राज बोहरे

Abstract

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राज बोहरे

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गाड़ीबाजी

गाड़ीबाजी

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 रामबरन ने ट्रक का दरवाजा खोला और ऊपर चढ़ गया। स्टेयरिग के ऊपर रखी साफी से उसने अपनी सीट, हैंडिल और स्टेयरिगं पर जम गई धूल झटकारी पीछे की स्लीपर पर कल्लू गुड़ी-मुड़ी होकर सोया पड़ा था। रामबरन ने उसे झकझोर कर जगा दिया,। कल्लू कुछ बुदबुदाते हुए कसमसाया, फिर आप ही उठकर बैठ गया । आँखें मिचमिचाते हुए उसने अपने उस्ताद को देखा । फिर आदत के मुताबिक अपनी तरफ का दरवाजा खोला और ट्रक से नीचे कूद गया ।    

   

पहियों की हवा देखने के वास्ते अपनी नन्ही हथेली से टायरों को ठकठका कर ठोकते हुए जब उसने ट्रक का बांये से दांये तक पूरा चक्कर लगा लिया, तो साफ्ट को देखने नीचे घुस गया ।

 इधर रामबरन जेब में अपनी चाभी तलाश करने लगा था ।

 बाल्टी में रखे पानी में से चुल्लू भर कर अपने मुह पर दो-चार छींटे मारने के बाद जब कल्लू इंजन में पानी डाल चुका तो रामबरन ने इग्नीशन में चाभी उल्टी ओर घुमा दी ।


 अरे रे रे.... ये क्या? चाभी पूरी घूम गई ! ...और इंजिन में कोई हरकत नहीं । रामबरन का माथा ठनका, ठाकुर साहब ने ट्रक में एकदम नई बैटरी रखवाई है, फिर सैल्फ खराब कैसे हो गया ? सहसा विश्वास नहीं हुआ तो दूसरी बार, तीसरी बार ... बल्कि कई-कई बार गाड़ी स्टार्ट करने की कोशिश की और स्टार्ट नही हुई, तो रामबरन को ताव आ गया- साली ये गाड़ी भी पूरी नखरैल है, हमेशा कुछ-न-कुछ नखरे दिखाती रहेगी । दो घण्टे पहले - रात आठ बजे - उसने ढाबे पर आकर गाड़ी रोकी थी कि दस मिनट में वह चाय पी लेगा, और गाड़ी ठण्ड़ी हो जाएगी । तब ऐसा एहसास होता तो पल भर को भी न रुकता । अब गाड़ी आगे बढ़ना ही नही चाहती ! रात के सिर्फ दस बजे हैं । लेकिन सन्नाटा पसर गया है रोड पर । कभी-कभार कोई गाड़ी आती है, और यहां रुकती भी नहीं, भर्र से निकल जाती है । ...किसे दिखाये वो अपनी गाड़ी का इंजिन ? ऐसे वक्त भला मिस्त्री-मैकेनिक भी कहाँ धरा है ? ...आशा की एक किरण भर बाकी है, धक्का लगाने से कुछ काम बन सकता है ! ...मगर बारह टन आलू से लदी ऐसी भारी गाड़ी जब तक आठ-दस आदमी न हो, कैसे सरकेगी ? आज मौसम की खराबी के कारण ढाबा भी सुनसान है, नहीं तो यहीं चार-छह गाड़ियां खड़ी रहती हैं और दस-बारह आदमी का स्टाफ हर बखत हंसता-खिलखिलाता बैठा मिलता है ।


अपनी सीट से सरककर वह इंजन के सामने जा बैठा और बोनट उठा दिया । भीतर सब पुर्जे अपनी जगह ठीक हैं । उधर स्टेयरिगं के नीचे की बायरिगं भी अपनी जगह चुस्त-दुरूस्त हैं । फिर क्या चक्कर हुआ ? उसने कल्लू को देखकर गहरी साँस ली, जो उल्लू की तरह आँखें मटकाता उसे ही तक रहा था ।

‘‘चल भाई, धक्का मार नीचे उतरके । ’’

‘‘उस्ताद मैं इकेलो...’’

