Arunima Thakur

Children Stories

5.0  

Arunima Thakur

Children Stories

बच्चों की सूझबूझ

बच्चों की सूझबूझ

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ननिहाल की यादें तो सभी की बहुत ही प्यारी होती है । मेरी तो बुआ के घर की यादें भी बहुत ही प्यारी है । आजकल के बच्चों को देखती हूँ तो बस उनके माँ बाप से यही सुनने को मिलता है, अरे कहीं जा ही नहीं सकते उनके स्कूल के कारण, गृहकार्य (होमवर्क) छूट जाएगा कक्षाकार्य (क्लासवर्क) छूट जाएगा, प्रोजेक्ट छूट जाएगा, अनुपस्थिति लग जाएगी और ना जाने क्या-क्या । क्या हम पढ़े-लिखे नहीं थे ? क्या हम स्कूल नहीं जाते थे ? पता नहीं कैसे महीनों मामा के यहाँ, बुआ के यहाँ ना जाने कैसे रह कर आ जाते थे। आज सरकार हर संभव कोशिश कर रही है बच्चों को उनका बचपना वापस लौटाने की। इम्तिहान नहीं लेती है, पाठ्यक्रम (कोर्स) कम कर रही है। पर जितना सरकार शिक्षा का स्तर नीचा करती जा रही है, बच्चों पर अतिरिक्त एक्टिविटी का बोझ बढ़ता जा रहा है। 


चलो खैर हमारी कहानी यह नहीं है। हमारी कहानी तो है कि हम दोनों बहने बुआ के साथ बुआ के घर गए थे। हाँ हम पहली बार ट्रेन में बैठे थे । बुआ, पापा और हम दोनों बहनें I हम बड़े उत्साह से ट्रेन को, ट्रेन के बाहर देख रहे थे । ट्रेन के चलने के थोड़ी देर बाद जब हमारे गाँव की सड़क और क्रॉसिंग आई तो बुआ की आँखें नम हो गयी। बुआ के घर हमारे घर से बाइक से जाने पर एक सवा घंटे लगते थे। ट्रेन से शायद हमें ढाई घंटे लगे थे । मैं पापा का हाथ पकड़ कर और मिनी बुआ का, स्टेशन पर उतर गए । तब गाड़ियों में इतनी धक्का-मुक्की, भीड़ नहीं होती थी ।


हमारे आश्चर्य का ठिकाना न रहा जब फूफा जी हमें स्टेशन पर मिले । पापा और बुआ भी आश्चर्यचकित, तब फोन नहीं होते थे और तार भी दूसरे दिन पहुँचता था।पापा फूफा जी से बोले कुँवर साहब आप यहाँ कैसे ? मेरे पापा फूफा जी को कुँवर साहब बोलते थे । फूफा जी बोले बस मित्र लग रहा था कि तुम आ रहे हो। मेरे फूफा जी मेरे पापा को हमेशा मित्र ही बोलते थे। सारा सामान वही स्टेशन मास्टर के पास रख कर कि बाद में कोई आकर गाड़ी से लेकर जाएगा, हम सब पैदल ही बुआ के घर के लिए निकल पड़े । तब पैदल चलना बहुत आम बात थी । रेलवे लाइन के किनारे किनारे होते हुए, ना ना डरने की बात नहीं थी । तब रेलवे लाइन पर इक्का-दुक्का गाड़ियाँ ही आती जाती थी । खेतों की पगडंडियों से होते हुए एक छोटी सी पहाड़ी/टीले के ऊपर चढ़कर न जाने कहाँ से घूमते घूमते हम बुआ के घर पहुँचे । घर क्या पूरी बड़ी हवेली थी। घर के बाहर ही एक चबूतरा बनाकर माता का मंदिर था। मंदिर में प्रणाम करके हम घर के अंदर गए।


