी बाबू!"

सरस्वती सिर झुका कर घर में चली गई।

"तुम दोनों मेरे साथ आओ।"

कह कर वे दालान में दूसरी ओर चल पड़े। अनूप और प्रभास उनका अनुगमन कर रहे थे। इमारत का लगभग आधा चक्कर लगा कर एक बड़े से द्वार के पास जा कर रुक गए दरवाजे पर बड़ा सा पुराने ढंग का ताला लगा हुआ था और चौखट के ऊपर दीवारों पर और द्वार के दोनों ओर भी कुछ मंत्र जैसे लिखे हुए थे।

"यह मेरा व्यक्तिगत कक्ष है।"

ताला खोलते हुए वे बोले। औऱ मैं रथींद्र शुक्ला। अनूप का ससुर और सरस्वती का पिता। मुझे अपने किसी मित्र की कुछ समस्याओं के बारे में बताया था अनूप ने। वह मित्र तुम ही हो न।" 

"हां बाबू जी ! यही है वह जिसके लिए मैंने आपसे बात की थी। मैं इसे एक बार आपसे मिलाना चाहता था। बस।"

अनूप ने कहा।

"अच्छा किया जो तुम इसे यहां ले आए। कुछ अधिक ही परेशान है यह आजकल।"

वृद्ध बोले।

कमरे के अंदर एक एक चटाई बिछी हुई थी। बीच में एक हवन कुंड बना था जिसके चारों ओर लाल रंग से चौक बनाया गया था। एक ओर एक पात्र में कुछ सामग्री रखी हुई थी ।

प्रभास और दोनों ही बड़े आश्चर्य से वह सब देख रहे थे। इससे पूर्व कभी अनूप को भी इस विशेष कक्ष में आने का अवसर नहीं मिला था।

"चिंता मत करो। प्रभास ! तुम इधर आकर मेरे सामने बैठो।"

रथींद्र शुक्ल ने प्रभास को अपने सम्मुख चौक पर बिठा दिया और स्वयं एक ओर आसन बिछा कर बैठ गए। पास रखे पूजा के थाल से सफेद पाउडर जैसा निकाल कर उन्होंने पूरे चौक को घेरते हुए एक गोल बना दिया। 

आसन पर बैठ कर कुछ क्षण वे होठों में बुदबुदाते हुए कोई मंत्र जपते रहे। फिर हाथ बढ़ा कर प्रभास के मस्तक पर तीसरे नेत्र के स्थान पर अपने दाहिने हाथ के अंगूठे का हल्का सा दबाव दिया तो प्रभास चीख पड़ा।

अनूप ने घबरा कर उसकी ओर देखा। देखते ही देखते प्रभास का चेहरा लाल पड़ने लगा। आँखों में सुर्खी उभरने लगी। अगले ही क्षण उसके चेहरे पर उसी स्त्री की आकृति झलकने लगी जिसकी एक झलक अनूप ने प्रभास की रसोई में देखी थी। अगले ही पल उसकी भयानक हँसी गूंज उठी।

"चुप। बिल्कुल खामोश।"

वृद्ध गरजे। 

अचानक प्रभास चुप हो गया।

"अब मेरे प्रश्नों का उत्तर दो। कौन हो तुम ?"

"सुहासिनी।"

प्रभास के मुख से स्त्री का स्वर निकला।

"कौन सुहासिनी "

वृद्ध ने पूछा।

"प्रभास की मंगेतर।"

"लेकिन प्रभास की मंगनी कहां हुई है ? झूठ बोलती हो ?"

"नहीं , मैं सच कह रही हूँ।"

अचानक उसका स्वर सौम्य हो गया। प्रभास के मुख पर अब एक अत्यंत सुंदरी , लगभग चौदह पन्द्रह वर्ष की किशोरी का चेहरा झलकने लगा।

"कब हुई तुम्हारी मंगनी ?"

वृद्ध ने पूछा।

"बहुत बचपन में। जब मैं पाँच साल की थी और यह आठ साल का। तब हम दोनों के पिताजी जीवित थे। उन्होंने ही तो हमारी मंगनी कराई थी और कहा था - 

'ले सुहासिनी ! अब प्रभास तेरा है। इसकी देखभाल तुम को ही करना है।" 

"तुम्हारा विवाह क्यों नहीं हुआ ?"

वृद्ध ने पुनः पूछा।

"क्योंकि ....क्योंकि ..."

प्रभास का चेहरा पीड़ा से विकृत होने लगा। फिर वह जैसे बड़े कष्ट से बोल पड़ा -

"हम.... हम सब मर गए थे।"

"क्या ? कौन मर गया था ?"

उन्होंने चौंक कर पूछा।

"मैं .... मेरी मां ...पिताजी ..सब।"

"कैसे ?"

"कार एक्सीडेंट में।"

"सब ?"