सच है उसने सोचा, इतनी भारी गाड़ी पन्द्रह-सोलह बरस का यह दुबला-पतला लड़का कैसे धकेलेगा ? अब तो तभी काम बने जब कोई ट्रक वाला ‘टूंचन’ लगाकर उसके ट्रक को धक्का लगाए । आज उसे इस बात पर आश्चर्य है कि कोई जान-पहचान का ड्राइवर भी नही मिल रहा है, नही तो उन साले यूनियन वालों की यह हिम्मत कैसे होती कि वे रामबरन से कुछ ऊल-जलूल बोल पाते । अरे नौ टन लादना लाजिमी करना है, तो मालिको से कहो न, हम ड्राइवर-क्लीनरों से क्यों झगड़ते हो ! यूनियन वाले बिल्कुल बदतमीज हैं । जरा ऊंची आवाज में बात करो तो मारपीट पर आमादा हो जाते हैं । न उमर का लिहाज न बड़े -बूढ़ों की इज्जत । रामबरन को भी कैसी खरी खोटी सुनाई उन्होंने ।

दूर से फिर किसी गाड़ी की हैडलाइट चमकी । रामबरन को कुछ आशा बँधी , उसने कल्लू को टोका-‘‘चल उतर रे , वा गाड़ी आए तो रूकवावे को तरीका निकार , वा ही से धक्का दिलाये लेगें ।’’

 रामबरन का ध्यान कल्लू पर गया , जाने क्यों इस वक्त उस पर खूब तरस आया उसे । गन्दे ,काले और मोबिल ऑइल से चिक्कट हो चुके कपड़े पहने बेचारा यह लड़का बहुत सीधा और विनम्र है, उसके एक-एक हुकुम को दौड़-दौड़ कर पूरा करता है । आज के दूसरे क्लीनर-कण्डेक्टरों को देखो, तो माथा झन्ना जाता है । वे सदा नई-नई डिजाइन के इस्त्री करे कपड़े पहने इतराते घूमते रहते हैं । क्या मजाल कि उनसे एक गिलास पानी तो भरवा लो । कुछ कहो तो चार पकड़ा देंगे उल्टे आपको ।

             रामबरन खुद भी इसी उमर से खलासी बन गया था । सात बहिन - भाइयों में सबसे बड़े रामबरन को हम्माली करते पिताजी ने पन्द्रह बरस की उमर से ही ट्रक पर चढ़ा दिया था , जिससे वह भी थोड़ा-बहुत कमा के घर - गृहस्थी की गाड़ी खींचने में उनकी मदद करे ।

 

      दो - चार दिन तक ट्रक की घर्र-घूं के कारण वह न तो सो पाया, और न हीं बोल - बतिया पाया था । जोर से बोलना उसे नहीं आता था, फिर उस्ताद रामऔतार को भी ज्यादा बोलना अच्छा नहीं लगता था । उनका गुस्सा तो जैसे नाक पर रखा रहता था । कोई गलती क्या हुई कि गाल फरहरा कर देते थे। गाली - गुफ्तार तो बात - बात में करते थे । मगर उसने उन्हें कभी भी पलट कर जवाब नहीं दिया । ...उस जमाने का यहीं प्रचलन था । वैसे रामऔेतार उस्ताद मन से बिल्कुल भोले - भाले थे । ऊपर से कितनी भी गालियाँ दें , भीतर से तो उस पर लाड़ - दुलार की बरसात - सी करते थे वे ।

     गाड़ीबाजी में रहकर बाद में उसने सब बुरी आदतें सीखीं, लेकिन रामऔतार उस्ताद के रहते , वह जैसा - का - तैसा शरीफ बच्चा बना रहा था । ...उनकी मौत के बाद उसे बहुत बुरी सौहबत मिली । तब गाड़ी पर मनजीता ड्राइवर था । उसी ने बीड़ी - तम्बाकू और दारू से लेकर रंडी बाजी तक सिखा दी थी । मनजीता हमेशा गन्दी गालियाँ बकता रहता था । छोटी-मोटी गलती पर हाथ भी चला बैठता था । आदमी भी विश्वासी नहीं था मनजीता ! एक घटना याद आई,...उन्हीं दिनों की बात है । एक बार मुरैना से भिण्ड आते समय रात ज्यादा हो चली थी, कि बीहड़ों के इलाके में एक सुनसान जगह रोड पर खंडा पड़े देख मनजीता कंपकपां गया । ऊपर से लहीम - शहीम दिखता छह फुटा मनजीता बुरी तरह रिरिया उठा था , और सत्रह साल का दुबला-पतला रामबरन अकेला ही खंडा हटाने सड़क पर उतरा था उस वक्त

