Surendra kumar singh

Others

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Surendra kumar singh

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सत्ता

सत्ता

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भई हम तो थक चुके हैं, चलते चलते यहाँ जहाँ अभी तक पहुंचे हैं। यहाँ तो घना अंधकार है। रास्ते अनजान हैं। पहली बार निकले हैं इस तरफ। आगे कहाँ जाना है, रास्ता कैसा है, कुछ भी तो मालूम नहीं हैं। तो यहीं विश्राम करते हैं। थकान मिटाते हैं।

    रास्ता तो मुझे भी नहीं मालूम, जहाँ हम अभी खड़े हैं, बातचीत कर रहे हैं। यह जगह तो जानी पहचानी सी लगती है। अंधेरे में भी मैं तुम्हें बता सकता हूँ, यहाँ घनघोर जंगल है। हिंसक जानवरों से भरा पड़ा है यह जंगल। विश्राम करना चाहते हो तो कोई दरख़्त टटोलो और उसकी डाल पर बैठकर गुजारो।

   लो यहीं एक दरख़्त है। टटोलते टटोलते हुये मेरे पास तक आओ और फिर इस तने के सहारे ऊपर उस मोटी डाल पर आकर बैठो।

    अच्छा लो आ गये तुम्हारे पास। चलो बैठते हैं इसकी किसी मोटी डाल पर।

  फिर सुबह हुई। उठो भाई सुबह होने वाली है। ऊपर देखो आकाश में उभरती हुयी लालिमा। सुनो जंगल में चिड़ियों की चह चाहट। एक और नयी सुबह हमारे लिये आ रही है। अंधेरे को निगलती हुयी। रास्ते दिखेंगे, रास्ते दिखेंगे, खतरे दिखेंगे।

   मुझे तो यह समझ में नहीं आ रहा है कि तुम मुझे कहाँ लिये जा रहे हो। ये रोज नयी सुबह, ये रोज नयी शाम। रोज रोज सुबह का आना जाना शाम का आना जाना। फिर वही एक दिनचर्या, चलना चलना। हम लोग चलते ही जा रहे हैं आवाजों की दिशाओं में। अनजान मंजिल की ओर चलते ही जा रहे हैं। उजाले में चलते हैं। अंधेरे में ठिठक कर रुक जाते हैं, विश्राम करते हैं। फिर वही दिनचर्या बस चलते रहना।

  देखो भाई एक सार्थक प्रयोजन से तुम्हें साथ लिये जा रहा हूँ। ठीक है रास्ता मेरे लिये भी अनजान है। ठीक है हम इस जंगल में भटक रहे हैं। ठीक है सब कुछ उबाऊ सा लगने लगा है। थकान है, अनिश्चितता है लेकिन हमारे इरादे बड़े दृढ़ और नेक हैं। देखो इस नयी होती हुई सुबह को आशा और विश्वास भरी नजर से। उजाला हमारे आस पास फैलने लगा है। थोड़ी देर में सब साफ साफ दिखने लगेगा, आगे चलेंगे।

   रोज ही देखते हैं तुम्हारे सूरज के आने जाने से होती हुई सुबहों को। लेकिन ये जंगल है या जंगल का समुन्दर, इसका कोई छोर तो दिखता ही नहीं। चारों तरफ बस जंगल। इस जंगल का अंत किस दिशा में होगा यह तो अनुमान लगाने की ही बात है। कभी कभी मुझे लगता है हम किनारे से लौटकर फिर जंगल के बीच में आ गये हैं। फिर शाम ढलेगी फिर हम विश्राम करेंगे, फिर चलेंगे। यही लगा हुआ है।

  जब तुम विश्राम करते हो न तब भी चलते रहते हो। तुम्हारी बुद्धि अटकलें लगाती है। रास्ता उधर है, रास्ते में क्या क्या है। तुम्हारे मानस पटल पर चितवत चलता रहता है। मंजिल दिखाई पड़ती है तुम्हें सपने में। यह स्वप्न सी तुम्हारी आशा ही तुम्हें निराश करती है। अनजान रास्ते को और और उलझा देती है।

   मुझे नहीं लगता किसी मनुष्य की बुद्धि कभी निष्क्रिय हो सकती है। मनुष्य है तो उसकी बुद्धि गतिशील रहेगी। हाँ निराशा से बचने का एक रास्ता है ये जो तुम्हारा रोज रोज उगने वाला सूरज, अंधेरा दे जाने वाला सूरज कोई ऐसा करिश्मा कर दे कि उजाला ही उजाला रहे और उसकी किरणें इतनी संवेदनशील हों जो तुम्हारी बुद्धि को नये आयाम दें। सही रास्ता दिख जाये। जरा सोचो इस एक जंगल में हम कब से भटक रहे हैं।

