अनचाहे सपने
अनचाहे सपने


कुछ ऊंचाइया छूकर आपका मन खुश होता है मगर कुछ ऊंचाइयों से आपका दिल घबरा जाता है । नाचते, गाते, हस्ते इन् चेहरों को देख मेरा मन भी घबरा रहा था । ना जाने दिल मैं एक डर सा था जो आज पूरा हो गया। १०वी कक्षा का परिणाम! सब लोग खुश थे । माँ और पापा तो मिठाइएं बाटते नहीं थक रहे थे । और मैं ? मैं एक कोने मैं चुप चाप गुमसुम बैठा था । आँखें नम थीं मगर ख़ुशी के आंसूं तो दूर दूर तक नहीं आ रहे थे। अपने विद्यालय मैं प्रथम आया था मैं, ९८ परसेंट मार्क्स से । दोस्तों ने सुबह से बधाइयों के पुल बांध रखे थे मगर मेरे मुँह से एक बार हंस कर शुक्रिया न निकल पाया । डर तो मुझे अगली सुबह का था । यहि तो होता है हमारे साथ सालो का खून पसीना और एक दिन की खुशी । और उस दिन का अंत होते ही फिर खून पसीना बहाना । मुझे पता था कल सुबह पापा मुझे बुलाएंगे और हसके बोलेंगे “बेटा हमारा कमाल का डॉक्टर बनेगा । ” और प्यार से मेरे बालो को सेहलाएँगे । उनकी उस आँखों की चमक को देखने के लिए मैंने ना जाने कितने सपने कुर्बान कर दिए और कल फिर करूँगा । मगर कब तक? क्या बस डॉक्टर बनने तक ही मैं उनका बेटा हूँ? यही सवाल मेरे अंदर घर कर गया था । क्या अगर मैं अपने सपने खुद चुन लूँ तो वो मुझे छोड़ देंगे? अकेला? ऐसे ना जाने कितने सवाल मेरे दिमाग मे घूमते रहते हर् पल। मगर एक बार भी मुझमे इतनी हिमायत ना आई की इन् सवालो को पापा के सामने रख सकू। ३-इडियट्स तो मैंने बहुत बार देखी थी ,मम्मी पापा के साथ भी। वो उसको देख रोये, हसे और खुश भी हुए मगर अपने घर मैं पल रहे फरहान को पहचान ना सके। पहचानते भी कैसे मैं कौनसा कभी कम नंबर लाया था? मैं तोह अव्वल नंबर से पास होता था और यही मेरे लिए शाप था । २ बार फेल हो जाता तोह शायद मेरे पापा भी कह देते जा करले अपने सपने पुरे ।
“अरे बेटा तुम यहाँ क्यों बैठे हो? चलो सब बाहर बुला रहे है.” माँ ने बाहर मेरी कमी महसूस करते हुए मुझे ढूंढ ही लिया । माँ का दिल है, सब समझ जाता है । मगर माँ भी तो इंसान है , कुछ चीज़े वो भी नज़रअंदाज़ कर जाती है। “बस आ रहा हूँ माँ ।”, मैंने कहा और उनको देख मुस्कुरा दिया । वो भी इस तस्सली मैं चली गयी की मैं खुश हूँ । मैं खड़ा हुआ तो मेरी नज़र अपनी डायरी पर पढ़ी । मैंने उससे उठाया और गुस्से मैं खिड़की से बहार फेक दिया । और करता भी क्या? कौन पढ़ रहा था मेरी कहानियों को, मेरी कविताओं को ? सब तो मेरे विज्ञान में अलौखिक खोज करने का इंतज़ार कर रहे थे । मुँह धोकर और एक बार शीशे मैं खुदका हारा चेहरा देखकर मैं सबकी बधाइयां लेने बहार चला गया ।
