बदन की मेंहदी का मनडोला

बदन की मेंहदी का मनडोला

18 mins
14.4K


एक बार फिर से उस गांव की यात्रा पर जाने का आदेश हेडक्वार्टर से आया है। और मैं आनंदित हूं कि वह जरूर मिलेगी, उसी तरह से हंसती हुई, मेंहदी लगाती हुई, लहकती लहराती हुई। सारा गांव, उसकी सारी गोइयां उसे छमिया कहती थी लेकिन उसका नाम बेजोड़ था। नाम और नाम की वजह दोनों बेजोड़ लगे। मैं उस दिलचस्प औरत से फिर मिलने को आतुर थी। जैसे ही हमारी हेड राजरानी ने फरमाया, मैंने लपक लिया। स्टेट कोआर्डिनेटर को फोन मिलाया और प्रोग्राम लाइनअप करने को कहा। बिहार के उस अत्यंत पिछड़े गांव में,,,,मेरी दिलचस्पी के लायक चीजें थीं, ये बात दिल्ली आफिस में सबको हैरान करती थी। वीमेन हेल्थ प्रोग्राम के तहत मुझे गांव गांव जाकर भांति भांति की औरतों से मिलने का मौका मिलता है। मगर वह औरत सबसे अलग थी।

याद है उससे पहली मुलाकात। वो हंसी कैसे भूल सकती हूं। एलीफैंटा फाल जैसी शोर करती हंसी वाली स्त्री। वह हंसी जैसे पहाड़ों की ऊंचाई से गिरती हैं, पथरीली ऊसर जमीन पर जहां क्षण भर में दूबें उग आती हैं। वह हंस रही थी या दुनिया तक हंसी का संदेश पहुंचा रही थी, नहीं मालूम। कहां से लाती है ऐसी हंसी हंसने की ताकत? मैं तो इतनी जोरदार हंसी चाह कर भी नहीं हंस पाई। मसालेदार जोक सुनकर भी मुस्कुरा कर काम चल जाता है हमारे उर्वर प्रदेश में। यहां उसकी हंसी मुझे कोसो दूर तक सुनाई देने वाली आकाशवाणी प्रसारण की तरह लग रही थी। उस गांव में सर्वे करने पहुंची मेरी टीम उस हंसी का प्रभाव देख कर हैरान थी। ऐसी हंसी किसी की नहीं हो सकती। न देखा न सुना। हंसी नहीं हथौड़ा थी जो हमारे ठस्स दिमागों पर पड़ रही थी। वह अकेली हंस रही थी और हम सब तमाशबीन थे। साधारण से गांव की एक साधन विहीन स्त्री की हंसी ऐसी होगी,,,कल्पना से परे। क्या यह हमारा मजाक उड़ा रही थी ?  हंसते हंसते उसके हाथ से मेंहदी की पोटली गिर गई थी। क्या यह हमेशा ऐसे ही हंसती है या आज हम मूर्खो को देखकर हंस रही है। बहुत सारे सवाल मथने लगे, उस पल में।

जब उसे पहली बार देखा, वह मठ के बाहर चबूतरे पर अपना आसन जमाए बैठी थी। उसके आस पास और भी गुइयां थीं उसकी। वे सब किसी बात पर खिलखिला रही थीं। मैं उनके पास बैठ गई। मैं उनसे उनके स्वास्थ्य के बारे में बात करना चाहती थी। उस औरत को छोड़कर बाकी सारी दुबली पतली थी। तगड़ी औरत की कदकाठी भी अच्छी-खासी थी। मेंहदी से सने हाथ, पोटली बगल में और  खिलखिलाहटें फिजां में। आते जाते लोग ठिठकते और औरतें, लड़कियां रुक जातीं। गांव में मेंहदी लगाने का नया काम इन चंद औरतों ने लोकप्रिय बना दिया था।

