एक अनजान सा शहर

एक अनजान सा शहर

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आज का दिन बहुत अच्छा था। जहाँ भी गये लोग मुस्कराकर मिलते रहे। फिर भी दिन तो दिन है, और वो खत्म हो जाता है, आ जाती है शाम और शाम आ रही थी। मेरे बायीं तरफ पूरा चाँद दिख रहा था, और दायीं तरफ सूरज लाल लाल गोले की तरह मुझसे दूर सरकता जा रहा था। चाँद पास आ रहा था, सूरज दूर जा रहा था। आने जाने की इस सांध्य बेला में सोचा चलूं ध्यान में। मुझे ध्यान में जाने के लिये किसी तामझाम की जरूरत नहीं पड़ती। मैं तो बस चला जाता हूँ ध्यान में, और वो ध्यान का यान एक सेकेंड में मिल जाता है। न पेट्रोल की जरूरत न टिकट खिड़की पर लाइन लगा कर टिकट लेने की झंझट।

लो चलते हैं ध्यान में, सवार होते हैं ध्यान के यान में। अब ध्यान में देखे गये मनुष्य, सौंदर्य दीप, और प्रति पृथ्वी की यादें लेकर तो कोई द्विविधा है ही नहींं, और हम अपने यान में हैं। सामने है प्रति पृथ्वी, सोचा यहॉं थोड़ा सा विश्राम करते हैं, विश्राम क्या कुछ सामान जो साथ में है उसे प्रतिपृथ्वी पर सुरक्षित रखकर आगे बढ़ते हैं--तो जैसे ही प्रतिपृथ्वी पर ठहरते हैं, आवाज आती है तुम मनुष्य हो।

मैंने भी जबाब दे ही दिया अरे भाई मैं कहाँ कह रहा हूँ कि मैं कुछ और हूँ। ये थोड़ा सा सामान है मेरा इसको यहीं छोड़कर मैं आगे जाऊंगा। आप जानते हैं यहां सिर्फ आवाजे आती हैं, कोई दिखता नहीं है। तो मैं अपना सामान, शरीर वहीं छोड़ देता हूँ। मैं जानता हूँ जब मैं यहाँ से आगे चला जाऊंगा, तो यहाँ आवाजें आती रहेंगी, यह मनुष्य है, प्राणों की दुनिया मे शरीर-और मेरा शरीर किसी की बात तो सुनेगा नहींं, बस आवाजें आएंगी, यह मनुष्य है।

संवादहीनता की स्थिति में भी कोई असमंजस नहीं है-औऱ हम आगे बढ़ते हैं और इस अपने आंतरिक ब्रह्मांड में जहाँ भूखण्ड दिखेगा, वहीं रुक जायेंगे। अब यहाँ उस स्थान की परिकल्पना तो नहीं है कि पहुंचने के बाद क्या क्या होगा-तो दिमाग एक दम जड़ हो जाता है और हम अपनी बन्द आंखों से आगे देखते हैं, कहीं दूर दूर तक कुछ दिखायी नहीं पड़ता है और हम तेजी से आगे बढ़ते जा रहे हैं, पीछे पृथ्वी छूटती हुयी दिखाई पड़ रही है, औऱ आगे दूर दूर तक बस निर्वात सा दिख रहा है। पर हमारे यान में छेद तो है नहींं, ये तो भूखण्ड मिलने पर ही रुकेगा और इतना तो तय है कि आगे भूखण्ड है-और अभी हम कुछ ही दूर चले होंगें कि तारों की तरह झिलमिलाते हुये पिंड दिखायी पड़ते हैं और उनका गिना जाना आसान नहींं है। लगता है दीवाली में दिये जल रहे हैं। जिधर भी अब दृष्टि जाती है झिमिलाते हुये दिये की तरह भूखण्ड नजर आते हैं और इनमें से एक भूखण्ड तो हमारे बिल्कुल करीब है-दूसरों से थोड़ा भिन्न नजर आ रहा है यह भिन्नता दूरी की वजह से भी हो सकती है और हम यहीं रुकने का निर्णय करते हैं, और अब रुक भी गये हैं इस भूखण्ड पर।

