Arunima Thakur

Abstract Inspirational

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Arunima Thakur

Abstract Inspirational

बंधन कच्चे धागों का

बंधन कच्चे धागों का

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बच्चों के कमरे से जोर-जोर से बोलने की आवाज़ें आ रहीं है। पता नहीं झगड़ रहें हैं या बातें कर रहें हैं। हमारा जमाना तो हैं नहीं कि जरा सा ऊँचा बोलते ही दादी-ताई टोकती थी । आज के एकल परिवारों में दादी-ताई तो है नहीं बच्चों को डाँटने, संस्कार देने के लिए I माँ-बाप बिचारे सारे दिन के बाद बच्चों से मिलते हैं तो उन पर लाड लड़ाए या संस्कारों की डॉट पिलाएं ।

 जो भी हो अभी आवाजों की स्पष्टता बढ़ गई है । बेटा जोर - जोर से बोल रहा है, इस बार तू मेरे लिए वही सड़ी सी धागे वाली राखी मत लाना, सोने का ब्रेसलेट ला और बेटी बोल रही है तुम भी कोई ड्रेस या चॉकलेट का गिफ्ट पैक मत पकड़ा देना नया मोबाइल चाहिए | मेरा पारा चढ़ गया। त्योहारों को, रिश्तों को लोग पैसे से क्यों तोलते हैं ? मेरा मूड खराब देखकर बच्चे सहम गये । समझ ही नहीं पाए कि आखिर हुआ क्या ? समझ तो आज तक मैं भी नहीं पाई हूँI दो दिन बाद राखी का त्यौहार है। मैं उस उत्साह से अछूती क्यों हूँ। अभी परसों की बात है बेटी पूछने लगी, "माँ आप मामा लोगों को राखी क्यों नहीं भेजती ?"

हुँह राखी क्या है ? एक धागा ही तो है ।भेजा, नहीं भेजा । अब रिश्तों में वह मधुरता कहाँ रह गई है ? ऐसा लगता भी नहीं कि किसी को मेरी राखी का आतुरता से इंतजार होगा। ऐसा नहीं है कि मेरे भाई नहीं है या मुझे मानते नहीं है । मेरे मामा, चाचा, सगे सब मिलाकर सत्रह भाई हैं । सब मुझे मानते भी बहुत है । बहुत सालों तक मैं उन सब को बहुत उल्लास से राखी बाँधती थी या यूँ बोलो की माँ बँधवाती थी । माँ सभी त्योहारों को बहुत उल्लास से मनाती । दीवाली पर नए कपड़े, पटाखे, मिठाइयाँ, पूजा का सामान चाहिए ही चाहिए । होली पर नए कपड़े, मेहमानों की आवभगत, रंग ,अबीर, गुलाल, पिचकारी इन की लंबी लिस्ट। नवरात्रि पर पूजा होम , पंडित जी की दक्षिणा , घी, मेवे , इन सबके साथ पापा का निरीह सा चेहरा । नहीं, हम गरीब घर के नहीं थे , अच्छे खाते-पीते परिवार से थे, जहाँ आमदनी थोड़ी सीमित थीं। कमी नहीं थी पर हाथ खोलकर खर्च सम्भव नहीं था । माँ पूरे साल या यूँ बोलो तो पूरी जिंदगी उसी सीमित आय में गुजारा करती । पर त्यौहार के समय उन्हें शायद लगता कि उनके बच्चे चाचा-ताऊ के बच्चों के सामने हीन भावना महसूस ना करें I क्योंकि वहाँ कमानेवाले भी ज्यादा थे और आमदनी के स्त्रोत भी । जो भी हो इन त्योहारों की लंबी लिस्ट में मुझे लगता था पापा की खुशियाँ कहीं दब जाती थी। मुझे लगता था कि यह हाल सिर्फ मेरे घर में ही नहीं हर घर में होता था कि अभी दस - पन्द्रह लोग आकर राखी बाँधेगी, सबको कुछ न कुछ देना पड़ेगा । दस - दस रुपये भी दिया तो दो सौ रुपये गये। क्योंकि हम जब सज-धज कर राखी की थाली लिए भाई को टीका करने जाते, तो राखी बाँधने के बाद चाची, भाभी द्वारा थाली में दस का नोट रखना , कहीं अंदर तक शर्मिंदगी का एहसास करा देता। ऐसा लगता था कि मैं अपने भाई को राखी बाँधने नहीं गयी हूँ । मेरा मकसद सिर्फ वो पैसे झपट कर लाना है ।