मैंने अपना बायां हाथ बढाया। तगड़ी कदकाठी वाली स्त्री ने मेरी हथेलियां थाम लीं। मजबूत पकड़ थी उन हाथों में। सख्त उंगलियों के बीच फंसी मेरी हथेली पर उसने रुई में भिंगो कर मेंहदी का तेल लगाया। मैं उनसे जान पहचान बढा कर काम की बातें करना चाहती थी। यही तरीका था हमारा करीब आने का।

मैं क्या उससे कुछ पूछती, वह ही चालू हो गई।

“मैडम, आप यहां हम लोगो से मिलने आई हैं ? हम लोगो का हालचाल पूछने आईं हैं। ई त हम लोग विसवास ही नहीं कर पा रहे हैं। ईहां त कोई चुनाव में भी भोट मांगने नहीं आता।“

“काहे,,,?”

“देखा नहीं, रोड कसा है, रोड तो हइये नहीं है। जे बा से इहे खेते खेते खुरपैरिया रस्ते से आना जाना होता है। आप आईं कइसे,,,”

उसकी आंखों में काजल से ज्यादा गहरे सवाल थे।

उसके बगल में बैठी दो देवियां मेंहदी घोलने और कोन बनाने में व्यस्त थीं। उन्हें अपने लिए ग्राहक की तलाश थी। मैं उन सबका नाम जानना चाहती थी। पर ये मेंहदी वाली जान छोड़े तब ना। लगभग पौन घंटा उसने मुझसे तरह तरह के सवाल दागे। मेंहदी लगाती जाती और सवाल पूछती जाती। वह दिल्ली के बारे में जानना चाहती थी। कैसा शहर है ? क्या होता है वहां ? औरतें, लड़कियां कैसे रहती हैं ? क्या पहनती हैं ? गाड़ी चलाती हैं ? सिगरेट पीती हैं ? शराब का नशा,,,,???

एक के बाद एक सवाल और मैं अपने सवाल भूल गई कि पूछूं कि बीमार पड़ने पर कहां जाती हो, क्या करती हो, सरकारी योजनाओं के बारे में जानकारी है या नहीं,,,?

पर वह मौका दे तब न।

एक आध बार नाम पूछने की कोशिश की तो उसने सुना नहीं। मैंने बीच में ही ब्रेक लगाया,,,जैसे ही वह सांस लेने के लिए रुकी, मैंने दन्न से पूछ लिया-

“अपना नाम तो बताओ”

“बदन-देवी”

बदन देवी, ये क्या नाम हुआ ?”  

“क्यों इसमें का गजब हुआ? माई कहती थी, अइसा नाम होता है।“

मेरे चेहरे पर विचित्र भाव देखकर उसे अजीब लगा।

“नहीं, सुना नहीं कभी, वैसे तुम तो बिहार की हो, फिर यहां तो ऐसा नाम नहीं रखता कोई, खास बात क्या ?”

“लड़की चाहे बाप के यहां रहे या ससुराल, होती तो बदन ही है ना मैडम। आप भी तो बदन ही हो। नाम चाहे जो रख लो। आप तो जानती ही हो, औरत क्या होती है। काहे होती है।  

उसकी जुबां में तल्खी और आंखों में अजीब सी हिंसा तैर रही थी। मैं भीतर भीतर सिहर गई। अपने नाम को अपनी देह से जोड़ने वाली यह विचित्र स्त्री किसी पहेली की तरह लगी मुझे। बहुत बड़े सत्य का उद्घाटन इतनी आसानी से, कम शब्दों में, मैंने अपनी देह की ओर देखा। स्मृतियों की कितनी घटाएं उमड़ी और बिन बरसे लौट गईं। देह धरे को दंड,,,स्त्री का सच है। इसका मतलब ये नहीं कि हम नाम रख लें, देह-देवी, देहबाई या देह,,,,। तब हर स्त्री का नाम देह से शुरु होगा,,देहशालू, देहमाया, देहजिया,,,ओह,,,क्या फालतू सोचने लगी। इन दिनों कुछ ज्यादा ही अनमनापन बढ रहा है। बात करते करते खो जाने की आदत सी होती जा रही है।