              खंडा हटाकर उसे गाड़ी में चढ़ने का मौका भी नहीं मिल पाया, ...साफे से अपना चेहरा छुपाए अचानक अंधेरे में से प्रकट हुए चार - पाँच बदमाशों ने उसे दबोच लिया । डरपोक मनजीता ट्रक लेकर भाग निकला  था, ... रामबरन को असहाय छोड़कर ।

              गश्त पर निकली एक पुलिस टुकड़ी के अचानक आ जाने से उस दिन राम बरन किसी तरह बच पाया था । पुलिस की बदौलत भिण्ड पहुँचा तो तुरंत ही वह अपने गाँव लौट आया - साठ रूपल्ली के लिये कौन जान फँसाए ।    

              पिता ने उस दिन कुछ भी नहीं कहा । बस बेटे की बात सुनी थी- पूरे धीरज के साथ । दूसरे दिन उसे घर की बुरी हालत का वास्ता देकर प्यार से समझाया था और जैसे - तैसे उसे किसी ट्रक पर जाने के लिये मनाया था । तब रामबरन मजबूर सा अपनी कण्डैक्टरी में वापस आ गया था - तनखा में दस रुपये बढ़वाकर । नये ड्राइवर ने उस का ध्यान रखा और उसे गाड़ी चलाना सिखाने लगा था। तमाम कंडेक्टर और ड्राइवर उसके दोस्त बनने लगे थे, जिनके साथ उसके शौक-अहवाब बढ़ने लगे थे ।

              फिर उसकी धीरे - धीरे स्टेयरिंग पर बैठने की हिम्मत बढ़ी थी और जिस दिन लायसेंस बनवाकर रामबरन पूरा ड्राइवर बना , उस दिन उसे अपना ट्रक हवाई जहाज से कम नहीं लग रहा था। कितनी खुशी हुई थी उसे, और उसके मिलने - जुलने वालों को । खुद दारू पी और दोस्तों को भी खूब पिलाई थी उसने । कितने ही दिन इसी मस्ती और खुशी मैं निकल गये थे । रोज - रोज खुशी बढ़ जाती थी । सोचता तो फुरहरी आ जाती, ...दो लाख की गाड़ी अब उसके हाथ में होगी । ...बम्बई से कानपुर के बीच सवारियाँ बिठाने का पैसा उसका होगा । ...नाके - बैरियर वालों और आर. टी. ओ. फारटीओ वालों के हिसाब-किताब उसी के हाथ में होंगे । ऐसी बातें फुला देती थीं उसे ।

              वैसे उन दिनों गाड़ीबाजी में इतने लफड़े न थे । न ज्यादा बैरियर, न रोड पर हर जगह रोक लगी होती थी , न ही ज्यादा ‘ एन्ट्री ’ देनी पड़ती थी तब आज की तरह । अब तो हालत यह है कि पांच मील गाड़ी चलाना मुश्किल है, किसी भी पुलिस थाने या चौकी में कहीं भी सफेद वर्दी का सिपाही खुले आम रोक लेगा और दस-पच्चीस रुपये एन्ट्री लेकर ही हटेगा । हर पच्चीस - तीस मील पर दो - एक सिपाहियों के साथ नया आर. टी. ओ. मिल जायेगा और ड्राइवर की डायरी में एक परची चस्पा हो जाएगी किसी देवता या फूल की तस्वीर वाली । उस इलाके में चलने के लिए महीने भर का परमिट होती है यह परची , कितने ही चक्कर लगाओ छेड़ता नहीं है कोई , उस आर.टी.ओ.के एरिया में ।

              ट्रक ड्राइवरों को तो पहले भी अच्छी नजर से नहीं देखते थे, न बाहर वाले न रिश्तेदार। ...उसे याद है एक बार रामवरन के बहनोई के यहां भतीजे का ब्याह था, जिसमें मण्डप छाने से लेकर बारात को विदा कराके लाने तक बिना किसी किराये के उसकी गाड़ी लगी रही, तो कोई बात न हुई पर घर लौट कर तब जब सब लोग मस्ती के आलम में थे, खुशी में डूब कर उस दिन रामबरन ने थोड़ी सी दारू क्या पी ली, बहनोई के पिता से लेकर तमाम रिश्तेदार तक उसकी थू-थू करने लगे - ‘‘रहेंगे तो आखिर गाड़ी वाले ही । उचक्के साले ! ’’