यह स्थान बिल्कुल हमारी पृथ्वी की तरह है। बृक्ष हैं मगर भिन्न प्रजाति के। पानी के तालाब हैं, नदियां हैं, पहाड़ हैं-फूल हैं बस परिंदे नहीं दिख रहे हैं। इंसान नहींं दिखाई पड़ रहे हैं। जीवन की जरूरत के सामान यहां हैं तो जीवन भी होना चाहिये। सम्भव है यहां बस्तियां हों और लोग रहते हों और अब घूमने का निर्णय करते हैं। अकेले हैं कोई दिखाई नहीं पड़ रहा है जिससे कुछ पता करें। लेकिन इतना सौंदर्य तो है यहां कि देखने से मन नहीं भर रहा है। इस समय जहाँ हम हैं वहाँ एक नदी है। नदी के उसपार जीवन की हलचल है। कुछ आवाजें भी आ रही हैं। लेकिन नदी के उसपार जाने के लिए कोई पुल नहीं है। मंथर गति से बहती हुयी नदी का पानी बहुत ठंढा है उसका रंग भी थोड़ा हरा हरा सा है। लगता है यहाँ की मिट्टी यहाँ के पानी मे नहीं घुलती। वैसे भी जमीन पर कहीं धूल नहीं है-बिकलुल सख्त है जमीन।

मुझे थोड़ी प्यास सी महसूस होती है और मैं नदी का पानी पीने की सोचता हूँ, अपनी अंजुरी में पानी उठाता हूँ और उसे अपने मुंह तक लाता हूँ, तभी कोई सज्जन पीछे से आकर मेरा हाथ पकड़ लेते हैं। कहते हैं ये क्या कर रहे हो, मैंने कहा प्यास लगी है और मैं पानी पी रहा हूँ।

कहने लगे तुम तो यहां अजनवी से लगते हो, कहाँ रहते हो, इससे पहले मैंने तुमको कभी देखा नहीं है यहाँ पर। मैंने कहा मैं मनुष्य हूँ और यहाँ पहली बार पृथ्वी से आया हूँ। मुझे अजीब सा लग रहा था उस आदमी से बात करना। वह आदमी मेरी भाषा हिंदी में बात कर रहा था, मेरी बात समझ रहा था। करीब 8 फिट लम्बा वो आदमी था, देखने मे बहुत सुंदर लग रहा था। मगर वह न तो गोरा था न सांवला, हल्का नीला रंग था उसका, लाल लाल बाल थे, आंखे हरी थीं, हाँ आंखों के बाल जरूर हम लोगों की तरह काले थे। बाकी सब कुछ हम लोगों की तरह ही था पर देखने मे वो आदमी बहुत सुंदर लग रहा था, बहुत शालीनता से बात कर रहा था, उसका सवाल पूछने का अंदाज बहुत प्यारा था। लगता था कोई खुद से ही सवाल कर रहा है।

बोला तुम मनुष्य हो, पृथ्वी से आये हो तो चलो तुमको मिलवाता हूँ अपनी पत्नी से, वो पृथ्वी घूम आयी हैं। तुम लोगों के बारे में वो अधिक जानती हैं। इस नदी के उस पर हमारी बस्ती है, हम लोग वहीं रहते हैं। मैंने कहा नदी के उस पार कैसे चलेंगे। बोला क्यों चल नहीं पाते। मैंने भई मैं चलता हूँ और ये नदी तो बहुत चौड़ी है और इस पर कोई पुल भी नहीं है, कोई नाव भी नहीं है, उस पार कैसे चलेंगे।

बोला हम लोग पानी पर उसी तरह चलते हैं जैसे तुम लोग जमीन पर चलते हो। शायद तुम्हारे लिये पानी पर चलना समस्या हो, आओ मेरी पीठ पर और उसने अपने हाथों से उठाकर मुझे अपनी पीठ पर बिठा लिया और पानी पर चलता हुआ नदी के पार आ गया। मुझे आश्चर्य हो रहा था, ये आदमी पानी पर बिना किसी समस्या के चल रहा था। पानी जरा सा भी दबता नहीं था, आराम से वो मुझे लेकर इस पार आ गया था।, और इस तरफ आते ही पूरी भीड़ लग गयी। उसने मेरा परिचय करवाया यह मनुष्य है पृथ्वी से आया है, हमारा अतिथि है, इसकी सेवा तो वही कर सकता है जो पृथ्वी पर गया हो, इनके बारे में जानता हो। मैं उसकी बात सुन रहा था, औऱ सब कुछ देख रहा था लेकिन मेरे दिमाग से यह बात नहीं निकल रही थी कि कैसे यह आदमी मुझे अपने कंधे पर उठाए पानी पर चलता हुआ यहाँ तक आ गया। अब मैं जमीन पर था और वहाँ के निवासियों से घिरा हुआ था। मैं उनके बीच बौना सा लग रहा था। लम्बे लम्बे पुरूष, लम्बी लम्बी स्त्रियां, थोड़े से बच्चे भी थे और हां उनकी अपनी भाषा थी। वे लोग आपस मे अपनी भाषा मे बात कर रहे थे।