हां, देह ही तो समझा था उसने। रोहन की याद आई। उसकी ललचाई निगाह हमेशा देह पर ही फिसलती रहती थी। प्रेम करते हुए कोई ऐसा कैसे कर सकता था। शायद वह प्रेम नहीं कर रहा था। उसका लक्ष्य कुछ और था और मेरा कुछ और। मैं अपने लक्ष्य को लेकर स्पष्ट थी और वह उतना ही बंद। सिर्फ उसकी आंखें बताती थीं कि वह कितनी जल्दी में है, कुछ भी पा लेने की। अच्छा हुआ, मुक्ति मिली। हम प्रेम करते समय एकांत खोजते हैं। मेरी मन कभी न हुआ कि उसके साथ एकांत में जाऊं। एकांत का मतलब बांहों में दबोचना कि दम निकल जाए। मैं प्रेम में आकंठ डूबती नहीं कि एक लिजलिजे अहसास से भर जाती। भीतर से कोई आत्मा बाहर निकलती, छटपटाती हुई और मैं झटके से खुद को उससे आजाद कर लेती। उसका गुस्सा चरम पर होता और मैं राहत की सांस लेती हुई “बाद में बात करते हैं,,”कहती हुई निकल लेती। उसने मेरा नाम रखा था, डोंट टच। ऐ, डोंट टच, कम हीयर, और मैं, उसके लिए उपयुक्त नाम ढूंढ ही नहीं पाई। वह कहता, बोल बोल, कोई नाम रख, लस्टी थ्रस्टी टाइप। मैं गुस्से में उस पर अंग्रेजी में प्रहार कर देती, यू डोंट रिजर्व माई लव, यू नो, व्हाट आए एम फीलिंग,, यू वांट टू यूज मी, दिस इज लव मैन।“

“ओह बेबी, गुस्से में अच्छी अंग्रेजी बोलती हो, ऐसा नहीं है रे, तू है ही इतनी सुंदर कि किसी का भी ईमान गड़बड़ा जाए,,”

“शटअप,”

और एक दिन उसका धैर्य जवाब दे गया। मैं गुनाहगार की तरह कांपती रही देर तक। ब्रेक अप के बाद मैंने खुद को झोंक दिया था, इंटरनेशनल प्रोजेक्ट में। गांव-गांव घूमो, रिसर्च करो, अपनी तन्हाई चंद दोस्तों के संग बांटो। अजनबियों से खूब संवाद करो, जिंदगी को समझो, नए नए रुप में जिंदगी से सामना होता है और “नाउ, आय एम फीलिंग बेटर नाऊ,” आज ये बदन देवी ने स्मृतियों के सुरंग में छलांग लगवा दिया, ओह, नो नो, झटको, ज्योति गर्ग, जो सामने है, उस पर फोकस करो,,

तीन औरतें मुस्कुराती हुईं मुझे देख रही थीं। “क्या मैडम,,,कहां खो गई थीं। सब ठीक तो है न,,?”

“आं, हां, कोई बात नहीं, कुछ काम याद आ गया था। चलो ये बताओ, तुमने कभी अपने मां बाप से नहीं पूछा कि ये नाम क्यों ?”

         “क्या, आप अब भी बदन पर ही अटकी हैं। छोड़िए न, पूछने लायक जब हुए तो वे मुझे एक दुब्याही आदमी के संग बांध कर खुद कहीं चलती बनीं। “

“बता दे कि मुसहर टोला में रघुआ के घर में बैठ गई थी” बगल वाली ने बदन बाई को केहुनी से मारा।

“चोप्प कीरत, माई के बारे में एको सबद नहीं बोलेंगे, मुसम्मात औरत जात का करती,,बोलो,,हरामी भोलवा केतना जीना मसकिल किए था,,”

“ये आपकी सहेलियां हैं?” मैं मुस्कुराई।

मेरे हाथों पर मेंहदी रच चुकी थी। वह हाथ साफ कर रही थी। मार्च के अंतिम सप्ताह की हल्की तीखी धूप, हवा और धूल मुझे थोड़ा परेशान कर रही थी। शाम तक इस गांव को निपटा कर निकल जाना था। एक एक औरत के पास इतना वक्त देना पड़े तो एक दिन में सर्वे संभव नहीं।

मुझे अपने सवाल पूछने की जल्दी थी,,,

“तुम यहां किसके साथ रहती हो, परिवार में कौन,,?”