               सारा नशा हिरन हो गया था उसका, अपनी निस्वार्थ सेवाओं का ऐसा पुरस्कार पाकर।

 हालांकि तब ऐसा संभव था कि दो-चार दिन गाड़ी अपनी मर्जी से यहां-वहां ले जा सकते थे, लेकिन अब गाड़ी बाजी भी ज्यादा खर्चे वाली हो गई है । इतने खर्च बढ़ गये हैं कि जो भुगतता है वही जानता है । एक गाड़ी से दर्जनों लोग पलते हैं । जौंक की तरह खून पीते हैं सैकड़ों लोग, गाड़ी मालिक का । ठाकुर साब परसों ही कह रहे थे कि अब तो छोड़ना पड़ेगी गाड़ीबाजी । जब से नौ टन लादने  का लफड़ा हुआ है, तब से उन्हे ज्यादा परेशानी दिखने लगी हैं । बात भी सच्ची है, खर्चे पूरे-के-पूरे  हैं, मगर भाड़ा घट गया । इस चक्कर में अब परचून का सामान कोई नहीं मँगाता । फुल लोड मँगाते हैं सब ।

 नौ टन माल लादने के कानून की वजह से सबसे ज्यादा नुकसान हुआ है - ड्राइवरों को । सोलह-सत्रह टन वजन की गाड़ी चलाने की आदत के कारण नौ टन वजन में खाली-खाली- सी दौड़ती है । न टूट-फूट, न मैंटेनैंस । पहले सोलह टन माल होता था, और घर से दूर कुछ टूट-फूट हो ही जाती थी, सौ-पचास की बचत हो लेती थी । अपनी किसी गलती से गाड़ी पलटी- उलटी खा जाती थी तो भी ज्यादा चकल्लस न थी । बीमा वालों के आने तक गाडी़ के कुछ नट बोल्ट ठीले कर दो, गाड़ी का माल भी थोड़ा तोड़-फोड़ कर बिखरा दो बस, जरा सी जाँच में क्लेम मिल जाता था । बड़े सेठ और ट्रांसपोर्टर यही कराते थे यही कराते थे, बीमा कंपनियों की बदौलत एक गाड़ी की कितनी ही गाड़ी हो जाती थीं-दो चार बरस के भीतर । मगर अब नौ टन की गाड़ी पलटे भी तो किस आधार पर ? इधर ट्रेफिक पुलिस वाले जल्दी से गाड़ी सीधी कराते हैं और उधर बीमा वालों के आने के पहले गाड़ी सीधी कर देने पर ड्राइवर को मालिक की डँट फटकार खानी पड़ती है । मालिक की तरफ से आने और जाने के लिए हरेक लाइन पर अब खर्च के पैसे भी पूरे हिसाब से मिलते हैं । इसमें घर पर क्या दें, और बाहर क्या दें ?

 

ड्राइवर की जान को हजार मुसीबतें हैं । कितने होटल वालों, कितने ड्राइवरों से दोस्ती निभाना पड़ती है, अब तो रोज - रोज पीना भी मुहाल हो गया है । ऐसे में कोई ढाबे वाली यदि कुछ फरमाइश करे तो अपनी जेब से ही देना पड़ता है । उन्हें निराश भी नहीं किया जा सकता न, क्योंकि घर पहुँचने में कभी - कभी महीने से भी ज्यादा समय लग जाता है । रास्ता चलते घर की खबरें तक दूसरों से मिलती है । जन्म और मौत के समाचार भी नये पुराने हो जाने के बाद मिल पाते हैं । घर में कोई हारी-बीमारी हो या पैसे की तंगी, बस घर वाले अकेले ही झेलते हैं । प्रायः घरवाली से भी महीना-पन्द्रह दिन में मुलाकात होती है । ऐसे में चौके से बाहर हुई तो बात गई अगले चक्कर तक ।