अगली सुबह मेरी माँ ने मुझे बड़े प्यार से उठाया । उनके इसी प्यार भरे स्पर्श को खोने के डर से मैं सपना देखना छोड़ चुका था । ऐसा नहीं है मैने कभी माँ पापा से अपने सपने साँझा नहीं किया । समझना तो दूर वो तो मुझे ही अपने सपनो के खिलाफ भड़काने लगते । उनका सबसे बड़ा मुद्दा था पैसा! “ये लिखोगे? कहानियां लिखोगे पूरी ज़िन्दगी? इसका पैसा कौन देगा?” पापा के यह शब्द आज भी मेरे कान मैं गूँजते थे। “इतने होनहार हो । अच्छे नंबर लाते हो और अपने टैलेंट को किताबे लिख कर बर्बाद कर दोगे?” माँ भी उनका साथ देती थी। “नक्श उठ जाओ अब सुबह हो गयी है । स्कूल नहीं जाना?” माँ ने एक बार फिर आवाज़ दी। मैंने खुद को अपना सपने न देखने का वादा याद कराया और अंगड़ाई भर के उठ गया । आज कुछ अलग था हवा में । कुछ नया मगर सुहाना सा । पापा मेरे कमरे में आए और माँ भी उनके पीछे दोबारा कमरे मैं आ गई। पापा ने अपने पीछे कुछ छुपा रखा था और माँ भी कुछ ज़्यादा ही मुस्कुरा रही थी । “गुड मॉर्निंग पापा। ” मैंने कहा और वो और ज़्यादा मुस्कुराने लगे। मैं सोच रहा था की पापा क्या छुपा रहे है मगर मैंने झाँकने की कोशिश नहीं की। हमारे घर मैं यह सब अशिष्ट व्यवहार कहा जाता था। पापा मेरे सामने आकर बैठ गए। “बेटा कल तुमने हमारा नाम और ऊँचा कर दिया। ऐसे ही मेहनत करते रहना और एक दिन बहुत बड़े डॉक्टर बनना। मम्मी और मैं तुम्हारे लिए तोहफा लाये हैं । ” यह कह कर पापा ने मेरे हाथ में एक डब्बा थमा दिया। मैंने डब्बा देखा तो वो एक फ़ोन का डब्बा था। मैं हसना चाहता था मगर मेरे दिमाग मैं बस यही था की यह तोहफा मुझे किस कीमत पे मिला है, अपने सपनो की कीमत पे? लेकिन पापा के ख़ुशी से भरे चेहरे ने मुझे मुस्कुराने पर मजबूर कर दिया। मैंने पापा को गले से लगा लिया और उन्होंने प्यार से मेरे बालों को सहलाया। मुझे अपने माँ पापा से बहुत प्यार है और वो। भी मुझसे कुछ कम प्यार नहीं करते मगर प्यार करने में और किसी को समझने में अंतर होता है।
स्कूल मैं सब मुझे बधाइयां दे रहे थे और कुछ लोग मेरी मेहनत को मेरी अच्छी किस्मत बोल के खुदको तस्सली दे रहे थे। वो इस बात से अनजान थे की अच्छी किस्मत होती तो आज मैं अपने लिए पढ़ाई करता, अपने सपने जीता। मेरा पहला दिन और मैं हर साल की तरह अपनी क्लास के पहले बेंच पे जाके बैठ गैया। बस्ता निकाला और भौतिक विज्ञान की किताब यूँ ही पढ़ने लगा। मेरे आगे किताब खुली थी मगर मेरा ध्यान कहीं और ही था। तभी एक आवाज़ ने मुझे अपने सपनो की दुनिया से वापस बुलाया, “नक्श तुम्हे अनिकेत सर बुला रहे है स्टाफ रूम में.” मेरे दोस्त अनंत ने कहा और चला गैया। अनिकेत सर मुझे क्यों बुला रहे है? अनिकेत सर हमारे विद्यालय के हिंदी के अध्यापक है और साथ ही साथ हमारे विद्यालय के एनुअल डे के नाटक भी वही लिखते थे। मैं उठा और उनके पास चला गया। पुरे रास्ते मेरे दिमाग मैं बस यही सवाल था की वो मुझे क्यों बुला रहे है? “मे ई कम इन सर?” मैंने स्टाफ रूम के बहार से बोला । “अरे ! नक्श हाँ आओ बेटा। ”,उन्होंने हंस के कहा। मैं सिर नीचे झुका के अंदर चला गया। सिर नीचे झुकाने की पुरानी आदत है मेरी। जब किसी नयी जगह जाता हूँ पहले ही सबको बता देना चाहता हूँ की मैं शर्मिंदा हूँ। खुद से। “ऐसे क्यों खड़े हो यहाँ आओ और बैठो। ” उन्होंने पास पढ़ी कुर्सी की तरफ इशारा करते हुए कहा। मैं ज़रा हिचकिचाते हुए बैठ गया। वो कुर्सी उनकी टेबल के बिलकुल पास मैं थी और