उस आदमी ने किसी बच्चे से कहा दर्शनंशी को बुलाओ, दर्शनंशी उसकी पत्नी का नाम था, और वो वहाँ आ भी गयी। उसने मुझे देखा तो खुशी झूमने लगी। बोली तुम यहाँ भी आ गये। मैंने पृथ्वी पर तुम्हे देखा था। मैं दो महीने पृथ्वी पर रही हूँ। मैंने कहा लेकिन मैंने तो तुम्हे कभी देखा ही नहीं, नहीं किसी अखबार में तुम्हारी चर्चा पढ़ने को मिली है। हमारे यहां तुम्हारी जितनी लम्बी स्त्री का होना एक खबर बन जाती है अखबारों की और तुम्हारा तो ड्रेस भी अजीब है, जैसे कोई दिलचस्प खबर। बहुत आधुनिक लोग इस तरह के कपड़े पहनते हैं या फिर फिल्मों में इस तरह के कपड़े पहने लोग दिखते हैं।

दर्शनंशी कहा मुझे किसी ने देखा ही नहीं तो तो मेरी चर्चा कैसे होती। पृथ्वी पर तुम मुझे देख नहीं सकते। मैं तो बस परछाईं की तरह इधर उधर घूमती रही, लगभग सारे देश घूम आयी हूँ। पृथ्वी पर बोली जाने वाली सारी भाषाएं मैं बोल सकती हूं समझ सकती हूं। तुमको मैंने पृथ्वी पर देखा था और सही मायने में मेरा सारा समय तुम्हारे इर्द गिर्द चक्रमण करते हुये बीता। तुम्हारी कहानी मैंने यहाँ लोगों की सुनाई है अब अगर मैं तुम्हारा नाम बता दूं तो लोग तुम्हारे बारे में जान जाएंगे।

हमारी रानी साहिबा की दिल्चस्पी तुममे अधिक है और मैं तुम्हे उनसे मिलवाऊंगी। वे तुमसे मिलकर खुश होंगी। असल मे पृथ्वी से कोई आदमी यहाँ नहीं आता है। तुम पहले आदमी हो जो पृथ्वी से हमारे देश मे आये हो। वैसे भी मैं अपनी रानी साहिबा की एक दूत हूँ। मेरी रानी साहिबा का नाम है पूर्णांशिका। उन्होंने ने ही मुझे दूसरे ग्रहों से खबर लाने की जिम्मेदारी सौंपी है।

मैं घूमती रहती हूँ अपने ब्रह्मांड में। तुम्हारी कहानी सुनकर रानी साहिबा बहुत द्रवित हुयी थीं। हां तुम्हे लाने का आदेश मेरे पास नहीं था अन्यथा मैं तुम्हे अपने साथ लेकर यहाँ आती। लेकिन मैंने रानी साहिबा इतना जरूर कहा था कि वो आदमी यहाँ आ सकता है। उसके पास ब्रह्मांड में विचरण करने की क्षमता है और यह एक अद्भुत संयोग है कि तुम यहाँ आये हो । तुम्हे देखकर वो बहुत खुश होंगी और मुझे भी खुशी होगी कि मैंने तुम्हारी यहाँ आने की क्षमता का वास्तविक मूल्यांकन किया था।

मैं तो पृथ्वी का निवासी हूँ, तुम्हे कहाँ का निवासी समझूँ। क्या नाम है तुम्हारे इस भूखण्ड का। बोली हम लोग इसे पूर्णांक कहते हैं। यह एक नई जानकारी होगी पृथ्वी वासियों के लिए कि उनके ब्रह्मांड में एक ग्रह है जिसका नाम है पूर्णांक और वहां जीवन है। उसने पूछा क्या मैं तुम्हे मनुष्यों से भिन्न दिखाई देती हूं। मैंने कहा कि रंग की बात छोड़ दें तो तुम बिल्कुल मनुष्य दिखाई देती हो, हाँ तुम्हारी भेष भूषा जरूर हमारे देवी देवताओं की तरह है। तुम कह रही हो कि तुम पृथ्वी पर मेरे आस पास चक्कर लगाती रही हो लेकिन मुझे तो तुम्हारी स्थिति का पता तक नहींं चला। उसने कहा हम लोग सूर्य की रौशनी में नहीं दिखते। सूर्य की किरणें हमारे शरीर के पार चली जाती हैं हमारा प्रतिबिम्ब तुम्हारी आँखों पर नहीं पड़ पाता है। सूर्य की रौशनी में वही चीज दिखनी मुमकिन होती है, जिससे टकराकर रौशनी वापस चली जाय।

