हक़ की कमाई (बाल कहानी)
हक़ की कमाई (बाल कहानी)
किसी नगर में एक राजा रहता था। वह बहुत धर्मात्मा तथा साधु संतों का सत्कार करने वाला था।
एक दिन उसके महल में एक साधु पधारे। राजा ने उसकी बड़ी आवभगत की तथा भोजन करने का आग्रह किया। साधु ने कहा -
"अवश्य राजन ! मुझे हक़ की कमाई से भोजन करो तो मैं अवश्य भोजन करूँगा।"
राजा बड़ी चिंता में पड़ गया। ये हक़ की कमाई कैसी होती है यह तो वह जानता ही नहीं था। कोई मंत्री या दरबारी भी उसके विषय में कुछ नहीं बता सका। तब राजा ने स्वयं हक़ की कमाई लेन का निश्चय किया।
वह नगर के बनिये के पास गया और उससे हक़ की कमाई का सनज देने के लिये कहा जिससे साधु को भोजन कराया जा सके।
बनिया बोला -
"महाराज ! मैं व्यापारी हूँ। किसान से फसल खरीद कर उसे मुनाफ़ा लेकर बेचता हूँ। यही मेरी ये का साधन है। इसे हक़ की कमाई कैसे कहूँ ? आप किसानों के पास जायें तो वे आपको हक़ की के।आई दे सकते हैं।"
राजा किसान के पास जाकर बोला -
"मुझे हक़ की कमाई का अनाज दो जिससे साधु को भोजन कर सकूँ।"
किसान बोला -
"महाराज !मैं खेत मे मेहनत करता हूँ लेकिन फसल तैयार होने के लिये मुझे सूरज और वर्षा पर निर्भर रहना पड़ता है। अगर बदल पानी न बरसाए या सूरज फसल न पकाए तो मेरी मेहनत व्यर्थ हो जाये। मेरे अन्न पर बादल और सूरज तथा धरती का भी हक़ है। मैं आपको हक़ का अन्न कहाँ से दूँ ?"
राजा फिर एक मजदूर के पास गया। उसे विश्वास था कि वहाँ उसे हक़ की कमाई का अन्न जरूर मिल जाएगा।
राजा की बात सुनकर मजदूर ने कहा -
"महाराज ! आज काम करते समय मेरी तबियत खराब हो गयी और मैं पूरे दिन काम नहीं कर सका। फिर भी मालिक ने मुझे पूरे दिन के पैसे दे दिये। उन्हीं पैसों से मैं आटा दाल लाया हूँ। जिस समय मैंने काम नहीं किया उस समय की कमाई पर मेरा हक़ नहीं है।"
राजा एक बार फिर निराश हो गया।इस भागदौड़ में सारा दिन बीत गया था। रात हो गयी। तक मांदा राजा महल की ओर लौट पड़ा।
रास्ते मे एक छोटे से घर के बाहर वह थक कर बैठ गया। उस घर मे एक विधवा स्त्री रहती थी जो दूसरों के कपड़े सिल कर अपना गुजारा करती थी। उसने थके हुए यात्री को पानी पिलाया और आराम करने के लिये कहा।
राजा ने कहा कि वह हक़ की कमाई का अन्न लेने के लिये निकला है।
वह बोली -
"मेरे पास थोड़ा अन्न तो है लेकिन वह पूरी तरह हक़ की कमाई नहीं है।"
"वह कैसे?" राजा ने पूछा।
उसने बताया -
"कल रात मैं कपड़े सिल रही थी तभी मेरे चिराग़ का तेल खत्म हो गया। घर मे और तेल नहीं था। मैं उलझन में थी तभी एक मूंगफली बेचने वाला इधर से निकला। मेरे घर के सामने खड़ा होकर वह मूंगफली बेचने लगा। उसके चिराग की रोशनी में मैंने कपड़ा सील कर पूरा कर दिया। सुबह वही कपड़े देकर जो सिलाई के पैसे मिले उन्हीं से मैं अन्न ले आयी हूँ इसलिये उस अन्न के आधे से अधिक हिस्से पर मेरा तथा शेष पर उस मुंगफलीवाले का हक़ है।"
"ओह, अब मैं क्या करूँ ? साधु महाराज मो भोजन कैसे कराऊँ ?"
राजा ने चिंतित होकर कहा।वह स्त्री मुस्करा कर बोली -
"संसार मे सभी मिलजुल कर ही काम पूरा करते हैं। एक दूसरे का सहयोग न करें तो जीवन कैसे चले ? आप भी प्रजा से कर लेकर उसकी भलाई के काम में खर्च करते हैं और उसके सुख और सुरक्षा का कार्य करते हैं। उसके बदले में जनता से लिये कुछ अंश का उपभोग करते हैं तो वह धन भी हक़ की कमाई हुआ।"
"किन्तु वह जनता से लिया हुआ कर होता है।" राजा बोला।
"यदि आप उस पूरे धन को अपने ऐशो आराम में खर्च कर दें और प्रजा के सुख दुख की परवाह न करें तो वह अन्याय है किंतु जब उसे आप प्रजा की भलाई के लिये खर्च करते हैं तो जो आप अपने निर्वाह के लिये खर्च करते हैं वह उसका पारिश्रमिक हुआ। वह हक़ की कमाई ही है।"
"ओह, सत्य कहा आपने।"
राजा ने उसका धन्यवाद किया और प्रसन्न होकर अपने महल की ओर चला गया। उसे साधु महाराज को अपनी हक़ की कमाई से भोजन जो कराना था।