ट्रक ड्राइवर की जिन्दगी बड़ी खतरनाक है । एक्सीडैण्ट से लेकर पहिया बस्ट होने तक हर दुर्घटना में सबसे पहल ड्राइवर जख़्मी होता है, और कभी-कभी तो ...। रामबरन ने इसीलिए तीन उद्देश्य बना लिये अपने--खाना, पहनना और ऐश करना । उसकी लाइन के ढाबों पर जितनी छिनालें हैं, रामबरन को ठाकुर साब कहती हैं शायद उसके खुले हाथ से खर्च करने की आदत की वजह से।


              कई बार तो घर के पास के कस्बे तक आकर भी वह घर नहीं आ पाता । यदि किसी हड़ताल या फिर किसी एक्सीडैण्ट की वजह से चक्का जाम होता है । तो घण्टों में नहीं दिनों में जाकर खत्म होता है । और ऐसे में यदि सब्जी लदी हो तो मण्डी में हाजिर होने की चिन्ता रहती है । समय से पहुँचने का इनाम गया भाड़ में , माल सड़ न जाये यही चिन्ता हड़का देती है । एसी स्थिति में घर के पास से निकल कर भी वह घर नहीं पहुँच पाता, मन मसोस कर रह जाता है । इस वक्त भी घर जाये महीना भर से ज्यादा हो चुका होगा।

              नीचे खड़ा कल्लू कल्लू कितनी ही गाड़ियों को रोकने की कोशिश करता रहा था, मगर कोई रूका ही न था । इस वजह से रामबरन के चेहरे पर खिन्नता के भाव आ गए । रामबरन खुद उतरा और कल्लू के पास जाकर खड़ा हुआ , अपनी गाड़ी की विपरीत दिशा में यानी रोड के उस पार ।

              वह इसलिये भी चिन्तित था कि ट्रकयूनियन वालों के आने की आशंका थी । कुछ दिनों से यूनियन वालों ने नौ टन के लिये ऊधम मचाना शुरू कर दिया है न ! गोल बाँध कर रात-बिरात निकलते हैं , ओवरलोड देखकर ड्राइवर की ख्ंिाचाई कर डालते हैं , और चालान अलग करते हैं -तीन चार सौ रूपये का । यहां से अगर जल्दी नही जा पाये, देर हो गयी तो इस एरिया के यूनियन वाले कभी भी आ धमकेंगे । थोड़ा विवाद तो पहले ही हो गया है, सिरसागंज से बाहर निकलते समय, उधर की यूनियन वालों से ।

              पास आते एक ट्रक को देखकर उसने धरती पर बैठकर हथेली ठोकने का इशारा किया । गाड़ी के पास आने पर उसके ब्रेक चरमराने की आवाज आयी । क्लीनर ने बाहर झाँका--‘‘ क्या है भाई ! ’’

              ‘‘उस्ताद हमारी गाड़ी का सैल्फ बन्द है, थोड़ा टूंचन लगाकर स्टार्ट करवा दो तो बड़ी मेहरबानी होगी।’’ क्लीनर को उस्ताद बोलते हुऐ रामबरन रिरियाया ।

              क्लीनर ने भीतर अपने ड्राइवर से बात की और फिर दरवाजा खोलकर उतरते हुए रामबरन से बोला -- ‘‘ जाओ अपनी गाड़ी में बैठो , हम पुट्ठा लगाते हैं ।’’

              रामबरन अपनी गाड़ी की ओर लपका और उपर चढ़कर लकड़ी का वह टुकड़ा कल्लू को दे दिया जिसे बीच में लगा कर ‘टूंचन’ बनानी थी।

              दूसरे ट्रक को थोड़ा आगे ले जाकर उसका ड्राइवर रामबरन के ट्रक की पिछली साइड तक बैक कर लाया तो कल्लू ने दोंनों ट्रकों के बीच टूंचन फँसा दिया और खुद परे हट गया । रामबरन ने क्लच दबा कर गियर डाला, सहसा पुट्ठे की तरफ से एक जोरदार धक्का लगा और झटके से स्टार्ट हो गयी । कल्लू ने दूसरी गाड़ी के क्लीनर को आँखों ही आँखों में कृतज्ञता के भाव दर्शाकर धन्यवाद दिया । फिर टूचन उठा कर गाड़ी में  आ बैठा ।

              पीछे वाली गाड़ी अपनी दिशा में चली, तो रामबरन ने भी अपनी गाड़ी का गियर बदला और आगे बढ़ा दी ।