यहॉं पूर्णांक में जो तुम उजाला देख रहे हो, वह सूर्य की रौशनी की वजह से नहीं है। यहाँ से तो सूर्य दिखाई भी नहीं देता। जाने कितनी दूर है यहाँ से सूर्य, जिसके प्रकाश से तुम्हारी पृथ्वी रौशन होती है। हमारा अपना सूर्य है, अपना चाँद है, अपने सितारे हैं, अपनी हवायें हैं, अपना पानी है, अपनी बनस्पतियाँ हैं। यहाँ आने जाने के लिये न तो सड़कों की जरूरत पड़ती है, न वाहनों की। हम लोग इच्छा यात्रा करते हैं। पानी पर चल लेते हैं, हवा में उड़ लेते हैं और इसमें समय नहीं लगता। जैसे देखो वो पहाड़ हमारी रानी साहिबा का निवास स्थान है, वहाँ जाने में हमको एक सेकेंड भी नहीं लगता। हमारे यहाँ पूजा पाठ नहीं होता। हां तुम लोगों की भाषा मे पूर्णांक वासी अपनी रानी की पूजा करते हैं और उस पूजा में शामिल हर आदमी मुस्कराता हुआ रानी साहिबा के पास से गुजरता है।

सबकी अपनी अपनी मुस्कराहट होती है, सबकी अपनी अपनी चाल होती है। सबका अपना अपना अंदाज होता है। बस पूजा के दिन सब लोग मुस्कराते हैं। हम लोगों को खाने पीने की आवश्यकता नहीं पड़ती है। भूख प्यास पूर्णांक वासियों को नहीं लगती है। यहाँ लोग बीमार नहीं पड़ते हैं। ये जो कपड़े मेरे शरीर पर देख रहे हो ये कपड़े नहींं हैं, ये बिल्कुल प्राकृतिक होते हैं और कहीं भी कभी भी मिल जाते हैं। बस चाह होनी चाहिये कि मुझे इस तरह के कपड़े चाहिये। कपड़ा हाजिर हो जाता है। यहां लोग इसी तरह से कपड़े पहनते हैं। जैसे तुम यहाँ के लोगों को पहने हुये देख रहे हो फैशन डिजाइन ये सब कारोबार यहाँ नहीं है। मकान भी यहां के लोगों को नहीं बनाना पड़ता। बस चाह होनी चाहिये मुझे मकान चाहिये। मकान हाजिर।

मैंने पूछा फिर तो आप लोग ऊब जाते होंगे, करते क्या हैं आप लोग। बोली इच्छा की दुनिया है हमारी। कल्पना और सत्य के बीच हम लोग सन्तुलन बनाते रहते हैं। यही हमारी संस्कृति है, यही हमारा इतिहास है। मैं समझ रही हूँ हमारी ब्यस्तताओं के सन्दर्भ में तुमको भ्रम नहीं होना चाहिये। इच्छा का यथार्थ में बदल देना हमारा काम है। यहाँ इस पूर्णांक ग्रह पर तो इसका कोई मतलब नहीं है, हां तुम्हारी पृथ्वी पर हमारा यह काम अत्यंत जटिल हो जाता है, और जब से मैं वापस आयी हूँ हम लोग मनुष्य को सहयोग देने की बात सोच रहे हैं। लेकिन हमारे सामने मनुष्य की कोई रिक्वायरमेंट है ही नहीं। न कोई हमे जानता है, न कोई हमसे मिल पाता है। इसलिए हमारी सोच पृथ्वी पर धरी की धरी रह जाती है। जीवन की कालावधि में टँगी हुयी आदमी की उप्लब्द्धियों की तरह। कहाँ होना चाहिये और कहाँ पर हैं पृथ्वीवासी।

वो इच्छाएं हैं आदमी की जिन्हें सुनकर ख़ौफ़ होने लगता है। एक एक चीज के लिये लोग लड़ते झगड़ते हैं। पृथ्वी पर जितनी भी समस्याएं हैं न, सब की सब आदमी की ही पैदा की हुयी समस्याएं हैं। अपनी पैदा की गयी समस्या से पार पाने के लिये बेचैन है पृथ्वी पर आदमी। अरे भई मैं तुम्हारे पूर्णांक ग्रह पर आया हुआ हूँ और तुम मुझसे मेरी पृथ्वी की बातों की चर्चा कर रही हो। ऐसा क्या है पृथ्वी पर जो में नहीं जानता और तुम मुझे बताना चाहती हो। उसने कहा सम्भव है तुम जानते हो, लेकिन जानकर भी तुम क्या कर सकते हो।

