Surendra kumar singh

Classics

4  

Surendra kumar singh

Classics

गंगा

गंगा

2 mins
236


जब भी मैं गंगा किनारे घाट पर बैठकर बहती हुयी नदी को देखता हूँ,तो मुझे लगता है गंगा के बीच में पानी के अंदर से निकलकर कोई काया बहती हुयी धारा की सतह पर खड़ी है। इतनी दूरी होती है उस काया से क़ि दुबारा मिलने पर उसे पहचान पाना सम्भव नहीं लगता।

मैं होता हूँ,गंगा के बीच उभरती हुयी काया होती है और जो कुछ होता है वहाँ जैसे गंगा की आरती,जैसे अंतिम संसार की आग में धधकती हुयी लाशें,जैसे लहरों पर तैरते जगमगाते अनगिन दिये, जैसे घाट के किनारे बैठे पंडों से दर्शनार्थियों का मोलभाव,जैसे गंगा में नहाते बच्चे बूढ़े और भैंसे लगता है नहीं हैं।

कभी कभी तो काया अपनी बाँहें फैलाकर मुझे अपनी ओर बुलाती है और यह उनके लिये नहीं होता जो वहाँ होते हैं। अनभिज्ञता की रोचक स्थितियों के बीच अक्सर मुझे वो कहानी याद आती है जब मैं पहली बार गंगा माँ के दर्शन के लिये पहली बार वाराणसी आया हुआ था। एक पवित्र लालसा थी दर्शनों की। लगभग एक जुनून था। अंधेरी रात थी,कुछ दिखायी नहीं पड़ रहा था। टटोल टटोल कर चलना पड़ रहा था। रास्ते में सड़क के किनारे फैली मिट्टी में मेरा पांव फंस गया औऱ मैं ख़ुशी से उछल पड़ा था कि गंगा के किनारे मिट्टी पर मेरे पाँव हैं। पास ही होंगी गंगा। दर्शन नहीं हो सकता तो क्या हुआ मैं जल को अपने हाथ से स्पर्श तो कर ही लूंगा। यही सोच रहा था कि तब तक विजली आ गयी। सड़कें रौशनी से नहा उठीं। मैंने देखा मेरे पाँव नाली से निकाले गये कीचड़ में फंसे हुये हैं। मन झल्ला गया,घिन्न लगने लगी और मैं बिना दर्शन किये वापस आ गया।

आज फिर मैं गंगा के किनारे घाटपर बैठकर सोच रहा हूँ कि अगर गंगा से मेरे रिश्ते मैया जैसे होते तो शायद मैं समझ पाता कि गंगा मुझसे क्या चाहती हैं। वो मुझसे मोक्ष चाहती हैं या मुझे मोक्ष देने के लिये अपने पास बुला रही हैं।


Rate this content
Log in

Similar hindi story from Classics