    पापा हमको और बुआ को छोड़कर दूसरे दिन ही लौटने वाले थे । इसकी भी एक मजेदार कहानी है। ट्रेन के नियत समय पर फूफा जी और उनके बच्चे भैया लोग पापा को स्टेशन छोड़ने गए। टिकट लिया गया । ट्रेन भी आ गई। पापा को बिठा भी दिया गया । ट्रेन चलने से कुछ सेकेंड पहले फूफा जी बोले, "अच्छा मित्र तुम सही में जा रहें हो चलो फिर एक पान खा लिया जाए, फिर तो तुम चले ही जाओगे"। फूफा जी अपने बच्चों को बोले, "देखो हम लोग पान खाकर आते हैं । अगर ट्रेन चालू हो जाए तो तुम लोग चेन खींच देना"। दोनों लोग उतरकर पान की दुकान तक गए, पान खाया। फूफा जी बोले, "मित्र सच में ही जाओगे" ? पापा बोले, "हॉं अब तो टिकट भी ले लिया है"। फूफा जी ने टिकट फाड़ दिया । लो मित्र टिकट तो गयी। तबसे ट्रेन की सीटी बजी । पापा हड़बड़ा कर दौड़े, "अरे मित्र ट्रेन जा रही है"।


फूफा जी ने पापा का हाथ पकड़ लिया अब जा रही है तो जाने दो।


"अरे मित्र मेरा सामान उसमें है । "


"नहीं तुम्हारा सामान लेकर बच्चे उतर गये है। चलो ठीक है कल चले जाना।"


ऐसा उनके यहाँ आने वाले हर व्यक्ति के साथ होता था और एक बार नहीं बार-बार । फूफा जी का कहना था आएँ हो अपनी मर्जी से जाओगे मेरी मर्जी से।


 हम दोनों बहनों को वहाँ बुआ के घर में दो अपने मतलब के कमरे मिल गए थे । मुझे किताबे पढ़ने का शौक था तो भैया लोगों की कॉमिक्स से भरा पूरा कमरा था और मिनी को दीदी की गुड़ियाँ मिल गई थी । हम दोनों जब मौका पाते ऊपर चले जाते अपने अपने कमरों में और खेलते रहते। एक दिन हम सब आँगन में बैठे थे। शाम को फूफा जी बोले, "एक बात समझ नहीं आती बड़की बिटेवा तो किताब लेकर पढ़त रहत है पर तुम बताओ मिनी तुम अकेले कैसे खेलती हो"। मिनी थोड़ा तुतलाकर बोलती थी । वह बोली, "अतेले तहाँ थेलती हूँ आजी के साथ थेलती हूँ ना" । सब एकदम चौकन्ने होकर बैठ गए । आजी कौन आजी ?


"अले वही सफेद बाल वाली आजी, एतदम सफेद साड़ी पहन कर आती है और मेले साथ थेलती है"।

 

सब सन्न मन्न क्योंकि बुआ फूफा जी के घर में कोई बूढ़ी औरत थी ही नहीं । यह बात तो हमें बाद में पता चली कि बुआ के घर पर ऐसा बोलते थे कि फूफा जी की कोई परआजी भटकती रहती है । पर आज तक उन्हें किसी ने नही देखा था और ना ही उन्होंने किसी को नुकसान पहुँचाने की कोशिश की थी ।


पर हम बच्चों को उनसे दूर रखने के लिए दूसरे दिन बुआ बोली, "जाओ तुम लोग उस घर भी घूम आओं "I