“बूढे पति हैं, खाट पर पड़े रहते हैं, दिन काट रहे हैं,,”

“क्या क्या दिक्कतें हैं यहां, बीमार पड़ती हो तो क्या करती हो,,,?”

“गांव में बिजली नहीं, पानी नहीं, तीन किलोमीटर से पानी लाना पड़ता है, पांचवी कक्षा तक का एक टूटा-फूटा स्कूल है और बीमार पड़े तो 17 किलोमीटर दूर साहेबगंज जाना पड़ता है, सुबह उठकर दो तीन घंटे तो पानी लाने में लग जाते हैं, फिर फसलों की कटाई, फिर रोटी बनाओ और यहां वहां मेंहदी के काम में लग जाओ। कभी पैंठिया में जाते हैं तो कभी बाबू लोगों के घरों में, कई बहू बेटियां बाहर नहीं निकलती हैं न, जाना पड़ता है,”

“सब बदन देवी को ही बुलाते हैं, मनलग्गू बहुत हैं न,”

कीरती के साथ बैठी सूरती देवी ने पहली बार कुछ बोला था। वह मुस्कुरा रही थी। रास्ते से आते जाते कुछ औरतें वहां ठिठक गई थीं। उनके पास वक्त होता है। या वक्त पर उनका नियंत्रण होता है। जहां चाहें, उतना खर्च करती हैं और मस्त रहती हैं। उन्हें कभी हड़बड़ी में या भागते हुए नहीं देखा। कलाई पर घड़ी बंधी हुई है सिर्फ सिंगार के लिए, वक्त उनमें कहीं थमा हुआ नहीं है। बदन बाई के बाएं हाथ में घड़ी चूड़ियों के बीच घिस रही है। उसने एक बार भी वक्त नहीं देखा। मैं और मेरे साथी बार बार समय को देख रहे थे जो हमारी घड़ियों में कैद था।

यहां मठ के चबूतरे पर बैठकर काम क्यों करती हो। कोई छोटी मोटी दुकान खोल लो। मेरे सुझाव पर उसने गाढी निगाह से मुझे देखा।

“यहां मलंग बाबा है, हम उनकी शरण में हैं। उन्होंने जगह दी है हमें। कहीं और क्यों जाएं। उन्हें बुरा न लगेगा। वे हमारे सुख दुख का खयाल रखते हैं। सबका खयाल रखते हैं,,,”

“इसका विसेस खयाल रखते हैं,” कीरती बोल पड़ी। उसके बोलने में किसी रहस्य की झलक आई।

“हमको मानते हैं बहुत। बहुत दया है उनके भीतर, बचपने से हमको देखे हैं न। इहें त हम खेलने आते थे न।“

बदन बाई का सांवला चेहरा थोड़ा गुलाबी हुआ।

“मलंग बाबा क्या चीज है?”

“चीज नहीं है, बाबा है, फकीर हैं, पूरा गांव इनको पूजता है। सबसे नहीं मिलते। हम लोगो को बहुत मानते हैं, इसलिए कभी कभी यहां आ जाते हैं या हम लोग अंदर जाकर मिल आते हैं।“

“कभी कभी तू अकेली भी तो जाती है बदनी,,,मलंग बाबा को हलवा खिलाने,,,है कि नहीं,,,?”