हां मैं तुम्हारी मदद कर सकती हूँ। पूर्णांक ग्रह के निवासियों की यही इक्षा है और हमारी रानी साहिबा की भी यही इक्षा है। हमारे यहाँ मतभेद नहींं होते, हम लोग तार्किक नहींं होते, हम लोग यथार्थवादी होते हैं। यह बात दूसरी है कि यहाँ कल्पना और यथार्थ के बीच अंतर नहीं होता। लेकिन पृथ्वी पर यह अंतर बहुत जटिल है-कभी कभी कल्पना सत्य में समाहित हो जाती है और कभी कभी सत्य कल्पना का सहचर बन जाता है। दोनों एक दूसरे के पूरक हैं यहाँ पर। पृथ्वी पर दोनों में छत्तीस का आंकड़ा है।

दो दिशाएं हैं, कल्पना भी नहीं कर पाते पृथ्वी वासी सत्य से साक्षात्कार करने की। सत्य से साक्षात्कार करने की इक्षा भी नहीं दिखाई पड़ती है पृथ्वी वासियों में। अभी हम लोग बात ही कर रहे थे कि मधुर संगीत बजने लगा। पुकार की भावना से परिपूर्ण संगीत। मैंने पूछा यह संगीत कहाँ बज रहा है दर्शनंशी। बोली हमारी पूजा का समय हो गया है, गीत की भाषा तुम्हारी समझ में नहीं आ रही है, लेकिन उसमें तुम्हें यहाँ होने की बात कही जा रही है और हमे रानी साहिबा के आवास पर बुलाया जा रहा है और यह भी कहा जा रहा है कि तुम भी होंगे आज की हमारी पूजा में।

जानते हो यह संगीत मेरे पूर्णांक ग्रह पर इसी तरह हर जगह सुनायी पड़ रहा है, सबको तुम्हारे यहाँ होने की खबर है। ग्रह के सीमा के रक्षकों ने तुम्हारी यहाँ होने की बात पहले से ही पहुंचा रखी है। हमारी ग्रह की सीमा में आदमी की बात छोड़ों, किसी पदार्थ की बात छोड़ो, अगर किसी की इक्षा या कल्पना भी प्रवेश करती है, तो हमे उसकी जानकारी मिल जाती है। तुम लोगों को भी लगता है पृथ्वी वासियों की तरह कि कोई आक्रमण करके तुम्हारे पूर्णांक ग्रह पर अपना कब्जा जमा सकता है।

ऐसी एक सम्भावना है जिसके लिये सीमाओं पर हमारे प्रहरी हैं। कोई आक्रमण का विचार लेकर हमारे देश की सीमा में प्रवेश नहींं कर सकता। हम उसका विचार ही जीत लेते हैं। आक्रमण की इक्षा को समर्पण में बदल देते हैं। युद्ध का विचार ही हम लोग बदल देते हैं। हमारे यहाँ हथियारों की जरूरत नहींं पड़ती। हाँ एक बार का दृष्टान्त बड़ा दिलचस्प है हमारे ग्रह पर आक्रमण के इतिहास की दृष्टि से। यहॉं से थोड़ी ही दूर पर एक ग्रह है उसका नाम है भिंनांक, वहाँ के राजा को हमारा दीप भा गया और उसने हमारे ग्रह पर कब्जा कर राज चलाने की सोची थी, आ गया अपनी फ़ौज लेकर हमारी सीमा पर।

हमने राजा पर अपनी शक्ति का प्रहार किया पर हमारी शक्तियां उसके युद्ध की आकांक्षा की सीमा में प्रवेश नहींं कर पा रही थीं। वो सेना लेकर हमारे ग्रह पर चला आया था, हम शक्तिहीन हो गये थे, वो तो भला हो हमारे भूगोल का-बीच में पड़ गयी नदी, और सेना का नदी पार करना एक लंबे समय की दरकार थी। खबर रानी साहिबा तक पहुंची-फिर तो चमत्कार हो गया। सेना आगे बढ़ने के बजाय पीछे हटने लगी। उनका राजा उनको आगे बढ़ने के ललकारता था-सेना अपने ग्रह की तरफ वापस जाने लगी। इतना ही नहीं हुआ पूरी सेना राजा साहब पर टूट पड़ी, और उन लोगों ने पीट पीट कर अपने ही राजा को मार डाला और अपने ग्रह पर वापस चले गये।

बाद में रानी साहिबा ने पूजा के समय में बताया कि राजा के दिमाग़ में युद्व की आग लगी हुयी थी और हमारी शक्ति हमारे शांति के सन्देश उस केंद बिंदु तक नहींं पहुंच पा रहे थे। पहली बार हमारे हथियार निरर्थक साबित हो रहे थे तब हमने पूरी सेना के दिमाग पर एक साथ हमला कर दिया। सेना के दिमाग मे युद्ध की आग नहीं थी वे तो सिर्फ आदेश का पालन कर रहे थे और हमने आदेश को ही नियंत्रित कर लिया। सेना के दिमाग मे न सिर्फ अपने देश वापस जाने की बात सेट कर दी बल्कि यह बात भी सेट कर दी कि उनका राजा जानबूझकर उन्हें मरवाना चाहता है। बस हालात बदल गये और सेना ने अपने ही राजा को पीट पीट कर मार डाला।

