Arunima Thakur

Abstract Romance Classics

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Arunima Thakur

Abstract Romance Classics

राखी मेमोरीज

राखी मेमोरीज

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'राखी मेमोरीज' प्रतियोगिता का शीर्षक पढ़ते ही रक्षाबंधन की यादों ने एक दूसरे को टहोकना (कोहनी मारना) शुरू कर दिया। जैसे लड़कियां कोंचती है ना एक दूसरे को कुहनी कुछ 'वह वाली बात' बताने के लिए। बात चालीस साल पहले की है। गाँव में हमारा बहुत बड़ा संयुक्त परिवार था। नहीं नहीं संयुक्त नहीं एकत्रित परिवार था। अलग लग रहा है ना पढ़कर ? वास्तव में एक बहुत बड़े से घर में सबके अपने-अपने हिस्से थे और अपने-अपने रसोई घर। सब साथ रहते हुए भी अलग-अलग थे या कह लीजिए अलग-अलग रहते हुए भी साथ थे। परिवार के लोगों में एकदम पड़ोसियों जैसा प्यार, अनुराग था। खैर बड़ों के बीच में रिश्ते कैसे भी थे इसका हम बच्चों से कोई लेना-देना नहीं था। हमारे लिए सारे घर एक थे या यूँ कहे कि बड़ी पीढ़ी का असर हम पर नहीं था। हम चचेरे भाई बहनों में बहुत अनुराग था।

मेरे एक भाई जिसका नाम मिंटू (घर का नाम ही लिख रही हूँ। असली नाम की कोई जरूरत ही नहीं है) था, वह उम्र में लगभग मेरे बराबर ही थे। शायद छः आठ महीने बड़े, पर मैं उनको नाम से ही बुलाती थी। हाँ कभी कुछ काम होता तो दादा, भैया कह देती, वरना पूरे समय नाम से ही बुलाती। वह बचपन से ही पढ़ने में बहुत तेज थे। हम गाँव में रहते थे। गाँव में आठवीं के बाद स्कूल नही था तो वह अपनी पढ़ाई अपने नाना के घर रहकर किए थे। अभी दो सालों से उच्च शिक्षा के लिए बाहर हॉस्टल में रहते थे। वह हम सबके ही बहुत ही प्रिय थे। काफी सालों से रक्षाबंधन पर उनका घर आना लगभग ना के बराबर था। क्योंकि पढ़ाई के सत्र जुलाई से शुरू होते थे और रक्षाबंधन अगस्त में आता था। तो गर्मी की छुट्टियों के बाद जुलाई में जाकर वापस अगस्त में आना संभव नहीं था। चालीस साल पहले तो बिल्कुल भी नहीं, यात्रा के संसाधन इतने अधिक सुलभ और सुगम नहीं थे। तो मैं सालों से उनकी कलाई पर राखी नहीं बाँध पाई थी। जब वह जुलाई में जाते थे, सारी बहनें तभी उनको राखी पकड़ा देती थीं या फिर हम चिट्ठी के साथ राखी भेज देते थे। मुझे चिट्ठी लिखने का बहुत शौक था। मैं चिट्ठी के द्वारा उनके संपर्क में रहती थी। इस बार भी वह जुलाई में चले गए थे पर सत्र में कुछ देरी होने के कारण या शायद तीन-चार छुट्टियां एक साथ पड़ रही थी, याद नहीं क्या कारण था उन्होंने मुझे पत्र में लिखा कि वह इस बार रक्षाबंधन पर घर आने वाले हैं। मैं तो बहुत ही खुश हो गई। इतने सालों बाद भाई को राखी बांधने को मिलेगा।

 राखी के दो दिन पहले वह आ गए थे। उनके साथ उनके दो दोस्त भी थे। मिंटू उन्हें सर कह कर बुला रहा था। मैंने पूछा भी "मिंटू यह तो तुम्हारे दोस्त है तुम इन्हें सर क्यों कह रहे हो? तो वह बोला, "यह मेरे रूममेट है। यह मेरे सीनियर है। जब मैं नया था तब इन्होंने मेरी बहुत मदद की थी। इनको गाँव देखना था। इन्होंने कभी गाँव नहीं देखा है। इन्होंने कभी ताल से मछली नहीं पकड़ी है। गाँव के लहराते हुए खेत और बाग नहीं देखे है। तो मैं इन्हें अपने साथ लिवा लाया। अब कल रक्षाबंधन के बाद परसों से नॉनवेज खा सकते हैं ना तो मैं इनको लेकर के ताल पर जाऊँगा मछलियां पकड़ने।"

 मैं कूद पड़ी, "मिंटू मैं भी आऊँगी।"

वह मुझे चिढ़ाने लगा, "नहीं नहीं तू आएगी तो ताल खाली कर देगी।"