“भक, क्या बकती रहती हो, जो मुंह में आता है,,ई बात भी कौनौ बताने लायक है,,”

मेरी नजरें बदन के चेहरे पर जम-सी गई। लगा  कि बदन की देह में अचानक दीये की लौ ने प्रवेश किया। किसी परकाया प्रवेश का सजीव चित्र। बदन के रोम-रोम में जंगल के अनाम टटके फूलों की कलियाँ चटखी और लगा कि बदन वहां पहुँच गई जिसका जिक्र वह किसी से बताने लायक भी नहीं समझती। सपने में भी नहीं, जबकि वह सपने में अब मलंग के साथ है। पथरीला मर्द ,,,और इतना कोमल ! हाड़-हाड़ तोड़ देता है मगर लगता है जैसे फूल की पंखुरियों को सहेजना चाहता है। सन्यासी ,,,,कहाँ सहे जेगा?   बदन को याद है ,,,मलंग की आँखों में उसका चेहरा स्थिर हो गया था। औरत के संसर्ग से बचा हुआ संन्यासी बदन से कहाँ भाग सका ? मोह पाश में ऐसा बंधा कि तन और मन को मार कर जीने की प्रतिज्ञा टूट गई। बदन की भूख  और मलंग की प्यास थी। और, इनके बीचोबीच था एक अनाम रिश्ते का सुकून देह उजाला। नदी पर समुद्र का ज्वार था जो पूर्णिमा के चाँद को निर्वसन देख उफान पर था। लहरों ने चाँद पर फेनिल दुपट्टा फैला दिया था। इसमें न सती का सतीत्व भंग हुआ था और न तपस्वी का तप। कुछ पनपा था, कुछ जन्मा था। कोई रचना हुई थी जिसके पालन-पोषण के लिए, जिसको जीवन भर बचाने के लिए त्याग जरूरी था। बदन और मलंग पर चरित्रहीनता के दाग नहीं थे। मगर इसका खतरा था। उनकी संतानें थीं, उनका प्यार और उन्हें अपनी संतान को कलंकित-लांछित होने से बचाना था। समाज उनके सामने विषैले नाग-सा जहरीला था। बदन ने मलंग को समाज के विष से बचाने के लिए जो फैसला लिया वह अकेले का था कि जिसे चाह लिया उसे कलंकित देखना भयानक दुह स्वप्न लगने लगा। उसने मठ क्या गाँव ही छोड़ दिया, बिना किसी को बताये, उसने मलंग को धोखा नहीं दिया, मुक्ति दी, मुक्त किया। उसने मलंग को चाहा था। उसकी चाहत में अधिकार नहीं था,,,लेकिन यह सब मुझे कहाँ पता था,,,,

मैं इन सबसे बेखबर देख रही थी, फूलों का खिलना। बदन का चेहरा देखने लायक। जैसे हजारों फूल खिल उठे हो बदन में। क्या ये मुहब्बत के फूल हैं जो जिस्मों पर खिलते हैं? कोई लुटेरा इसे नहीं तोड़ सकता। ये अदृश्य फूल इश्क में पगी आंखों को ही दिखते हैं। लेकिन मैं तो इश्कफरेब से भरी हूं। फिर भी मुझे अनगिन फूल खिलते और झरते दिख रहे हैं, जरा सी बातचीत में ही,,। ये मेरी आंखें हैं या बदन के इश्क का कमाल। वह जैसे छिपाना नहीं चाहती। इश्क में वाचाल औरतों की तरह उसकी भी जुबान चलेगी।

वह दोनों बांहों में अब खुद को ही भर रही थी। घुटने मोड़ लिए। एक कद्दावर स्त्री चट्टान से फूल बन गई थी।

“मैडम जी, मठ में परसाद चढाते हैं हम, कुछ पकवान बनाते हैं तो पहले भोग लगाते हैं, तू घर में नहीं

चढाते क्या ? हम बस मठ में ले आते हैं,,”

“अच्छा, बस मठ में चढाने के लिए लाती है, रहने दे।“ कीरती ठुमकी।

“इतनी देर देर तक क्या करती है, भोग लगाती है, घंटी कुछ ज्यादा देर नहीं बजाती तू?