यद्यपि किसी की हत्या हमारा उद्देश्य नहींं था, और हम लोग आज भी इसे अपनी हार के रूप में ही देखते हैं जब हमारी बजह से भिंनांक ग्रह का राजा अपनी ही सेना के द्वारा पीट पीट कर मार डाला गया। परन्तु यह अपरिहार्य था जिसके पास इतनी बड़ी सेना हो उसके दिमाग मे युद्ध की आग लगी हो और वह प्रतिपल और उग्र होती जा रही हो। ऐसी परिस्थिति के शमन के लिये यह सब कुछ हो गया। हम प्रत्येक उपलब्ध चीज का इस्तेमाल करने की क्षमता रखते हैं। हम अपने जीवन के लिये अपनी क्षमता का इस्तेमाल करते रहते हैं। हम न सुख के निमित्त हैं, न हम दुख के निमित्त हैं। हम सुख दुख के पार का जीवन जीने वाले लोग हैं।

रानी साहिबा यहॉं की प्रत्येक गतिविधि का प्रतिपल नजारा देख सकती हैं। यहाँ हर चीज साफ साफ होती है, पारदर्शी होती है। रानी साहिबा का मकसद है जीवन मे सन्तुलन और हम लोग सन्तुलन के प्रति समर्पित रहते हैं। सुनो वही संगीत फिर बज रहा है और अब हम लोग चलेंगे-अपनी महारानी के दरबार में। मैं वहाँ एक सेकेंड में पहुंच सकती हूँ, पर तुम्हे साथ लेकर चलना है-आओ मेरी पीठ पर सवार हो जाओ। वरना तुम्हारी वजह से मुझे वहाँ जाने में बिलम्ब हो सकता है।

फिर वो मेरे सामने बैठ गयी और बोली मेरी गर्दन को अपने दोनों हाथों से पकड़ लो। मैंने वैसा ही किया फिर वो खड़ी हो गयी, औऱ आकाश में उड़ने लगी। मुझे बड़ा डर लग रहा था, कहीं मेरा हाथ न छूट जाय गरदन से वरना मैं तो कहीं का नहीं रहूंगा। मेरी मनोदशा वो भांप गयी। बोली डर रहे हो-पर डरो मत तुम यहाँ से हाथ छूटने के बाद भी गिर नहींं सकोगे। अपने चारों ओर देख लो, सशक्त बंधन है। तुम बहुत मजबूती से मुझसे बांध दिये गये हो, और अब नीचे देखो भीड़ पूजा के उत्सव की। तुम लोग तो न जाने कैसे कैसे पूजा करते हो, नारियल फूल पत्ती जाने क्या क्या जुटाते हो, हमारे यहाँ बस मुस्कराना होता है, हंसना होता है। मुस्कराओ और हंसो यही और इतनी सी हमारी पूजा होती है। भई मनुष्यों की तरह टेंसन तो होता नहीं है।

मैंने कहा मुझे भी तो टेंसन नहींं होता है। मैं भी प्रत्येक परिस्थिति में एकदम सामान्य रहता हूँ।

बोली यह तो तुम्हारी सोच का तुम्हारा अपना आंतरिक ढांचा है अन्यथा तुम्हारे बारे में दूसरे लोगों की धारणाएं तुमसे सर्वथा भिन्न हैं। इतनी भिन्न की तुम भी हम लोगों की तरह इक्षा की एक तस्वीर लगते हो। मैंने कहा इस बिषय में मेरी अपनी जानकारियां लगभग शून्य हैं। बात करते हुये मैं नीचे का नजारा देख रहा था। बड़ा ही अद्भुत दृश्य था। नदी, पहाड़, बनस्पतियाँ, प्राकृतिक उपहार का खजाना था यह ग्रह। चारो तरफ हरियाली, सुंदर शीतल हवा, हवाओं में घुलता हुआ मधुर संगीत।