 उसके सीनियर्स हमें लड़ते देखकर मुस्कुरा रहे थे। उनमें से एक ने मिंटू से इशारों में कुछ पूछा। तो मिंटू ने कहा मेरी यह बहन मछली की बहुत शौकीन है।" 

खैर वह दिन तो पूरा साइकिल चलाने में कैरम खेलने में, पकड़म पकड़ाई खेलने में बीत गया। आप को विश्वास नहीं हो रहा है ना पर सच में हम सारे भाई-बहन रात को एक साथ खेलते थे। सॉरी बहने नहीं, बड़ी बहनें अंदर ही रहती थी, नही उन पर कोई बंदिश नही थी बस शायद खेलना उन्हें पंसद नही था या शायद ससुराल से आई बुआ और बड़ी बहनों से बात करने का चाव ज्यादा होता होगा। वह सिर्फ लुका छुपी में साथ देती थी। यहाँ तक की चाचा और बुआ भी बच्चों को खेल में बच्चे बन जाते थे। शाम को जो हुड़दंग होता था कि क्या बताऊँ, सिर्फ यादें ही शेष है। कभी-कभी दया आती है आज के बच्चों पर इन्होंने वह सब नहीं देखा, वह बचपन नही जिया। पता नहीं कौन जिम्मेदार, हम ? या यह समाज ? 

सॉरी सॉरी मैं कहानी से भटक गई। हाँ तो दूसरे दिन मैं सुबह से ही नहा धोकर तैयार हो गई। चौक पूरा, उस पर अनाज रखा,पाटा रखा। थाली सजाई, सब तैयारी की। घर के बड़े आंगन में हम सब बहन भाई एक साथ ही रक्षाबंधन का त्यौहार मनाते थे। मैं सभी भाइयों बहनों में लगभग बीच की थी तो चौक पूरने का काम मेरे जिम्में ही था। सच्ची कहूँ वास्तव में बड़ी बहनें एक दिन पहले घर पर ही मिठाई बनाती थी, पेड़ा, बर्फी, रसगुल्ला आदि और छोटी बहनें रक्षाबंधन वाले दिन भाग भाग कर सबको पानी देना, नाश्ता देना, यह सारे काम करती थी। मैं बहुत सयानी थी इसलिए मैंने चौक पूरने का काम पकड़ लिया था। मुझे कलाकारी का शौक भी था और इसमें काम भी कम करना पड़ता था। तो चौक पूरना, थाली सजाना, यह सब काम मैं खुशी-खुशी कर देती थी।

शायद मैं अति उत्साहित थी तो ध्यान नहीं दिया कि अभी सुबह के आठ ही बजे थे और रक्षाबंधन वाले दिन तो भाइयों के नखरे देखने वाले होते हैं। हम बहने नहा धोकर तैयार थे और भाइयों का इंतजार कर रहे थे। हम हमेशा सबसे बड़े भाई से ही शुरुआत करते थे। सबसे बड़ी बहन राखी बाँधती फिर हम सब बहनों का एक-एक करके नंबर आता। थोड़ी देर बाद थोड़ा हम बहनों की चिल्लम चिल्ली करने पर थोड़ा ताई जी की डाँट सुनकर एक-एक करके सारे भाई आकर वही आँगन में बैठ गए। मिंटू के दोस्त अरे सॉरी सीनियर भी आ गए थे। मिंटू ने बोला, "अनु इन लोगों को चाय पिला दो।"

 मैं एक नंबर की कामचोर, मुँह बनाकर बोली,"आज रक्षाबंधन है। जब हम बहने राखी बाँधे बिना कुछ नहीं खाती हैं तो तुम लोग राखी बन्धवाये बिना चाय कैसे पी सकते हो। बैठो चुपचाप, भाभी ने चाय चढ़ाई हुई है। फटाफट राखी बंधवा लो फिर चाय पीना।" पिंटू कुछ बोलने को हुआ तो उन लोगों ने उसको हाथ के इशारे से ना बोल दिया। मैंने देखा पर मुझे क्या पड़ी थी ? कंधे उचका कर मैं हट गई वहां से।

 हम बहनों ने एक-एक करके सारे भाइयों को राखी बाँधी। मिंटू का नंबर भी आया। इतने सालों बाद मिंटू की कलाई पर राखी बाँधते वक्त हम सब बहनों और मिंटू की आँखों में भी आँसू थे। सच में अब त्योहारों में वह भाव ही नहीं रहे। मुझे नहीं लगता है आज कोई भाई या बहन रक्षाबंधन को इतनी गंभीरता से लेता है ? हाँ ठीक है, बंधवाया तो बंधवाया, नहीं तो नहीं। मैं खुद नहीं ले पाती हूँ। सालों से भाइयों को राखी नहीं बाँध पाई तो क्या ? तो कुछ नहीं। उम्र के साथ-साथ त्योहार का चाव भी खत्म हो गया है। 