सूरती की बात सुन कर बदन का बदन हल्का सा सिहरा। रोम रोम जैसे पुलकित हुआ होगा। उसके जैसी कद्दावर औरत भी इश्क के नाम पर शर्माती है। मैं उन्हें और छेड़ना चाहती थी। मैं भूल गई थी कि यहां किस काम से आई थी। बदन और मलंग बाबा में मुझे दिलचस्पी हो गई थी। किरती, सूरती और बदन की ठिठोली मुझे भा रही थी। तीन स्त्रियां आपस में जिस उन्मुक्तता से बात कर सकती हैं, वैसे पुरुष साथियों के बीच बिल्कुल नहीं। मलंग बाबा के प्रसंग ने बदन देवी को मुलायम बना दिया था। हंसी भी बुक्का फाड़ नहीं निकल रही थी। वह जैसे हंसी को अपने भीतर समेट कर रख रही थी जैसे कोई गरीब किसान अनाज को अपनी कोठी में बचा कर रखता है, किसी बुरे दिन के लिए। मैंने एक कद्दावर स्त्री को इतना पिघलते कभी नहीं देखा था। मुझे अंदेशा हुआ,,,बदन देवी को कहीं न कहीं मलंग बाबा से इश्क जरूर है या वह बहुत हद तक उनके इम्प्रेशन में है। सूरती और कीरती इसकी राजदार है।

बदन उन दोनों की बातों को काट भी रही थी तो उसमें इतना रोष नहीं था और न खंडन जैसी ताकत। मुझे लगा बदन की देह पर फूल खिल रहे हैं। फूल मन पर ही नहीं, जिस्म पर भी खिलते हैं। मैं फूलो को खिलते देख रही थी। मेंहदी का कोन उसकी उंगलियों में हौले हौले कांप रहा था। मैं बात बदलना चाहती थी ताकि वह लौट आए अपने पुराने कलेवर में। मठ और मलंग बाबा को देखने की उत्सुकता थोड़ी बढ गई थी।

“क्या मैं मलंग बाबा से मिल सकती हूं? वे बाहर कब आते हैं ?”

“उनकी मरजी है, सुबह शाम तो निकलते ही हैं  अभी तो पट बंद है। शाम तक रुक जाइए, मिल जाएंगे।“

बदन बाई का स्वर थोड़ा उदास था। पता नहीं क्यों, मैं पूछ नहीं पाई। इतना ही घुलना मिलना हो गया, ये क्या कम था। हर बात पूछना भी तो ठीक नहीं। पर ये उदासी कुछ कह रही है। अभी तक हर बात चहक चहक कर हो रही थी, अचानक ये उदासी के बादल कहां से घिर आए। मैं भी कहां उलझती जा रही थी। अपना सारा काम भूल कर लग गई थी बदन बाई की मिस्ट्री सुलझाने में।

मैंने बात बदल दिया,,,,“पति कैसा है तुम्हारा बदन बाई?”

“रोटी अगर टैम से न मिले तो लट्ठ लेके दौड़ जाए है ये आदमी जात। देवता पित्तर से पहिले इनको रोटी चाहिए। देर हो तो काट खाने दौड़ता है। दिन भर गरियाता, दुरदुराता रहता है। सुबह सब काम करके आते हैं हम, फिर भी। चाहता है हम उसको अगोर कर बैठे रहें। बताओ, इससे पेट भरेगा का,,,? पता नहीं, एक दिन मुझे वो समय भी मिलेगा कि नहीं भगवान के पास शांति से जा सके।“

उसकी आवाज बेहद उग्र हो गई थी। सांवला चेहरा तमतमा गया। एक मनलग्गू स्त्री अचानक भरे हुए बादल-सी नजर आने लगी थी।