              सिरसागंज से भिण्ड ले दे कर सौ किलो मीटर के हेर-फेर में है । मगर उसे सिरसागंज से चले चार घण्टे होने को आए  , अभी मुश्किल से बीस किलो मीटर पहुँच पाया है । दूसरे, मालों में बहुतेरे लफड़े होने से अब वह केवल सब्जी और फल लादकर चलने लगा है ।   ठन्डों में सिरसागंज से आलू लादकर वह भिण्ड -मुरैना -ग्वालियर -इन्दौर से लेकर बम्बई तक जाता है , और गर्मियों में नागपुर या बरूढ़ से सन्तरा लेकर चलता है । निश्चिन्त यात्रा होती है सब्जी के साथ । न टैक्स का झंझट, न ओवरलोडिंग की जाँच- तफतीस । यात्रा में सब्जी हो या दीगर माल , मुसीबतें तो सदा साथ में ही लदकर चलतीं हैं-जौंक की तरह खून तलाशती । जैसे आज चल रही हैं ।

              आज सिरसागंज से चलते ही शाम को इंजन के पंखे का बैल्ट    टूटा । फिर हॉर्न बजना बन्द हुआ और ब्रेक भी जाम हो गये । इसी चक्कर में फालतू समय बर्बाद हुआ सो सिलक में खर्च के दो सौ रूपयों में से पौने दो सौ रूपये चले गये, पच्चीस रूपट्टी बची हैं। अब रात का समय है, जरा देर हो गई तो पुलिस वाले अपनी कार्यवाही शुरू कर देंगे । कहेंगे अकेले मत जाओ कानवाई बनेगी । सुनसान रोड पर कानवाई ( काफिला ) के लिए दस गाडियों का बेडा जाने कितनी देर में जाकर होगा, घण्टा-दो घण्टा पता नहीं । तब तक कौन रूकेगा ? ... पुलिस वालों को दक्षिणा कौन बांटेगा ?

वह भागना चाहता है, क्योंकि आज तो कोई आर .टी.ओ भी मिल सकता है। पिछले दो महीने से किसी से चालान भी नहीं कराया है, अगर कोई मिल गया तो कैसे काम सलटेगा ? उसके मस्तिश्क में तनाव बढ़ता जा रहा था और उसी अनुपात में वह ट्रक की रफ्तार बढाता जा रहा था । यदि यूनियन वालों, कानवाई वालों या आर.टी. ओ.में से कोई मिल गया तो फालतू में दो दिन ख्।डा रहना पडेगा जुर्माने के पैसे लाने , यहॉ तो गिरवी  रखने को स्टेपनी या हाथ की घड़ी तक नहीं है ? हां सिर्फ कोई डाकू गिरोह मिल जाये, तो ही बच सकता है वह, क्यों कि डाकू लोग प्रायः दस पॅाच किलोमीटर का सफर करके भी हजार दो हजार की बख्शीश दे देते हैं ।

       ड्राइवर को सैकडों जगह फजोहत है, हजार दुश्मन हैं उसके ! वह बडबडाया, ट्रक मालिक भी ओैर रास्ता चलता आदमी भी , हरेक आदमी उसी को बुरा बताता है । मालिक एक डेढ हजार तनखा क्या देता है, ड्राइवर को चौबीस घण्टे का नोकर मान लेता है, उल्टा सीधा अलग बोलता है। ड्राइवरों की कोई यूनियन भी तो नहीं है न। खानाबदोश लोगों की कैसी यूनियन ? रामबरन यूनियन बनाने की कहता है तो यही जबाब मिलता है उसे बाकी लोगों की तरफ से ।                    

       कहीं भी जाओ, मालिक पहले ही ताकीद कर देगा । बम्बई से चार दिन में और कानपुर से दो दिन में वापसी होना जरूरी हैाना जरूरी है । अब आप भुगतो कि कैसे आना है । न टूट-फूट हो न भाडे का नुकसान हो, आखिर एक दिन की झाड़ी भी तो पॉच सौ रूपये होती है न ! तीन साड़े तीन लाख की गाड़ी ही पड़ती है आज, इसका ब्याज ही बहुत हो जाता है एक दिन का ।