देखो मैं फिर कहानी से भटक गई। हाँ तो हम सब ने सब भाइयों को राखी बाँधी। सब भाई वहीं पर आँगन में जमीन पर पसर कर बैठ गए। छोटी बहनें उनको चाय और नाश्ता दे रही थी। तभी मेरी नजर मिंटू के दोस्तों की सूनी कलाई पर पड़ी। मुझे बुरा लगा, देखो ना बेचारे! इतनी सारी लड़कियों के होते हुए भी सूनी कलाई लिए घूम रहे हैं। मैंने कहा, "चलिए आप लोग भी राखी बंधवा लीजिए।" वह कुछ बोलते इससे पहले मिंटू बोल पड़ा, "नहीं नहीं उनको राखी मत बांधों।"

" क्यों ? ऐसे राखी के दिन सूनी कलाई अच्छी नहीं लगती है। मिंटू तू भी ना ! आइए मैं बाँधती हूँ।" वह संकोच कर रहे थे। मैं मुस्कुरा कर बोली, "अरे डरिये मत, मैं राखी बांधने पर पैसे नहीं मांगूंगी।" मैं लगभग जिद पर आ गई थी। तब से ताई जी आकर बोली, "अनु! तुम जाकर किचन में देखो। भाभी को कुछ मदद चाहिए। राखी ही बांधनी है ना, बिट्टू (मुझसे छोटी बहन) बाँध देगी।"

"क्यों बिट्टू क्यों बाँधेगी ? मैंने कहा था, मैंने याद दिलाया, तो इनको राखी तो मैं ही बाँधूगी।" ताई जी मेरा हाथ पकड़ कर लिवा ले गयी, "बोली बिल्कुल ही बौडम है यह लड़की।" अब मेरी समझ में नहीं आ रहा था यह क्या हो रहा है। हमें तो राखी वाले दिन दूध वाले, पेपर वाले, सब्जी वाले सब कोई राखी बाँधनी होती थी। मेरे यह सोचते भर में ताई जी मुझे ले जाकर के भाभी के पास खड़ी कर दी। भाभी रसोई घर से सारी बातें सुन रही थी। वह बोली, "पागल लड़की तुम्हें मालूम है? तुम किसको राखी बांधने जा रही थी।"

 मैं बोली,"हाँ मिंटू के सीनियर लोगों को।"

वह बोली, "पगलैट! उनसे तुम्हारी शादी की बात चल रही है।"

 मैं आश्चर्य से बोली, "दोनों से?"

 भाभी अपना सिर पकड़ कर बोली, "अरे पगला! अपनी जात वाले हैं। लड़के अच्छे हैं। दोनों जगह बात चल रही है। जहां पक्की हो जाए।"

 मैं कमर पर हाथ रख कर बोली, "तो मुझे क्यों नहीं बताया।"

 भाभी बोली, "पागलों से पूछ कर कोई थोड़ी ना कुछ करता है। अब देखो लड़कियां शादी का नाम सुनकर शर्मा जाती है और तुम हो कि सवाल जवाब किये जा रही हो।"

 अब सच्ची कहूँ शर्म तो मुझे भी आ रही थी पर खिसियाहट उससे ज्यादा थी। मैं सोच रही थी न जाने वह दोनों लड़के मेरे बारे में क्या सोच रहे होंगे। कल से तो मैं उनके साथ ही उछल कूद रही थी। तभी बता देना चाहिए था तो जरा सभ्यता से व्यवहार करती। वैसे तो मैं अपने आप को बहुत तोप समझती थी पर उसके बाद पूरा दिन मैं उन दोनों से आँखे नहीं मिला पाई। दूसरे दिन मछली पकड़ने ताल पर भी नहीं जा पायी। मिंटू ने कितना कहा, "चल ना"। पर जब एक बार पता चल जाए तो एक संकोच सा तो आ ही जाता है मन में। सच्ची बताऊँ जिंदगी में पहली बार घर में मछली बनी थी और मैं नहीं खा पाई। पता नहीं क्यों पर जब तक वह लोग चले नही गए, दिल में एक अजीब सी घबराहट हो रही थी। 

वह रक्षा बंधन तो भुलाए से नहीं भूलता है। और ना ही मेरे पतिदेव मुझे भूलने देते हैं। मुझे लगता है बताने की जरूरत नही। उस दिन जिन से मैं राखी बंधवाने की जिद कर रही थी बाद में उनसे ही मेरी शादी हुई। मैं कहती भी अजीब चक्रम हो, लड़की देखने कोई रक्षाबंधन के दिन आता है। मेरे पतिदेव कहते, मुझे भी कहां मालूम था साले साहब (मिंटू) मछली पकड़ने के बहाने हमें ही पकड़वा देंगे और मुझे चिढ़ाते हुए कहते हैं, "फँस गया यार! तुमने तो मुझे बचाने की बहुत कोशिश की थी। काश उस दिन अगर राखी बंधवा ली होती तो बेहतर होता।"


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