"हां ... सब। कोई नहीं बचा।"

"फिर ?"

"फिर कुछ ही दिनों बाद प्रभास के पिता का हार्ट फेल हो जाने से वह भी नहीं रहे। इसकी माँ इसे लेकर नए शहर चली गई। तभी से मैं इसे ढूंढती रही हूँ।"

"क्यों ?"

"मेरा मंगेतर है यह। इसकी सेवा करने के लिए। अब तो इसकी माँ भी मर गई तो मैं इसकी सेवा करने के लिए इसके घर आ गई। इसे डराने नहीं। मैं इसे क्यों डराऊंगी ? मैंने तो इसके लिए खाना बनाया ... इसकी कार साफ कराई। उसका ब्रेक ढीला हो गया था उसे ठीक कराया ..."

"नहीं , तुम तो उसे डरा कर परेशान कर रही हो।"

"नहीं नहीं ...मैं इसे बहुत प्यार करती हूँ। मैं तो इसके साथ रहना चाहती हूँ। यह डर जाता है तो मैं क्या करूं। इसकी माँ मुझे इसके पास जाने से रोकती है तो मुझे गुस्सा आ जाता है।"

वह बड़ी मासूमियत से बोल रहा था।

"तुम .... तुम इस का साथ छोड़ दो सुहासिनी ! तुम मर चुकी हो इस सत्य को स्वीकार कर लो। प्रभास जीवित है। वह इस दुनिया का प्राणी है जबकि तुम आत्मा लोक में जा चुकी हो। भूल जाओ उसे।"

"कैसे भूल जाऊं ? इसके सिवा मेरा कोई नहीं है। बचपन से मैं इसे अपना स्वामी मानती रही हूं। यह मेरा है।"

"इससे मिलने के लिए तुम्हें तब तक इंतजार करना पड़ेगा जब तक यह संसार न छोड़ दे।"

"यदि ऐसा है तो तो मैं उसे मार दूंगी। देह छोड़ कर वह मेरे साथ रह सकेगा।"

"तुम ऐसा कुछ नहीं करोगी। उसके साथ उसकी माँ की आत्मा है जो उसकी रक्षा कर रही है। वही तो सबसे बड़ी बाधा है वह कुछ उदास हुई।

"मैं तुम से प्रार्थना करता हूं - चली जाओ अपनी दुनिया में।"

"नहीं .... मैं प्रभास के बिना नहीं जाऊंगी।"

"मैं तुम्हें आदेश देता हूं।"

"नहीं .. "

वह चीख पड़ी।

वृद्ध ने हाथ में कुछ सरसों के दाने लेकर मंत्र पढ़ना शुरू किया तो प्रभास चीखने लगा। वृद्ध ने सरसों के मन्त्रपूरित दाने प्रभास पर फेंक दिए। वह चीख कर गिर पड़ा।

अनूप घबरा कर उसकी ओर बढ़ा परंतु रथींद्र शुक्ला ने उसे वहीं रोक दिया।

"ठहर जाओ अनूप ! अभी मेरा कार्य पूरा नहीं हुआ है।"

उन्होंने एक बार फिर कुछ मंत्र बुदबुदाने आरंभ कर दिए। कुछ ही क्षणों बाद प्रभास उठ कर बैठ गया। उसकी आंखें खुलीं। 

"क्यों बुलाया है मुझे ?"

उसने पुनः स्त्री स्वर में पूछा। अनूप इस स्वर को सुन कर चौंक पड़ा। यह स्वर प्रभास की माँ का था।

"नमस्कार बहन ! कैसी हैं आप ?"

 रथींद्र जी ने सम्मान पूर्वक पूछा -

"ठीक हूँ। बस , इस बच्चे के लिए ही व्याकुल रहती हूँ।"

" ₹अब आप संसार की माया छोड़ कर मुक्त हो जाइए।"

"मैं भी यही चाहती हूँ किंतु इसे एक बार सुखी देखना चाहती हूँ।"

प्रभास की मां का स्वर प्रभास के मुख से निकला।

"वह प्रसन्न है बहन ! उस पर क्या संकट है ?"

"कोई नहीं। बस वह सुहासिनी .... वही संकट बन गई है इसके लिए। आप इसे उससे मुक्ति दिला दें तो मैं भी निश्चिंत होकर चली जाऊं।"

"जिसके सिर पर माँ का साया हो उसको कोई कुछ भी हानि नहीं पहुंचा सकता। आप निश्चिंत रहें। अब मैं सुहासिनी को और अधिक छूट नहीं दे सकता। उसे यहां से जाना ही होगा।"

"बहुत प्यारी बच्ची थी वह। इसीलिए हम लोगों ने बचपन में ही हँसी हँसी में दोनों बच्चों को एक दूसरे के लिए तय कर लिया था। परंतु उन लोगों के एक्सीडेंट के कारण सब तहस-नहस हो गया। उसके माता-पिता तो मुक्ति पा गए किंतु यह अपने अत्यधिक लगाव के मोह में बंधी रह गई।"