 फूफा जी के चचेरे बड़े भाई का परिवार बगल वाले गाँव में रहता था । फूफा जी हम को लेकर वहाँ के लिए निकलें। हम फूफा जी के घर से निकल कर, गाँव के आठ दस घरों के आगे से निकलकर, एक बाग से गुजरे । आगे खेतों की मुंडेंर से होते हुए हम बड़े फूफा जी के घर पहुँचे । उन सब से तो हम पहले भी कई बार मिल चुके थे क्योंकि तब शादी ब्याह में पूरा पूरा परिवार आता था। आज मुझे चचेरा लिखने के लिए क्षमा करें पर उस समय तो हमें कभी लगा ही नहीं कि वह हमारे बुआ फूफा जी नहीं है। वह घर बहुत बड़ा था हवेली जैसा तो नहीं घर जैसा ही था। पर उसका आँगन इतना बड़ा था कि जैसे पूरे दो बास्केटबॉल कोर्ट या शायद उससे भी बड़ा और उसके चारों तरफ सब के कमरे बने थे । वहाँ चार - पाँच परिवार एक साथ अलग अलग रहते थे । सबकी अपनी अलग-अलग रसोई थी ।वहाँ एक अच्छी बात थी कि वहाँ हमारी उम्र के बच्चे बहुत सारे थे। चिन्नू भैया बिन्नू भैया हम दोनों बहनों को पूरा घर दिखला कर लाए, सबसे मिलवाया । जय जयंती, मोहित, अंशु, डॉली ना जाने कितने सारे बच्चे थे ।


 फूफा जी हमें छोड़ कर चले गए हम वही सब बच्चों के साथ खेलते रहे । इतनी देर में हमने तय कर लिया था कि हमें कौन अच्छा लग रहा है, कौन नहीं । जय जयंती की मम्मी रानी बुआ सबसे ही प्यारी थी। उनकी जितनी मीठी बोली मैंने आज तक भी किसी की नहीं सुनी। फूफा जी भी बहुत अच्छे। हमारे साथ कितने सारे खेल खेलते । पीछे के तालाब में कांटे में केचूँआ फंसा कर मछली पकड़ना भी उन्होंने हमें सिखाया। उस दिन शाम को फिर रानी बुआ ने हमें रोक लिया कि कहाँ जाओगी वहाँ पर, यही रह जाओ । हमको तो मजा पड़ गई । क्योंकि बुआ के घर में तो कोई खेलने वाला था ही नहीं | यहाँ तो इतने सारे बच्चे इतना बड़ा घर और यहाँ तो बड़े भी बच्चे बन जाते थे । शाम होते ही हम आइसपाइस (आई स्पाई) खेलते। सारे बच्चे मिलकर धमाचौकड़ी मचाते। चुन्नू भैया बिन्नू भैया जो कि सबसे बड़े थे वह भी हमारे साथ खेलते थे ।


 सुबह उठकर हम सबसे पहले बाहर जाकर बुआ की पूजा के लिए फूल तोड़ कर ला कर रखते। उसके बाद ब्रश व्रश करके आते तो बुआ मस्त नाश्ता और दूध देती। आज भी उनके हाथ के बने मालपुए का स्वाद जुबान पर है। हम सब उसके बाद गायब हो जाते । बगल में ही फूफा जी का बहुत बड़ा बाग था । वहाँ शहतूत, अमरूद, चिलबिल और तरह तरह के फल वाले पेड़ थे। मिनी को शहतूत खाना अच्छा लगता था जय उसे तोड़कर देता। मैं नीचे गिरी चिलबिल बटोर बटोर कर खाती। वहाँ बच्चे तो बहुत सारे थे पर मेरी किसी से पटती ही नहीं थी। पर रानी बुआ की तरह जय और जयंती भी बहुत ही अच्छे स्वभाव के थे । मेरी और मिनी की उनसे बहुत पटती थी । हम तीन-चार दिन तक रानी बुआ के घर पर थे। कपड़े भी हम जयंती के ही पहन रहे थे । पांचवें दिन शायद फूफा जी हमें लेकर बुआ के घर पर आए। पर अब हमारा यहाँ बुआ के घर पर मन ही नहीं लगता था । क्योंकि वहाँ पर इतने सारे बच्चे थे, इतना सारा मजा आता था। यहाँ तो घर में ही रहना पड़ता था । दूसरे दिन ही हमने जिद्द की बुआ से, बुआ हम उस वाले घर जाएंगे। बुआ बोली, "अभी कोई नहीं है किसी को आने दो फिर छुड़वा देंगे"। हम ज़िद्दीआ गए, अरे बुआ पास में ही तो है। हम दोनों चलें जाएंगे। बुआ बोली, "अच्छा ठीक है, जाओ पर रात होने से पहले आ जाना, रुकना मत" । हम बोले, "हाँ बुआ" ।