   और आगे जाने अभी कितने जंगल होंगे तो मंजिल तक पहुंचना तो एक सपना भर रह जायेगा। सफर की ये मानसिक स्थिति किसी आने वाले जंगल से कम भयावह नहीं है कम गतिरोध पैदा करने वाली नहीं है। बस असफलता ने तुम्हें निराशावादी बना दिया है। खुश्क बना दिया है। चल पड़े हो तुम नकारात्मकता के अंतहीन डगर पर। अरे भाई ऐसा भी हो सकता है कि आने वाली सुबह हमें हमारी मंजिल तक पहुंचा दे जहाँ पहुंचने की हमने कल्पना भी नहीं की है। खूबसूरत भाव तक पहुंचा दे। देखो उस तरफ उजाला बढ़ता ही जा रहा है और सूरज लाल लाल गोले में तबदील होता हुआ नजर आ रहा है, और हमारी तरफ आ रहा है। ये कानों में पड़ता हुआ शोर इस बात का संकेत है कि आस पास ही कोई बस्ती है।

    बहुत देखा है मैंने उगते हुये सूरज को, बहुत देखी है मैंने बस्तियां। अब यहाँ इस जंगल मे बहुत दिनों से साथ हो तो यह मत समझो कि बहुत अनजान हूँ, अनभिज्ञ हूँ। सूरज के चलन और बस्तियों के रिवाजों से कभी हुआ करती थीं बस्तियां, कभी हुआ करता था जीवन बस्तियों में, कभी था प्रेम और साहचर्य बस्तियों में। आजकल तो बस्तियों में सिर्फ शोर है। सिर्फ शोर है। जीवन नहीं कठपुतलियां चलती हैं नाचती हैं गाती हैं। मरे हुये लोगों की बस्तियां हो गयी हैं आजकल। लोग सपने में लिखते हैं सपने में मिलते हैं सपने में ही गुनगुनाते हैं। सपने में ही भाषण देते हैं। सपने में ही चलते हैं। सपने में ही जागते हैं। सूरज का आना जाना जीवन काल में घटने वाले निरुद्देश्य नृत्य के अलावा कुछ और नहीं है। दिन में शोर मरघट सी चहल पहल। बस इतनी सी बात होती है बस्तियों में।

   भई उन्हीं बस्तियों को छोड़कर ही तो हम निकले हैं, नयी मंजिल की तलाश में। नयी बस्ती की तलाश में। लेकिन उन बस्तियों की परछाइयों से अभी तक मुक्त नहीं हो सके हैं हम। बार बार उनकी यादें आती हैं। आने वाली बस्ती भिन्न हो सकती है मरियल सी पीछे छूटी बस्तियों से।

  अब साथ हूँ तुम्हारे तो साथ चलूंगा। लेकिन इतना जान लो इस पृथ्वी की सारी की सारी बस्तियां एक सी हैं। जीवन और जीवन जीने की विधाओं , परम्पराओं, रीति रिवाजों में भिन्नता के बावजूद मनुष्य के जीवन के सफर की दिशा एक है। हम किसी दूसरे लोक में तो यात्रा नहीं कर रहे हैं। पृथ्वी है भाई पृथ्वी जहाँ सूरज अब आग उगलता है। रौशनी बस्तियां जलाती हैं। प्रेम भड़काता है। मेरी मानो तो लौट चलें अपनी अपनी बस्तियों में।

    असफलता ने तुम्हें निराशावादी बना दिया है और असफलता को ही तुम अपनी नियति मान बैठे हो। आशा से टूटे हुये रिश्तों को जोड़ना ही जीवन की सफलता है। मंजिल की तरफ प्रयाण है। सोचो जरा सोचो जब हमने अपना सफर शुरू किया था। क्या क्या संकल्प लिये थे। कितना दृढ़ था संकल्प हमारा। उम्मीद का कितना बड़ा सहारा था हमें।