प्रभास की माँ ने बताया।

"अब आप दोनों की मुक्ति का समय आ गया है। आज रात्रि आप दोनों ही इस संसार के मोह से मुक्त हो जाएंगी।"

रवींद्र शुक्ला जी ने उन्हें आश्वासन दिया।

"आप सुहासिनी की मुक्ति का कार्य करें भाई ! उसके जाते ही मैं स्वतः ही मुक्ति पा जाऊंगी।"

"यदि उसकी कोई वस्तु मिल जाए तो यह कार्य सुगम हो जाएगा। क्या आप मेरी कुछ सहायता कर सकती हैं ?"

उन्होंने पूछा।

प्रभास चुप हो गया। वह तो जैसे बैठे-बैठे ही सो गया था। लगभग चार मिनट बाद उसने पुनः आंखें खोल दीं।

"आप ?"

"हां , मैं प्रभास की माँ ही हूँ। हमारे घर में मेरी संदूक के अंदर एक छोटा डिब्बा रखा है जिस पर हनुमान जी का चित्र चिपका हुआ है। टिन के उस डिब्बे में प्रभास बचपन में अपनी वस्तुएं रखा करता था। उसी में एक रेशम से कढ़ा हुआ रूमाल है गुलाबी रंग का। उसे सुहासिनी ने प्रभास को उसके जन्मदिन पर दिया था। आपका काम शायद उससे चल जाएगा।"

"हां , अब आप जाएं। मैं उपाय करता हूँ।"

रथींद्र शुक्ला ने उन्हें विदा किया।

कुछ देर बाद प्रभास सामान्य हो गया और वे उसके तथा अनूप के साथ कक्ष से बाहर आ गए। कक्ष से निकलने के पूर्व ही उन्होंने दोनों युवकों के गले में एक-एक अभिमंत्रित धागे की माला पहना दी थी। 

उस कक्ष को पूर्ववत बंद करके तीनों घर के अंदर आ गए जहाँ भोजन के लिए उनकी प्रतीक्षा हो रही थी।

दूसरे दिन अनूप अपने साले के साथ वापस शहर लौट गया। प्रभास के घर में उसे उसकी माँ का संदूक ढूंढने में कोई विशेष कठिनाई नहीं हुई। 

चंपा के सहयोग से उसने संदूक ढूंढ लिया और उस पर लगे छोटे से ताले को तोड़ कर उसके अंदर से वह निर्दिष्ट डिब्बा ढूंढ निकाला। डिब्बा बहुत सुंदर था और उस पर हनुमान जी का चित्र बना हुआ था। उसे लेकर दोनों शाम तक पुनः रथीन्द्र शुक्ला जी के पास पहुंच चुके थे।

आधी रात होने पर उन्होंने उसी कक्ष में जा कर पूजा प्रारंभ कर दी। कुछ ही देर के प्रयत्न के बाद वे सुहासिनी को उसके दिए रुमाल की सहायता से बुलाने में सफल हो गए। इस बार पूजा के घेरे में उन्होंने प्रभास को नहीं बैठाया था बल्कि एक मिट्टी की छोटी सी गुड़िया बना कर उसे ही वह रुमाल लपेट दिया था और उस पर काला धागा बांध दिया था। प्रभास और अनूप किनारे चटाई के आसन पर बैठ कर व समस्त क्रियाकलाप मूक दर्शक बन कर देख रहे थे। 

रथींद्र शुक्ल के मंत्र जाप करते ही वह मिट्टी की गुड़िया जीवित के समान प्रतीत होने लगी। उसने बड़े प्यार से रुमाल को लपेट कर छोटा सा घूंघट जैसा बना लिया। 

उसी समय वृद्ध ने हाथ में गंगा जल लेकर मंत्र पढ़ते हुए उस पर डाल दिया। देखते ही देखते हुए गुड़िया गल कर जमीन पर फैल गई। शुक्ला जी ने उसी रुमाल से सारी मिट्टी समेट कर रूमाल सहित हवन कुंड में डाल दिया। उसे डालते ही हवन कुंड में अचानक आग जलने लगी तेज लपटों में एक बार सुहासिनी का चेहरा झलका और फिर धुआं बनकर उसी में समा गया।

वृद्ध ने पुनः गंगाजल छिड़क कर कुंड की अग्नि को पवित्र किया। उसे प्रणाम किया और सबके के साथ कक्ष को बंद करके बाहर आ गए। पूजन कक्ष में ताला बंद करते हुए वह बोले -

"लो बेटा ! तुम्हारी समस्या का समाधान हो गया। अब जाओ और सुख पूर्वक जीवन व्यतीत करो।"

प्रभास अनायास ही श्रद्धावनत होकर उनके पैरों पर झुक गया।


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