बैठते हुए मेरी नज़र उनकी टेबल पर पढ़ी। वहां मेरी डायरी रखी थी। मैं हैरान उस जानी पहचानी लाल डायरी को एक टक देख रहा था। सर ने मेरी आँखों मैं दिख रहा सवाल पढ़ लिया और हसते हुए डायरी उठा ली। “यही सोच रहे हो ना की ये मेरे पास कैसे आयी?” उन्होंने पूछा। मैंने बस अपना सर हाँ मैं हिला दिया। “पहले तुम यह बताओ इन् सबको अपने से दूर क्यों किया और वो भी इतने गुस्से में ? कल अगर मैं थोड़ा और तुम्हारी खिड़की के नीचे होता तो मेरे तो सर पे लगती यह सीधे आके। ” उन्होंने कहा और हस्स दिए। मैं कुछ बोल न सका। उनको कैसे बताता की मैंने डायरी नहीं अपने सपनो को खुदसे दूर फैका था जो अनजाने मैं उनके हाथ मैं जाकर गिर गए। “मुझे तो मालूम ही नहीं था तुम इतना अच्छा लिखते हो?” उन्होंने कहा। मैं मुस्कुरा दिया। पहली बार किसी ने मुझसे यह कहा था और कल सुबह से पहली बार मैं दिल से मुस्कुरा रहा था। “मैंने तुम्हे एक बहुत ज़रूरी काम के लिए बुलाया है। ”, उन्होंने कहा। “जी सर बोलिये। ”, मैंने झट्ट से कह दिया। “तुम्हारी डायरी तुमसे बिना पूछे पढ़ी मैंने उसके लिए मैं माफ़ी मांगता हूँ। मगर मैं चाहता हूँ इस साल के एनुअल डे का नाटक तुम लिखो। ” उन्होंने कहा। उनके शब्द मेरे कानो मैं बासुरी के धुन सा बज्ज रहे थे। “सर मुझे नाटक लिखना नहीं आता है। ” मैंने उन्हें कहा। मेरे मन में ख़ुशी के लड्डू फूट रहे थे मगर सच यही था की मुझे नाटक लिखना आता ही नहीं था। “मैं सिखाऊंगा तुम्हे। हर रोज़ लंच ब्रेक मैं मुझसे यहीं मिलना। ”,उन्होंने कहा और मैंने बिना माँ पापा के बारे मैं सोचे हामी भर्र दी। मैं उठा और उन्होंने मेरी डायरी मुझे वापस लौटाई। “इसे खुदसे कभी अलग मत करना। ये तुम्हारा सपना है और तुम्हारा हुनर भी। ” और इतना कह कर मुस्कुरा दिए। मैंने डायरी ली और हस्ता नाचता खुद से ही गीत गुनगुनाता वापस अपनी कक्षा मैं भौतिक विज्ञान पढ़ने चला गया।
यही तो सपने देखने की सचाई है जब तक सपने देखते है वो कुछ नाज़ुक सा सुन्दर एक परियो का शहर सा लगता है। मगर जब उस सपने की ओर हम पहला कदम रखते है तो ज़िन्दगी की कठोर सचाई सामने आती है। पिछले एक महीने से मैं अपने माँ पापा के प्रति कर्त्तव्य और अपने सपनो को पूरा करने के बीच बिना एक पल भी सांस लिए भाग रहा था। हर रोज़ स्कूल आना फिर पढ़ाई करना, खाना खाते हुए अनिकेत सर से नाटक लिखने के नियम और तरीका समझना ,फिर घर जाकर माँ पापा का अच्छा बेटा बनकर पढ़ाई करना और हर रात सबके सो जाने के बाद अपने सपनो को उड़ान देना। हर रात जब माँ पापा सो जाते थे, मैं अपना नाटक लिखता था। वो शान्ति मुझे बिना किसी रोक टोक और डर के अपनी दुनिया में खो जाने देती थी। मैंने १ महीने मैं ५-६ नाटक लिखे जिसमे से सर को एक भी पसंद नहीं आया। “नक्श दिमाग से नहीं दिल से लिखो। जैसे डायरी मैं लिखते थे। ये मत सोचो लोग क्या सुन्ना और देखना चाहते है। ये सोचो तुम उन्हें क्या सुनाना चाहते हो। ” अनिकेत सर ने मेरा नाटक पढ़ने के बाद कहा। “सर एक बात पुछू?”, मैंने धीरे से उनसे