 हम दोनों नाचते गाते निकल पड़े रास्ता तो देखा ही हुआ था एकदम सीधा था । बाग पार करने के बाद खेत की मेंड़ से होते हुए जब हम जा रहे थे तो रास्ते में एक जगह कुएं में रहट लगा हुआ था। उस दिन फूफा जी के साथ थे तो देख नहीं पाए थे, आज तो अपना ही राज था। हम दोनों कौतुहल से देखने लगे। बड़े बड़े डिब्बे कुएं में से पानी निकाल कर आ कर के पानी कुएँ के बाहर उलट दे रहें थे और वह डिब्बे वापस अंदर चले जाते थे । इतना अच्छा लगा, हमने पहली बार रहट देखा था। वैसे तो रहट बैल से चलता था पर यह वाला रहट थोड़ा सा संशोधित भारतीय जुगाड़ करके साइकिल का पहिया जैसा लगाकर हाथ से चलाया जा सकता था । थोड़ा आगे चलने पर एक खेत में ट्यूबबेल चल रहा था । उससे निकलता हुआ पानी बड़ी बड़ी नालियों से आगे के खेतों में जा रहा था। हम दोनों को खेल सूझा नाव तो हमारे पास थी नहीं चलाने के लिए, ना ही कागज़, नाव बनाने के लिए तो पानी में हमने अपनी हवाई चप्पल डाल दी । हमारी चप्पल तैरते हुए खूब दूर निकल गयी और हम ताली बजा बजा कर हँस रहे थे । बाद में भाग कर गए चप्पल लेकर पहना । सारे रास्ते खुराफ़ाते करते हुए जैसे कभी रास्ते के कुत्तों को हमने भगाया कभी कुत्तों ने रास्ते पर हमें । हम फूफा जी के घर पर पहुँच गए । रानी बुआ तो हमें देख कर हैरान हो गयी "किसके साथ आए ? अकेले आए ? डर नहीं लगा ?"


 हम सब खेलने में मगन हो गए । शाम होते ही हमने कहा, "बुआ हम घर जा रहे हैं । बुआ ने कहा था शाम से पहले आ जाना"।


रानी बुआ ने भी वही बोला कि रुक जाओ अभी कोई नहीं है । किसी के साथ भिजवा देंगे।


हम तो ज्यादा समझदार लोग, हमने कहा बुआ हम खुद से आए हैं । सुबह भी हमें छोड़ने कोई नहीं आया था । हम खुद से चले जाएंगे । अबकी बार जय, जयंती हमें छोड़ने गए । अब तो यह क्रम बन गया था हमारा इस घर से उस घर तक चक्कर लगता ही रहता था और ट्यूबवेल के पानी में चप्पल तैराना और रहट चलाना हमारा रोज का खेल, अब इन खेलों में जय व जयंती भी शामिल थे | एक दिन जब हम चारों शाम को लौट रहे थे । रोज की तरह हम रहट पर गये I चारों लोग मिलकर उसको कुछ चक्कर चलाएँ और जब पानी निकला तो देख कर खुश होते हुएँ हम रहट के पास खड़े होकर उसको चलता देख रहे थे। हमने वहाँ से बाग के एक दूर वाले कोने पर कुछ लोगों को एक साथ खड़े देखा। उनके हाथों में कुदाल और फावड़े थे जिसे वह बोरी में रख रहें थे। जय बोला भी यह लोग गाँव के नहीं लग रहे हैं। हम आपस में धीरे-धीरे बातें कर रहे थे कि यह लोग कौन है ? क्या कर रहे होंगे ? जंयती बोली बीज बो रहें होंगे । जय बोला बीज बोने के लिए तो पूरा खेत जोतना पड़ता है। बाग में गड्डा क्यों खोद रहे होंगे । मिनी बोली लकड़सुंघा होंगे कहीं हमें पकड़ ना लें। मैं बोली जरूर ये लोग चोर होंगे, चोरी का माल छुपा रहे होंगे। पर दिनदहाड़े ऐसे कोई चोरी का माल थोड़ी ना छुपाता है। वह लोग बड़ी सतर्कता से इधर उधर देख रहे थे । हम तीनों कुएं की मुंडेर के पीछे छिपे थे इसलिए शायद वह हमें नहीं देख पाए । उनका काम शायद हो गया था, वे वहाँ से चले गए।