अब वो पहाड़ भी दिखने लगा था जो जहाँ पर महारानी जी का आवास था। जहां आयोजित होने वाले पूजा समारोह को दिखाने के लिये दर्शनंशी मुझे उड़ाये लिये जा रही थी। दर्शनंशी ने मुझसे पूछा चुप क्यों हो। मैंने कहा मैं तुम्हारा ग्रह देख रहा हूँ। बोली अब हम लोग पहाड़ पर आ गये हैं और यहाँ अब मैं नीचे उतरूंगी। फिर वह लम्बवत हो गयी। मैं उसकी गरदन पकड़े हवा में लटक रहा था और चंद ही मिनिट में हम जमीन पर थे। दर्शनंशी ने कहा तुम्हारी वजह से मुझे यहाँ आने में थोड़ा बिलम्ब हुआ-मैं अपनी रफ्तार में चलती तो तुम्हारा शरीर हवा के घर्षण से जल जाता, इसलिये मुझे धीरे धीरे उड़ना पड़ा। फिर भी हम लोग समय से आ गये हैं। यहाँ पर सारे लोग हमारा इंतजार कर रहे हैं। सुनो नया संगीत ये हमारे पहाड़ पर आ जाने की सूचना है। महारानी अपने आसान पर विराजमान हैं औऱ उनकी बगल में जो एक और आसन रिक्त है जानते हो वह तुम्हारे लिये है। तुम्हे हमारे अतिथि होने का सम्मान दिया जाएगा।

सचमुच बहुत सुंदर जगह थी। शीशे की तरह हल्के रंग की जमीन जिस पर हमारी लरछाईं आईने की तरह दिख रही थी। जैसे हम लोग आईने में अपनी सकल देखते हैं उसी तरह आप पहाड़ पर कहीं भी अपनी सकल देख सकते हैं। अद्भुत दृश्य जमीन पर चलते हुये लोग और जमीन के नीचे चलती हुई लोगों की परछाइयाँ। रंग विरंगे बदन वाले लोग, रंग विरंगे कपड़े, एक दूसरे से बात करते हुये, मुस्कराते हुये। बजते हुये संगीत में भावविभोर होकर नाचते हुये लोग। दर्शनंशी ने मेरी अंगुली पकड़ी और सीधे लेकर महारानी जी के पास पहुंची। महारानी जी अपने आसान पर विराजमान थीं। मैं महारानी जी को देखता ही रह गया। लगता था कोई सौंदर्य की कोई प्रतिमा मेरे सामने विराजमान है। लगता था मैं किसी ऐसे लोक में पहुंच गया हूँ जहां आज तक कोई पहुंचा नहीं है।

मैंने अपनी आदत में थोड़ा परिवर्तन किया-झुका और महारानी के चरण स्पर्श किया और फिर सावधान होकर खड़ा हो गया। रानी साहिबा मुझे देखकर मुस्कराने लगीं। मैंने भी मुस्कराहट से उनका जबाब दिया। लेकिन मेरी हंसी आश्चर्य के बीच से निकली थी। इसलिये मुझे स्वयं लग रहा था मैं बलात हंस रहा हूँ-दिमाग तो पूरी तरह आश्चर्य में डूबा हुआ था। दर्शनंशी ने मुझे ले जाकर महारानी जी की बगल में खाली कुर्सी पर बिठा दिया। मैं अपने को कृतज्ञ समझ रहा था, सौभाग्यशाली समझ रहा था कि मुझे पूर्णांक ग्रह की महारानी के साथ बैठने का अवसर दिया गया है।

मेरी जेहन में दर्शनंशी की बताई गयी जानकारियां थीं कि रानी साहिबा दिमाग मे उठती हुयी हलचलों को जान जाया करती हैं और मैं आश्चर्य के मनोभाव से निकलकर मुस्कराने की कोशिश कर रहा था अपनी कृतज्ञता ज्ञापित करने की कोशिश कर रहा था और महारानी जी मुझे देखकर मुस्कराये जा रही थीं। अब समय था पूजा शुंरु होने का। पूजा शुंरु हो गयी, अब महारानी जी बदलने लगी, उनका रंग बदलने लगा, विभिन्न रंगों की चमक विखेरता हुआ। उनका शरीर किसी जादुई खिलौने की तरह लग रहा था। प्रतिपल विभिन्न रंग बदलते हुये, लगता ही नहींं था कि कुछ समय पहले वहाँ महारानी जी बैठी हुयीं थीं। किरणों के जाल सा हिलता हुआ उनका शरीर और उसके बीच मे से निकलती हुयी हंसी।

अब पूर्णांक वासी एक एक करके उनके सामने आते-मुस्कराते और आगे निकल जाते आगे जाकर गायब हो जाते थे। यह सिलसिला देर तक चलता रहा। एक स्थान पर इतने सारे लोग मुस्कराते हुये पृथ्वी पर तो नहींं मिल सकते। हम लोग अपने अपने राजाओं से मिलते हैं अपनी शिकायतें लेकर, उनको उनके ही द्वारा किये गए वायदों की याद दिलाते हैं। हमारे राजा लोग क्या करते हैं यह तो हम सभी लोगों को पता है। लेकिन यहाँ रानी और प्रजा का मिलना, एक पूजा समारोह और उस पूजा में बस मुस्कराहटों का आदान प्रदान।