 

मुझे आज भी वह एहसास रक्षा बंधन में खुश नहीं होने देता, जहां राखी बाँधने के बाद लोगों को लगता है कि अब कुछ देना पड़ेगा। राखी बाँधने के साथ बहन को दी गई भाई की प्यारी सी मुस्कान और बहन के सिर पर प्यार भरा हाथ ही बहन के लिए सबसे बड़ा तोहफा होता है ।पता नहीं किस नासमझ ने यह पैसे की प्रथा प्रारंभ की।

खैर यह सब बातें मेरी भोली सी माँ की समझ में नहीं आती । वे तो राखी के दिन घर आने वाले हर शख्स को राखी बाँधने को कहती | मेरा बाल मन इसके लिए कदापि तैयार ना होता कि कैसे नौकर को, दूधवाले को, अखबार वाले को मैं राखी बाँधूँ ? पर माँ बँधवाया करती । कालांतर में बड़ी होने के साथ इसमें और लोग भी जुड़ गए, मेरी कामवाली के दो छोटे-छोटे बच्चे । उनकी बहन नहीं थी तो वह भी आकर मुझसे राखी बँधवाते । मुझे उन्हें राखी बाँधना अच्छा तो नहीं लगता था, पर बुरा भी नहीं लगता था , क्योंकि राखी बाँधने के बाद वह मुझे कुछ देते नहीं थे। मैं उनके लिए अलग से बड़ी-बड़ी राखियाँ और मिठाई के डिब्बे लाती ।

 

राखी के दिन सभी भाइयों को मालूम था कि मैं राखी बाँधे बगैर कुछ खाती नहीं हूँ तो भी वह दस - ग्यारह बजे तक हमें परेशान करते कि आज तो हमारा दिन है थोड़ा इंतजार करो । वहीं वे दोनों सुबह से ही सज-धज कर आ जाते। मन में थोड़ा संकोच होता, अपने भाइयों को राखी बाँधे बगैर इनको पहले राखी कैसे बाँधूँ । पर वो चुपचाप बैठे इंतजार करते फिर राखी बधँवा कर खुश हो कर चले जाते । मुझे लगता उनकी खुशी शायद डिब्बा भर मिठाई मिलने की होती होगी । फिर मेरी शादी हो गई और मै माँ के पते पर सब भाइयों के लिए और उन दोनों के लिए भी राखी भेजती रहीं। कुछ सालों बाद कामवाली ने हमारे घर का काम छोड़ दिया। उसके पति को कहीं बाहर नौकरी मिल गई थी ।

 

अब तो मैं अपने भाइयों को भी राखी नहीं भेजती हूँ। साफ-साफ बोल दिया है जिसको मुझसे स्नेह हो वह मेरी ससुराल आकर राखी बॅंधवायें । मैं इतनी दूर परदेश में हूँ कि बाकी बहनों के यहाँ तो भाई लोग पहुँच भी जाते हैं ,पर मेरे यहाँ तक कोई आ भी नहीं पाता है । फिर भी मुझे बुरा नहीं लगता है मन में प्रेम रखें यही बहुत है ।

हर बार की तरह राखी के दिन सुबह उठकर चौक पूरा , थाली सजाई , पूरी तैयारी की। मेरी बेटी जब आँख मलती हुई , उठकर आई तो हँसते हुए बोली थैंक्यू माँ आपने मेरे लिए पूरी तैयारी कर दी। मैं जाकर भाई को जगाती हूँ । मेरे लिए. . . ? नासमझ नहीं समझती हमारी पूजा में एक मानस पूजा का विधान भी है । भले ही मेरा कोई भाई सामने हो या ना हो मैं मन में विचार करके गणेश जी, हनुमान जी को राखी बाँधकर दिल को तसल्ली दे देती हूँ कि इसका स्पर्श सब भाइयों की कलाइयों तक हो आया होगा ।

 