बोला। उन्होंने हाँ में सिर हिलाया। “क्या आप हमेशा से अध्यापक बनना चाहते थे?” मैंने पूछा। वो हल्का सा मुस्कुराये और मुझे बैठने को कहा। मैं बैठ गया। “ज़िन्दगी इतनी आसान नहीं होती नक्श। हम क्या चाहते है और हमे क्या मिलता है उनमे बहुत फर्क होता है। इस दुनिया मैं आधे से ज़्यादा लोग अपने सपने नहीं जी रहे। इसलिए नहीं क्युंकि परिस्थितियां ऐसी थी, मगर इसलिए क्यूंकि उन्होंने अपनी परिस्थितियों से हार कर सपने देखना छोड़ दिया। मगर इस दुनिया मैं ऐसे भी लोग है जो अपना सपना बहुत अछे से जी रहे है क्यूंकि उन्होंने कभी हार नहीं मानी। नहीं मैं कभी अध्यापक नहीं बनना चाहता था मगर मैं आज खुश हूँ। मेरा सपना था नाटक लिखना और लोगो को अपनी कहानिया सुनाना। और मैं वो आज कर रहा हूँ। हाँ उतने अच्छे से नहीं मगर कर रहा हूँ और मुझे ख़ुशी है की मैंने अपने सपने का हाथ नहीं छोड़ा। ” उन्होंने मुझसे कहा और उसी समय मुझे अपनी नाटक की कहानी मिल गयी। मैं एकदम से उठा और उनको शुक्रिया बोलके सीधे अपनी कक्षा की और भागा। मैंने जल्दी से कागज़ और कलम निकाला और उस कागज़ पे अपने नाटक का नाम लिखा- अनचाहे सपने !
हर तरफ तालियों की आवाज़ गूंज रही थी। मैं स्टेज के पीछे से सारे किरदारों को सर झुककर शुक्रिया बोलते देख रहा था। सबसे आगे अनिकेत सर खड़े मुस्कुरा रहे थे। उन्होंने माइक लिया और सब शांत हो गए। मैं हल्का सा परदे से झांकता हुआ अपने माँ पापा को ढूंढ रहा था। थोड़ा और ढूंढ़ने के बाद मुझे वो सबसे कोने की तीसरी रो में दिखे। मैं उनके चेहरे को पढ़ने की कोशिश करने लगा। तभी मेरे कानों मैं अनिकेत सर की आवाज़ पढ़ी “अब आपकी तालियों के बीच मैं इस नाटक के लेखक को बुलाना चाहूंगा. नक्श त्रिवेदी!”, और यह कह कर उन्होंने मुझे स्टेज पर आने का इशारा किया। मैंने फिर अपने माँ पापा को देखा और उनके चेहरे पर एक उलझन सी झलकी। मगर कुछ पल मैं उन्हें एहसास हुआ यह नाम उनके अपने बेटे का है। मैंने अपने पापा की आँखों मैं वोही चमक और माँ की आँखों मैं ख़ुशी के आसूं देखे और मुस्कुराता हुआ मैं अनिकेत सर की और चल दिया। तालियां फिर शुरू हो गई और उनमे सबसे ज़ोर से मेरे पापा ताली बजा रहे थे। शायद मैं गलत था। वो मुझे समझते है मगर डरते है- इस दुनिया से, इस दुनिया के तौर तरीको से, इस दुनिया मैं चल रही सफलता की दौड़ से। मैंने सिर झुकाया और पहली बार मैं खुद से हारा महसूस नहीं कर रहा था। मैंने अनिकेत सर के मुस्कुराते चेहरे को देखा और उनको गले से लगा लिया। सर ने मुझे ज़िन्दगी की एक ऐसी सीख दी थी जिसने मुझे अपने सपनो से हार न मानने पर मजबूर कर दिया। मैं यह समझ गया था की मैं अपने सपने जी सकता हूँ और जितने चाहु उतने सपने देख सकता हूँ। मगर सपने पूरे करने के लिए मुझे दूसरों से कई गुना ज़्यादा मेहनत करनी होगी। अपने माँ पापा के साथ चलते हुए ही अपनी एक नई राह बनानी होगी। सर मुस्कुरा दिए और हलके से मेरे बालों को सहला दिया और अनजाने मैं ही सर ने मेरे खिड़की से बहार फेंके सपनो को एक नयी उड़ान दे दी।