 अब हमारा खुराफाती बालमन । हम चारों ने तय किया चलो चलकर देखते हैं । अगर चोरी का माल होगा तो पुलिस को बताने पर हम लोगों का कितना नाम होगा, इनाम मिलेगा। वैसे तो हमको बाग के इस कोने से निकल जाना था पर हम उस वाले कोने तक गए देखने के लिए कि वहाँ पर वह लोग क्या कर रहे थे ? जहाँ पर वह लोग खड़े थे वहाँ की जमीन खुदी हुई लग रही थी। मतलब उन्होंने यहाँ पर जरूर कुछ गाड़ा है । जयंती बोली, "चलो यहाँ से चलते हैं कहीं ऐसा तो नहीं किसी को मार करके उसको ही दफन कर दिया हो"।


एक पल को तो हम चारों ही डर गए । हाँ यह भी हो सकता है । जय बोला, "नहीं इतना छोटा सा गड्ढा है, इसमें अगर ऐसा कुछ होता तो गड्ढा बहुत बड़ा होता"।


"हाँ यह भी बात सही है । चलो घर चल कर बड़ों को बताएंगे।"


"क्यों बड़ों को परेशान करना ? पहले देख लेते हैं । कुछ होगा तो बड़ों को जाकर बता देंगे।"


थोड़ी देर आपस में तकरार करने के बाद हम सब आखिर हाथ से गड्ढा खोद रहे थे । हमने आसपास बहुत ढूंढा कि कोई चीज मिल जाए खोदने के लिए और हमारी कोशिश सफल हुई हुई । थोड़ी दूरी पर ही मटके के टुकड़े पड़े हुए थे । हमने उनसे गड्ढा खोदना शुरू किया । क्योंकि गड्ढा अभी ताजा खोदा गया था इसलिए बड़ी आसानी से हमने उसे वापस से खोद दिया। अंदर एक देवी की मूर्ति और चने थे । अब यह क्या पहेली है ? हमने उसको वैसे ही रखकर गड्ढा वापस मिट्टी से भर दिया ।

घर पर आकर फूफा जी को सारी बात बताई । पहले तो फूफा जी भी समझ नहीं पाए कि यह माजरा क्या है ? पर फूफा जी के दोनों बेटे भैया लोग बोले, "ऐसा लगता है की कोई इस जमीन को हथियाने के चक्कर में है । कल परसों में आकर के यह लोग वहाँ पर पूजा पाठ शुरू कर देंगे। जल चढ़ाएंगे तो चना फूल कर के मूर्ति बाहर निकलेगी । भैया लोग बाहर शहर में पढ़ने जाते थे । शायद उनको पहले से ही इस तरह के पाखंड की जानकारी थी । फूफा जी ने बोला, "फिर बताओ क्या किया जाए कि उनका राज गाँव वालों पर खुल भी जाए । क्योंकि अभी हम समझाएंगे तो कोई हमारी बात का विश्वास नहीं करेगा । थोड़ा कुछ सोच विचार कर हम चारों, फूफा जी और फूफा जी के दोनों बेटे कुदाल फावड़ा और टार्च ले करके वापस उसी जगह पर गए । भैया लोगों ने वहाँ से दस हाथ दूर एक गड्ढा खोदकर चना और मूर्ति वहाँ पर दबा दिया और बोले अब मजा आएगा देखते हैं उन लोगों की क्या योजना है।


