Arunima Thakur

Abstract Inspirational

4.7  

Arunima Thakur

Abstract Inspirational

मन के जीते , जीत है...

मन के जीते , जीत है...

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"काकी मैंने 'गीता मूल्य सशक्तिकरण स्पर्धा' में भाग लिया है । प्लीज आप मेरी मदद करोगी !" उदास सी हेतल को कंधों से झकझोरते हुए नन्ही लतिका ने पूछा।


विचारों से बाहर आते हुए हेतल ने कहा," क्या...." उसने लतिका की ओर देखा। नन्ही लतिका की आँखों में याचना थी। लतिका के माता-पिता सामान्य रूप से पढ़े लिखे है पर वह लतिका को पढ़ने में मदद नहीं कर पाते है। लतिका पढ़ने में बहुत होशियार है। वह स्कूल में ही पाठ अच्छे से समझती है तो उसे ट्यूशन की आवश्यकता अभी तक तो नहीं पड़ी है। कभी कुछ आवश्यकता पड़ती है तो वह सीधे हेतल के पास आती है और अधिकार से पूछ लेती है। हेतल को भी उसे पढ़ा कर, समझा कर खुशी मिलती है।


पर यह महीनों पहले की बात हैं । अब तो हेतल को किसी भी बात में खुशी नहीं मिलती है। एक एक्सीडेंट में पति और बेटी का जाना ज्यादा दुखदायक है या यह पीड़ा जो एक ग्लानि का रूप ले ली है कि वह क्यों बच गई ? वह भी मर जाती । जहां भगवान दो को ले जा रहे थे, उसे भी ले जाते। वह इतनी भारी थी क्या या उसके कर्म इतने बुरे थे ? वह सारा दिन बाद बैठकर यही सब सोचती रहती, "ऐसे कौन से बुरे कर्म मैंने किए थे कि मुझे यह दिन देखने को मिला। इस जन्म में तो कोई कर्म खराब नहीं किए हैं। जब इस जन्म के अच्छे कर्म पिछले जन्म के बुरे कर्मों को कम नहीं कर पाते तो अच्छे कर्मों का क्या फायदा ?" यही सब बातें अकेली बैठी सोचती रहती । सास-ससुर तो पहले ही चले गए थे। नाते रिश्तेदार कितने दिन साथ देते हैं ? अब तो अकेला जीवन बेफालतू के विचार और भगवान को कोसना, उसका बस यही काम था।


"काकी बताओ ना कल जमा करना है" की आवाज से वह अपने विचारों से, अपनी तंद्रा से बाहर आई । "हाँ बोलो, क्या पूछना है ?" भले ही आज उसे भगवान के नाम से चिढ़ है पर वह उस नादान का दिल नहीं दुखा सकती थी।


कुछ दिन पहले कोई उसकी ऐसी हालत देखकर ज्ञान दे रहा था, "आप गीता पढ़ा करो"। वह चिढ़ गई, वह आजकल बात बात पर चिढ़ जाती है । भगवान इतने ही सहाय होते तो क्या ऐसा होता उसके साथ ? अब गीता पढ़कर क्या होगा ? वो दोनों वापस तो आ नहीं जाएंगे । उसके कानों में उसकी बेटी की आवाज गूँजती, "मम्मी आइसक्रीम खाना है, मम्मी साइकिल लेनी है, मम्मी मेरे बर्थडे पर यह वाली पिंक फ्रॉक लूँगी।" उसकी कितनी सारी फरमाइशें थी। वह एक भी पूरी नहीं कर पाई। कितनी छोटी सी थी वह, इतनी जल्दी नहीं जाना चाहिए था उसे । पति के जाने का दुख भी था पर पता नहीं क्यों जिसे पैदा किया था उसे खोने का दुख ज्यादा था ।


काकी यह देखिए प्रश्न है, "पुनर्जन्म का मतलब क्या होता है ? सुमन के पुनर्जन्म से आप क्या समझते हैं ?"


"यह सुमन कौन है ?"


" काकी एक कहानी की पात्र है। कहानी पढ़कर उत्तर देना है", कहकर लतिका ने तीन किताबें उसके हाथों में रख दी । एक भगवद गीता थी। एक कहानी की किताब जो प्रतियोगिता की तरफ से मिली थी और एक किताब 'श्रीमद्भागवतगीता सरल हिंदी पद्य' जो उसने अमेजॉन से मंगवाई थी ।


"तो तुम किताब पढ़कर उत्तर निकालो।"

"काफी मैंने उत्तर निकाल लिए हैं। पर उन्हें अंग्रेजी में लिखना है ।"

"पर तुमने अंग्रेजी में भाग क्यों लिया ? हिंदी का विकल्प भी था ना।"

" काकी सब अंग्रेजी में भाग ले रहे थे तो मैंने भी," उसने आँखें नीचे करते हुए कहा।

"अच्छा तो यह बताओ, तुमने क्या समझा ? तुम मुझे बताओ तो मैं उसको अंग्रेजी में लिख दूंगी ।"


लतिका पालथी पालथी मार कर बैठ गई और पुरखिन की तरह बोलना शुरू कर दिया, हम शरीर नहीं अपितु आत्मा हैं। जिस प्रकार मनुष्य पुराने वस्त्रों का त्याग करके नए वस्त्र धारण करता है, उसी प्रकार आत्मा पुराने तथा व्यर्थ के शरीर को त्याग कर नवीन भौतिक शरीर धारण करती है । अर्थात मृत्यु होने पर आत्मा दूसरा शरीर धारण करती है। इसलिए शरीर के लिए शोक नहीं करना चाहिए।"