      रामबरन ने बहुत प्रयास किया कि वह भी चतुर और चालाक ड्राइवर बन जावे, लेकिन वह बदमाशी नहीं कर पाया । न उसने बीच का माल लादा और न माल की हेरा-फेरी की । उसके साथ के ड्राइवर आज गाडी मालिक बने बैठे हैं । जाने इतना पैसा कहॉ से कमाया है ? वह यह तो भली प्रकार समझता है कि आज का जमाना उस जैसे लोगों का नहीं है मगर करे क्या ? बेईमानी-मक्कारी उसके खून में नहीं है । फिर बदमाशी कब तक चलेगी, वो सोचता है- कभी तो पोल खुलती है। जब खुलती है, तब बहुत दुर्गति होती है । फिर कितने ड्राइवर चालू हैं? ...अगुलियेंा पर गिनने लायक ही होगें । उस जैसे तो अपने दिन ही काट रहे हैं । ...बहुत-से तो पन्द्रह रुपया खाना खुराक के ओैर सात-आठ सौ रुपये महीने की तनखा लेकर दिन काटते हैं । कण्डेक्टर -खलाासी तो ओर ज्यादा परेशान हैं उसमें, फिर यदि कल्लू जैसा सीधा हो तो आफत ही होती है । हालांकि यह बेचारा अपनी स्थिति से सन्तुश्ट और खुश है । रामबरन भी सोचता है-इतनी कट गई ,बाकी और कट जाय किसी तरह !                                  

उसे याद आया, ...गाडी का डिपर बहुत कमजोर हो गया हे । पिछली लाईट भी गडबड है । साइड का कांच तो जाने कब झडा था , तब से नया डलवाया ही नहीं गया । कोई आकर पीछे से भिड़ तक जाएगा ओर पता भी नहीं लगेगा । स्टेयरिगं पर बैठ कर वह हर पल डर-डर कर गाडी चलाता है कुछ दिनों से , क्येां कि कुछ लफड़ा हुआ तो ठाकुर साब उस पर ही बुराई का ठीकरा डाल देंगें ।                                सामने दूर कहीं स्थिर खड़ी लाल लाइट देखी ,तो वह सावधान हुआ । क्या पता कोन की गाड़ी है- होंगें कोई यूनियन वाले , कानवाई, आर ़टी ़ ओ ़ या फिर किसी गाड़ी का एक्सीडेण्ट न हो गया हो ! तभी तो बीच सड़क पर एक ही जगह स्थिर दिख रही है ।                        

भिण्ड अभी भी सत्तर किलोमीटर दूर है । वह रफतार नहीं घटाता । गाडी हिचकोले खा रही है , जबकि उसका मस्तिश्क     चकरघिन्नी - सा हो रहा है । कौन से कैसे निपटना है ? ...वह सेाचना चाहता है, मगर एक भी उपाय नहीं सूझ रहा है। ंपों -पों -पों... पीछे की ओर से डिपर मारती कोई गाडी उससे साइड मागती लगातार हार्न भी बजा रही थी । वह अनिश्चय की स्थिति में सीधा ही बढ़ता गया। सामने एक लम्बा मोड़ है और रामबरन ने निश्चय किया कि उसी मोड के पास वाले कच्चे डायवर्सन पर आगे बढ़ जायेगा बीहडों की ओर, वहीं किसी तरह रात बिताएगा ,जो हो सो हो ।

              उसका पैर एक्सीलेटर पर फंसकर रह गया, तो गाडी और रफतार पकडके भागने लगी । चढ़ाई के एन ऊपर उसने क्लिच दबाकर गियर बदलने के लिए राड पकडी और गियर लगाया , मगर गियर नहीं लगा । ऐसा लगा राड कहीं फंस रहा है । उसने पूरी ताकत लगाकर फिर गियर बदलने की कोशिश की । एकाएक इंजन में खड़खड़ की आवाज हुई और राड पूरी तरह फंस -सा गया । लगा कि गाडी पहिए जाम होने लगे हैं , तभी गाड़ी के नीचे जोरदार तड़ाक आवाज हुई । बोनट के अन्दरसे धुऑ की गड्ड- सी निकली । इंजन बन्द होता चला गया और गाडी वैसी ही खिसकने लगी ।                                                  

विवश और निरुपाय रामबरन ने कल्लू की ओर देखा । ऐसी स्थिति में भी उसके मुंह पर मुस्कराहट झलकी । ऊघ्ॅाता- सा कल्लू अधंरे में ही स्लीपर के नीचे के बाक्स में हाथ डालकर टूंचन तलास रहा था ।

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