ग्यारह बजते, लड़ते-झगड़ते दोनों भाई-बहन का राखी का कार्यक्रम संपन्न हुआ | बेटा अपने दोस्तों के साथ बाहर निकल गया । पति शहर से बाहर थे, अपनी बहन से राखी बँधवाने गए थे। हम माँ बेटी काफी के मग के साथ बाहर होने वाली हल्की-हल्की बारिश का मजा ले रहे थे । अचानक मेरी बेटी बोली, "चलो न माँ डैम देख कर आते हैं। सभी बोल रहे हैं ओवरफ्लो कर रहा है। आसपास का नजारा भी अच्छा है । मालूम है वहाँ पर काफी भीड़ भी रहती है चलो ना माँ । घर पर बैठे रहने से अच्छा है जाकर आते हैं।" हम दोनों स्कूटी पर निकल पड़े । सच में रिमझिम बारिश की फुहारों में भीगना और डैम का सौन्दर्य शानदार था । हमने बहुत एंजॉय किया । त्यौहार का दिन था तो वहाँ ज्यादा लोग नहीं थे। इक्का-दुक्का दुकानें, खोमचे वाले और एक लारीवाला I देख कर थोड़ी दया आयी कि आज त्योहार के कारण कोई नहीं आया तो बिचारों की कमाई भी नहीं हुई। बेटी मेरे मन की बात समझते हुए बोली, "त्योहार नही , भारत पाकिस्तान मैच है आज इसलिये भीड़ नहीं है। अचानक लगा कि एक लॉरीवाला हमें देख रहा है । थोड़ा डर लगा। हम वहाँ से निकल पड़े । वापसी में आते वक्त बारिश कुछ ज्यादा ही तेज हो गई थी । सामने का कुछ भी दिख नहीं रहा था । मेरा मानना था कि दो मिनट रुक कर बारिश खत्म होने का इंतजार करते हैं। बेटी का कहना था कि जब तक इंतजार करेंगे तब तक तो घर पहुँच जाएँगे । तभी अचानक पानी से भरे एक गड्ढे के कारण स्कूटी फिसली। मैं यहां गिरी, बेटी थोड़ी दूर पर, स्कूटी आगे एक पेड़ से टकरा गई । मैंने देखा पत्थर से सिर लड़ने के कारण बेटी के सिर से खून निकल रहा था । वह बेहोश थी । स्कूटी का अगला पहिया टेढा हो कर फँस गया था और चलने की हालत में नहीं था। मोबाइल निकालकर बेटे को फोन लगाना चाहा तो नेटवर्क कवरेज नहीं था । इस हालत में कुछ सूझ नहीं रहा था तभी पीछे से वही लारीवाला आता दिखाई दिया । हमें देखते ही दौड़कर हमारे पास आया । उसने मुझसे कुछ पूछा भी नहीं बस देखते ही देखते मेरी बेटी को उठाकर लॉरी पर लिटाया, उस पर रखे सामान की चिंता किए बगैर । बोला दीदी आप परेशान मत हो मैं संभालता हूँ । जोर से लॉरी धकेलता हुआ आँखों से ओझल हो गया । मैं कुछ समझ ना पाते हुए उसके पीछे पीछे भागी । पता नहीं कौन था ? मेरी बेटी को कहाँ ले गया ? कितना चली कितना भागी यह तो याद नहीं ,पर काफी आगे जाने के बाद एक हॉस्पिटल के बाहर वही लॉरी खड़ी दिखाई दी । मैं बदहवास भागती हुई अंदर गई वह काउंटर पर ही खड़ा था कुछ फॉर्म भर रहा था । डॉक्टर ने पट्टी वगैरह मार दी थी। मेरी बेटी को होश तो नहीं आया था पर वह खतरे से बाहर थी। मैंने उसको धन्यवाद दिया। तो वह बोला दीदी धन्यवाद की क्या बात है अपनी भाँजी के लिए इतना तो कर ही सकता हूँ। मैं अपलक उसे देखती रही । मैंने कहा मदद करने के लिए बहुत-बहुत धन्यवाद । आपको शायद कोई धोखा हुआ है या पहचानने में कोई भूल, मैं आपको नहीं जानती। वह हँसा और बोला, "वह तो मैं समझ ही गया था कि आप मुझे नहीं पहचान पा रही है । मैं डैम पर बार-बार आपको देख कर यही तसल्ली तो कर रहा था कि आप अनु दीदी ही हो ?" अनु इसे तो मेरा नाम भी मालूम है। वह मुस्कुराते हुए बोला, "मैं हूँ रघुवीर आप की कामवाली का छोटा बेटा । मैंने आपसे राखी बँधवाई है। मैं भला आपको कैसे भूल सकता हूँ।"


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