मैंने देखा मुस्कराने की नशा सी सवार थी पूर्णांक वासियों के दिमाग में। वे मुस्कराहट के बशीभूत हो गये थे। पूरा परिवेश ही मुस्करा रहा था। अब पूजा के लिये अंतिम ब्यक्ति बचा था, वह थी दर्शनंशी, वो आयी मुस्करायी, रानी साहिबा भी मुस्कराने लगीं। मैं उल्लुओं की तरह बैठा बैठा मुस्करा रहा था। अब सब कुछ समाप्त हो चला था। रानी साहिबा अपने वास्तविक स्वरूप में आ चुकी थीं। पूजा समारोह में शामिल सारा आलम वहाँ से जा चुका था। उस हंसते हुये परिवेश में रानी साहिबा थीं, मैं था, और दर्शनंशी थी।

महारानी जी ने कहा तुम्हारे बारे में ढेर सारी बातें दर्शनंशी ने पहले ही मुझे बताया है। उसने मुझसे कहा था पृथ्वी पर तुम ऐसे आदमी हो जो पूर्णांक ग्रह पर आने की क्षमता रखता है। तुम हमारे इतिहास में पहले पृथ्वीवासी होगे जो हमारे पूर्णांक ग्रह पर आया। मैंने कहा महारानी जी मेरा यहां आना एक संयोग है। मुझे तो यह भी नहीं मालूम कि जिस भूखण्ड पर हमारा ध्यान का यान लैंड हुआ, उस ग्रह का नाम पूर्णांक ग्रह है। यह तो यहां आने के बाद मालूम हुआ। अब जब मैं पृथ्वी पर वापस जाऊंगा तो आप लोगों की पूजा की विधि से पृथ्वीवासियों को अवगत कराऊंगा।

रानी बोली हमारे यही परम्परा है पूजा की। जीवन मुस्कराने के लिये ही मिला हुआ है तो इसलिये हम लोग पूजा को मुस्कराहट में समर्पित करते हैं। हंसना ही पूजा है। यह प्रकृति के प्रति कृतज्ञता भी है कि भई हम प्रत्येक स्थित में खुश रहते हैं। हम अपनी पूजा से खुश रहने और मुस्कराते रहने का सन्देश देते हैं। यह सन्देश हमारी भाषा मे ही नहींं हमारे ब्यवहार में भी है। हमारी संस्कृति में भी है। जाओ हमारी हंसी औऱ हमारी खुशी तुम्हारा अभिन्न अंग बन चुकी है। तुम भूल नहीं पाओगे हमारा सानिध्य। क्योंकि यह तुम्हारे जीवन का अभूतपूर्व लम्हा है। अब मैं दर्शनंशी को भेजूंगी तुम्हारे पास, तुम्हारा हालचाल जानने के लिये। तुम्हारे प्रति मेरी सहानिभूति हैं, मेरी आकांक्षा है। हां एक छोटा सा प्रयोग करूंगी मैं तुम्हारे ऊपर जिसका असर होगा कि तुम दर्शनंशी को अपनी पृथ्वी पर भी देख सकोगे।

वास्तव मे सूर्य की रौशनी में यह दृश्य नहीं है। पर तुम्हारे लिये यह दृश्य रहेगी। उन्होंने मुझे अपने पास बुलाया, मेरी आँखों में अपनी आंखें डालीं। एक गर्म रौशनी की किरण हवा की तरह मेरी आँखों से होती हुयी मेरी शरीर मे समाहित हो गयी। मेरे जिस्म का हिस्सा बन गयी। मैंने कहा अब मैं चलूँगा महारानी जी। मेरा शरीर प्रति पृथ्वी पर पड़ा हुआ है। वहां पर प्राणों के प्रश्न होंगे वो बेचारा उत्तर क्या देता होगा। वो तो प्राणहीन पड़ा होगा। तो यहाँ से प्रतिपृथ्वी पर वाया सौंदर्य दीप मैं पृथ्वी पर उस मनुष्य के पास वापस जा रहा हूँ जिसको मैं ध्यान में अक्सर देखा करता हूँ।

मैं चला महारानी जी। मैंने उनके पैर छुये, वो मुस्करायीं। मैंने कहा दर्शनंशी मैं पृथ्वी पर तुम्हारा इंतजार करूँगा।

बोली चलो चलो, मैं सीधे तुम्हारे घर आ जाऊंगी। तुम्हारा घर मेरा देखा हुआ है। फिर हम तीनों एक साथ मुस्कराने लगे और मुस्कराते हुए ही उनके सामने ही अपने ध्यान के यान में सवार होकर वापस आ गया पृथ्वी पर अपने निष्चल पड़े हुये शरीर में फिर अपने घर।


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