दो दिन बाद की बात है गाँव में खबर फैली थी की एक साधु गाँव में आया है उसे माता ने सपने में दर्शन दिए हैं कि वह फलाँ जगह पर प्रकट होने वाली है। वहाँ पर माता का एक खूब बड़ा मंदिर बनवाओ । तब इस तरह से देवी या सपने आना एक आम बात नहीं थी । जहाँ साधु ने बताया था वहाँ पर लोगों के दर्शन की भीड़ लगने लगी एक दिन शाम को जब हम बुआ के घर पर थे, एक आदमी आकर फूफा जी के पास बैठ कर रो रहा था । माताजी के नाम पर यह लोग तो मेरी जमीन का टुकड़ा ले ले रहे हैं। मंदिर बन जाएगा तो फिर मेरा बाग बेकार हो जाएगा । मैं किस को किस को मना करूँगा, जो भी मंदिर में आएगा वह मेरे बाग . . . ।


 हम चारों भी जाकर वहीं बैठ गए। फूफा जी बोले, "अरे कुछ माता जी प्रकट नहीं होंगी, परेशान मत हो, ऐसे ही बोल रहें होगें"।


वह बोला, "नहीं भैया वहाँ पर तो उन लोगों ने डेरा जमा दिया है । पूजा भी होने लगी है, जल चढ़ाया जाता है "।


फूफा जी बोले,"अच्छा परेशान मत हो गाँव के बुजुर्गों से बात करके कुछ हल निकलता हूँ। जगत जननी जगदंबा पर भरोसा रखो माँ अपने बच्चों का अहित कभी नहीं करेगी" I


धीरे-धीरे आठ दिन के ऊपर हो गए। अब लोगों का विश्वास थोड़ा डगमगाने लगा था "कहाँ है माता जी ? कब प्रकट होंगीं ?"

गाँव के समझदार लोगों ने दो-चार लोगों को उन साधुओं की निगरानी पर रख दिया था जिससे उनकी उपस्थिति में वह कुछ भी चाल नहीं चल सकते थे । अब साधु भी परेशान थे कि मूर्ति बाहर निकल क्यों नहीं रही है । एक दिन हमारी योजना के अनुसार जो लोग वहाँ पर उनकी निगरानी करते थे उनको वहाँ से हटा लिया गया। साधु और उनके चमचों ने अच्छा मौका देखा और यह पता लगाने के लिए की मूर्ति ऊपर क्यों नहीं आ रही है उन्होंने फटाफट गड्ढा खोदना शुरू किया । खोदने पर भी कुछ हो तो मिले। इससे पहले वह गड्ढा बंद कर पाते गाँव के लोग और पुलिस को लेकर हम सब और फूफा जी पहुँच गए । फूफा जी ने गाँव वालों के सामने पूरी बात बतायी।


फूफा जी की बात सुनकर दूसरी जगह खुदाई शुरू की गई । दो फावड़े मारते ही मूर्ति ऊपर आ गई और साथ में ही ढेर सारे चने भी । फूफा जी ने सबको चने दिखाते हुए कहा, "देखो यह इन लोगों की चाल थी। इन्होंने आठ दिन पहले यहॉं पर चने डालकर मूर्ति दबा दी थी और सपने की बात कहकर यहाँ पर सबसे पूजा पाठ के बहाने जल डलवाया । पानी पड़ने से जमीन के अंदर के चले फूल जाते, अंकुरित हो जाते और मूर्ति धीरे-धीरे ऊपर आती।" गाँव वाले उन पाखंडियों के ऊपर बहुत क्रोधित हुए । वह तो उन्हें मार ही डालते पर फूफा जी ने बीच बचाव करके उनको पकड़वा कर पुलिस के हवाले कर दिया और बोला आज के बाद कभी हमारे गाँव में आने की कोशिश मत करना। बाद में गाँव के सभी श्रद्धालुओं ने माता जी की मूर्ति को ले जाकर के मंदिर के एक तरफ छोटा सा मंदिर बना कर प्रतिष्ठित कर दिया। हमारी खूब तारीफ हुई हमारी छोटी सी सूझबूझ ने लोगों की आस्था को पाखंड़िओ का शिकार बनने से बचा लिया था। 


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