    भई तुम्हारा मन था सफर करने का और मैं साथ हो लिया था। वरना रौशनी जलाने के लिये अपनी बस्ती कम महत्वपूर्ण नहीं थी। सोचा था यात्रा तुम्हें इस बात की अनुभूति कराएगी कि आजकल पृथ्वी की दिशा और जीवन की दिशा सर्वत्र एक सी है। चारों तरफ संघर्ष हो रहे हैं। मनुष्य का मनुष्य से प्रेम भरा रिश्ता जीवन की दिशा में घुल गया है। देखने मे तो मनुष्य ने बड़ी तरक्की कर ली है लेकिन हमारे आंतरिक सूर्य की रौशनी में दुनिया पिछड़ती जा रही है, प्रतिगामी होती जा रही है। हमारा आंतरिक सूर्य तुम्हारे रोज रोज उगने और डूबने वाले सूरज की तरह रौशनी फैलता है आग उगलता है। लेकिन इसकी आग में कुछ जलता नहीं है बल्कि ये दिशा यात्रा है, अर्थ यात्रा है, जीवन यात्रा है। पूरा परिवेश कुछ संवर जाता है, सौंदर्यमय हो जाता है। लो आ गये हम यूँ ही बात करते करते जंगल के पार बस्ती में।

   आ तो गये मगर यह जगह भी जानी पहचानी सी लगती है। पीछे छूटे हुये जंगल की तरह यह जगह भी जानी पहचानी सी लगती है। ये पेड़, ये हवा, वो पहाड़ सबका सब पहले का देखा हुआ लग रहा है। मानस पटल पर अतीत की यादें धुंधली धुंधली सी तैर रही हैं। थोड़ा रुको मुझे जाने दो अतीत में। यादों की बल देने दो पहुंचने दो इस नतीजे पर कि यहाँ से हमारा लगाव क्या था।

  बल मत लगाओ। अतीत के झंझावात में विचरण करने की जरूरत नहीं है। यह वही बस्ती है जहाँ से हमने अपनी यात्रा शुरू की थी, उस किनारे हमारा घर था।

   बिल्कुल ठीक कहा तुमने बिल्कुल ठीक। याद आ गया सब कुछ याद आ गया यहीं हमारा घर था जहाँ से हम जंगल में पहुंचे थे।

  मंजिल पर पहुंचने का जश्न मत मनाओ, वो जंगल जो पीछे छूट गया है न, इस बस्ती में आ गया है। अब यह बस्ती भी जंगल से कम नहीं है।

   घर नहीं देखोगे अपना।

  क्यों नहीं क्यों नहीं जरूर देखेंगे अपना घर।

  वो रहा सामने तुम्हारा घर।

  यह तो एक मंदिर है, मूर्तियां सजी हैं इसके अंदर। वो पुजारी पूजा की थाल लिये बैठा है। मूर्ति के दर्शन के लिये लंबी कतार लगी हुई है। संगीतमय भजन चल रहा है। फूल और अगरबत्तियों की गन्ध फैली हुयी है।

   समझ लो हमें याद किया जा रहा है। प्यार किया जा रहा है हमें हमारी अनुपस्थिति में। हमारी कहानियां शाम की चर्चाओं का हिस्सा बन चुकी हैं। अब जब हम आ गये है यहाँ अपनी बस्ती में तो हमारी कहानियों में कल्पना का हिस्सा स्पष्ट हो जाएगा। दिलचस्प हो जाएगा। हमें इस बात की भी जानकारी मिल जायेगी कि यहां हमें याद क्यों किया जा रहा है।

  आ तो गये लौट के भटकते भटकते यहां अपनी बस्ती के अपने घर के सामने, तो यहीं रहेंगे।

  बताता हूँ बताता हूँ चले आओ इस मूर्ति के पीछे, सुनो अपनी कहानी।

  ना बाबा मैं लौट के वहाँ नहीं जा सकता। जिस प्रयोजन के लिये वहां से निकलकर कर इतना लम्बा सफर तय किया है उस प्रयोजन के पूरा होने के अनुष्ठान में लगूंगा। जो हालात दिखाई पड़ रहे हैं उसमें बस्ती की दिशा और और हमारी दिशा और है। बस्ती को जिस दिशा में जाना चाहिये हम अपने साथ बस्ती को उसी दिशा में ले चलेंगे।

 लेकिन बस्ती तो कहीं और जा रही है और हम कहीं और।

 भ्रम है दिशाओं का।

  दिशा का नहीं दिशा सूचक यंत्र का। अंधेरे से निकलते हुये प्रकाश का , आकर्षण का, सफलता का, सत्ता का।

 निःसन्देह यह विसंगति ही इस युग की त्रासदी है लेकिन हमारे आंतरिक सूर्य के प्रकाश में नयी सत्ता का अभ्युदय हो सकता है, आकर्षण को नये आयाम मिल सकते हैं। जीवन की दिशा बदल सकती है।


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