मैंने बात बदलते हुए पूछा-“सरकारी योजनाओं का कोई लाभ नहीं लेती।“

“कोई सरकार नहीं है, सिर्फ अपना हाथ है,,,”

“बहुत सी योजनाएं हैं,,,”

“सुना है, हमने सुना है, पटना से पइसा चला है, रास्ते में ही लुटेरे खा रहे हैं,,,इनका क्या करें। हम अगर पढल लिखल होते तो पक्का सबको ठिकाने लगा देते। कम से कम गांव में बहुत कुछ बदल देते हम। हम ठहरे अंगूठा टेक, आप लोग सरकारी लोगो के हिसाब से पढे लिखे हो। “

“अच्छा, वो कैसे?”

“तुम लोग तो दसखत(दस्तखत) करने वालों को ही पढा लिखा समझते हो ना। दसखत तो ये बदन बाई भी कर लेती है। है क्या उसमें, सिर्फ मेंहदी के डिजाइन जैसा ही तो बनाना होता है,।,”,

कहते कहते वह उठी, मेरी दूसरी हथेली पकड़ी और उल्टी तरफ से हिंदी डिजाइन बनाया-लिखा था- “बदन”     

“अब मुझसे कुछ ना पूछना, हम सब बात क्लियर कर दिए हैं,,,,हां,,,”

उसने सिर पर आंचल रखा और हल्का-सा चेहरा छिपा लिया। पर आवाज को किस परदे में रखती। वह घूंघट चीर कर निकली तो निकली। और बदन बाई की हंसी, विषाद को तोड़ती-फोड़ती निकली।

इस हंसी को याद करती हुई मैं फिर से उस गांव में थी। सबसे पहले मनलग्गू बदन बाई को ढूंढना था। दो साल में गांव की हालत जरा भी नहीं बदली थी। हेल्थ वर्कर गांव में अब भी तकलीफें झेल कर पहुंचते थे। मठ का चबूतरा खाली था। कोई न था वहां, मैंने लोगो से पूछना शुरु किया। उसके घर जाकर पता करना चाहती थी। मठ खाली पड़ा था। दिन भर की खोज के बाद कीरती देवी मिली। मुझे लगा कि वह कुछ छिपा रही है। शायद बताना नहीं चाहती होगी। या उसे पता न हो। पर कुछ राज उसके सीनों में दफ्न थे। बहुत उकेरा, वह बार बार कहती, मलंग बाबा से पूछिए। उन्हीं की चेली थी।

कीरती के अनुसार बदन देवी, पति की मौत के बाद गांव से चली गई थी। कोई नहीं जानता कि कहां और क्यों गई। मलंग बाबा ने चबूतरे से सबको भगा गिया था। बाहर कम ही निकलते हैं। किसी से मिलते जुलते नहीं। सन्नाटा पसरा रहता है वहां। कीरती और सूरती का काम भी ठप्प पड़ गया था।

लेकिन सच इतना सीधा सरल कभी नहीं होता। सच के जिस्म में बहुत बारूद भरा होता है। इसीलिए तो हम भागते फिरते हैं उससे। मुझे सच का पीछा करने का शौक है। झूठ के सहारे कब तक महल खड़ा होते देखती रहूं। बदन देवी अपने बदन समेत गायब थी पर अपनी हंसी मेरे जेहन में रोप गई थी। मुझे उसकी हंसी वहां की हवाओं से आ रही थी। मैं मुठ्ठी में उन हवाओं को भर लेना चाहती थी, अपने उदास दिनों के लिए। मैं उस हवा के साथ थी, जिसमें बदन देवी की हंसी घुली मिली थी। मुझे उसकी खोज करनी है। कुछ भी हो, मुझे मलंग बाबा से मिलना ही होगा।