उसकी बातों को सुनते हुए हेतल को लगा मानो वह लतिका नहीं, स्वयं भगवान उसके सामने बैठकर कह रहे हैं कि "आत्मा तो अमर है । हर किसी से स्नेह करो क्योंकि हर किसी में किसी न किसी जन्म के प्रिय की आत्मा हो सकती है। शरीर का शोक मत करो, वह तो पंचतत्व में विलीन हो गया। मिट्टी को छूओगी तो उसका स्पर्श महसूस होगा। हवा छू कर जाएगी तो उसकी खुशबू महसूस कर पाओगी। बरसती बूंदें तुम्हें नन्हे नन्हे हाथों के आलिंगन में भर लेंगी। महसूस करो वह तुम्हारे आसपास ही बिखर गई है।"


"काकी कैसा है मेरा उत्तर ?" लतिका के पूछने पर वह वापस अपनी तन्द्रा से बाहर आई।


"बहुत अच्छा है । पर तुमने सुमन के बारे में तो कुछ लिखा ही नहीं ।" हेतल उसे अंग्रेजी में अनुवाद करके बताने लगी और लतिका लिखने लगी। लिख कर हो गया तो लतिका ने कहा, "काकी दूसरा प्रश्न है , 'कर्म क्या है ? यह आपके नसीब पर कैसे असर डालते हैं ?"


हेतल जड़ हो गई । क्या कहे ? कर्म का ही तो सब खेल है। नहीं तो उसका नसीब इतना बुरा भी नहीं था । नसीब ही बुरा होता तो हीरे जैसा इतना प्यार करने वाला पति, जिसको कोई भी व्यसन ना हो, उसके भाग्य में होता क्या ? बेटी भी कितनी प्यारी थी। क्या उसकी नजर लग गई दोनों को ? उसकी नजर खराब हो सकती है पर नसीब खराब तो नहीं था।


"काकी ! सुनो ना, देखो, मैंने तीनों किताबों से पढ़कर इसका उत्तर लिखा है। "निष्काम और समर्पित कर्म ही धर्म है। कर्म अनिवार्य है। कर्म किसी व्यक्ति की शारीरिक तथा मानसिक क्रिया का परिणाम है। आसक्ति और अहंकार से किए गए कर्म व्यक्ति को जगत के बंधन में बांधे रखते हैं, जबकि कर्म का उद्देश्य मोक्ष या परम पद प्राप्त करना होना चाहिए। कर्म भी आत्मा की तरह नश्वर हैं। यह हर जन्म में संचित होते जाते हैं। भाग्य का निर्धारण कर्म के आधार पर होता है । अच्छे कर्म नैतिक जीवन जीने की प्रेरणा देते हैं। अच्छे संचित कर्मों से अच्छा और बुरे संचित कर्मों से बुरा भाग्य बनता है।"


क्या यही उसके विचारों का उत्तर नहीं है ? शायद उसके संचित बुरे कर्म ज्यादा थे। अब उसे और अच्छे कर्म करने होंगे। जिससे उसके संचित बुरे कर्म इसी जन्म में भोगकर वह मोक्ष की तैयारी कर सकें ।


"काकी कैसा लिखा है ?"


"तुम तो बड़ी समझदार हो। चलो अभी इसे इंग्लिश में लिखने की कोशिश करो। जहां गलत होगा, मैं बता दूंगी ।" लतिका लिख रही थी वहीं हेतल किताब में हाथ में पकड़े, उसके पन्ने यूँ ही पलटते जा रही थी । एक पन्ने पर नजर टिक गयी। वहां लिखा था "हम जितना लिखवा कर लाते हैं उतना ही भोगने को मिलता है।" हेतल सोचने लगी, 'इस हिसाब से उसकी बेटी अपने नसीब में साइकिल और पिंक फ्रॉक नहीं लिखवा कर लायी थी। जितना उसके हाथ में था उसने किया। जो नहीं कर पाई उसका शोक मनाने के बजाय वह भगवान का नाम लेते हुए कुछ अच्छे कर्म करे । हेतल गीता को हाथ थामे सोच रही थी कि एक नन्ही बच्ची गीता पढ़कर इतनी समझदारी भरी बातें कर सकती हैं तो उसे भी गीता पढ़नी चाहिए। गीता पढ़ने से मन के विचारों को विश्राम मिलता है।


भगवद् गीता एक पुस्तक नहीं पाठशाला है जीवन मूल्यों की। सीखना चाहे तो एक जीवन भी कम है, धारण करना चाहे तो सिर्फ मन के दृढ़ संकल्प की आवश्यकता है। भगवद् गीता कहती है, यह संसार मिथ्या है। जो आया है उसका जाना तय है। शोक, मोह, अहंकार, कायरता और लोभ से परे रहकर समर्पित भाव से बिना फल की इच्छा से कर्म करना चाहिए। सच्ची खुशी भौतिक नहीं मानसिक होती है। अब वह मन के दृढ़ संकल्प से यह शिक्षाएं जीवन में लागू करने की कोशिश करेगी।


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