मैं मठ के उसी चबूतरे पर बैठ गई, जहां कभी बदन देवी अपनी सहेलियों के साथ मेंहदी लगाया करती थी। जहां रौनकें लगा करती थीं। मुझे सुनाई दे रहा था, अनगिन स्त्रियों की चुहल, शरारतें, चूड़ियों की खनखनाहट और सबसे बढ कर बदन देवी के ठहाके। कैसे मुक्त होकर हंसती थी। मलंग बाबा को तो जरूर पता होगा। हो न हो उसके गायब होने में इनका ही कोई हाथ होगा। बदन तो मलंग बाबा पर बहुत निर्भर थी। शायद करीब भी। मुझे याद आया, मलंग बाबा के जिक्र पर उसके ठहाके थम जाते और वह हौले बात करने लगती। चेहरे पर कई रंग आते और चले जाते। मैं तो कुछ घंटे के लिए आई थी, आज भी कुछ घंटे के लिए आई हूं। मलंग बाबा बता दें तो शायद मैं मिल आऊं उससे अगर वह कहीं भी हो इस दुनिया में तो !  

शाम मठ का दरवाजा खुला। किसी ने हौले से उसे खोला जैसे कोई सालों का कैदी बाहर की रौशनी में अपनी आंखों को खोलता है।

गोरा बदन, हट्टा कट्टा, लाल लंगोट पहने, अधेड़ पुरुष, हाथ में लोटा और टिनहइया बाल्टी। मैं देखती रह जाती हूं,,,चापाकल पर उनका छोटा चेला खड़ा है। वह पानी चलाएगा तो बाबा नहाएंगे। मैं उन्हें पूरी क्रिया करते देखना चाहती थी। पर अधैर्य इतना कि रुक नहीं पाई। चापाकल के हैंडल को मैं थाम लेती हूं।

“मुझे आपसे बात करनी है,,,”

मैंने चापाकल का हैंडल दबाया,,,हरहरा के पानी निकला,,,छोटू चेला मेरे हाथ से चापाकल झपटने पर आमादा था।

लाल आंखें, म्लान चेहरा। सांझ उतर आई थी चेहरे पर।

“किस बारे में, कौन हैं आप,,,?” आवाज किसी पाताल लोक से आई थी।

बदन देवी के बारे में। मैं हैंडल नहीं चलाती। कुछ देर के लिए पानी भीतर ही रुकता है।

”वो गांव छोड़ कर चली गई,,,इससे ज्यादा मुझे कुछ नहीं पता,,,माफ करिए, मेरी पूजा ध्यान का वक्त हो रहा है,,,”

मैंने जोर से हैंडल मारा,,,,पानी की मोटी धार निकली,,,,

“यू कावर्ड,,,यू डोंट एक्‍चुअली डिजर्व हर लव, यू ब्लडी हिप्पोक्रेट पुजारी,,,, तुमने भगा दिया उसे,,,आई नो, यूज एन थ्रो,, जब साथ देने का मौका आया तो लंगोट संभाल ली,,, शेम औन यू,,”

मलंग बाबा ने पहली बार मेरी तरफ देखा। लाल आंखों में जमाने भर के सितम भरे हुए थे। उनमें लाल सितारे टिमटिमा रहे थे और एक दुनिया उसमें धू धू कर जल रही थी। उन आंखों की अलग से व्याख्या की जा सकती है। वे स्थिर आंखें, मुझसे सवाल कर रही थीं-“तुम कितना जानती हो मुझे ? कितना जानती हो बदन को ? हिसाब किताब रखने वाले रिश्ते नहीं समझते तो किसी की पीड़ा क्या समझेंगे ?”

नहीं, मुझे कोई सवाल नहीं सुनना अभी। फिर कभी। मुझे अभी बदन की तलाश करनी है। मेरा मन ठिकाने नहीं था, मुझे खुद अपनी अगली मंजिल का पता नहीं था। दूर कहीं बदन देवी के हंसी फूटी,,। मठ में जोर से घंटा बजा। शाम का अंधेरा बहुत घना था। मुझे इस हंसी की तलाश है,,,।  


Rate this content
Log in

Similar hindi story from Abstract