और गिलहरियाँ बैठ गईं…

और गिलहरियाँ बैठ गईं…

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रात बीत गई थी, अंधेरा छट रहा था, पर तनाव गाढ़ा होता जा रहा था।

   वह दो दिन से कुछ बोल नहीं पा रहे थे। कल जब हाथ में हल्की सी हरकत होनी शुरू हुई तो उन्होंने इशारे से पेन मांगा था। हम उनके काँपते हाथ में पेन पकड़ा कर, कभी उन्हें, कभी काग़ज़ पर बनती रेखाओं को देखते रहे। सबने उन्हें पढ़ने की कोशिश की। वह कुछ देर की कोशिश के बाद पस्त हो गए। पेन ख़ुद व ख़ुद हाथ से छूट गया। कोई न समझ सका कि उन्होंने क्या लिखा है। तभी बहिन खाली बर्तन उठाने आई और काग़ज़ पर एक उड़ती हुई नज़र डालते हुए बोली, ‘माँ को देखना चाहते हैं।’

  सभी ने एक सवाल की तरह उसे देखा। माँ और बाबा तो सालों से बात नहीं करते। माँ तो उनके सामने भी नहीं पड़तीं। फिर काग़ज़ पर जो लिखा था वह माँ का नाम नहीं था। बहिन थोड़ा झुक कर पलंग के नीचे रखा कप आगे खींचकर उठाते हुए बोली, ‘अना लिखा है, माँ को यही कहकर बुलाते थे।’

  हम सब विस्मित थे। हमने बाबा को कभी माँ के लिए रखे किसी विशेष नाम से तो क्या, उनके असली नाम से या किसी अन्य संबोधन से भी बुलाते नहीं सुना था। वह बाबा के हर काम के लिए बिना बुलाए ही हाज़िर रहती थीं। फिर बहिन ने कब और कैसे जान लिया था, बाबा का यह राज़। मेरा एक पुराना विश्वास और पुख्ता हो गया था कि औरतें एक उम्र में वे ध्वनियाँ भी सुन लेती हैं जो सामान्यत: पुरुष सारी उम्र नहीं सुन पाते। माँ भी ऐसे ही बहुत सी बातें जान लेती थीं।

   आज वह भीतर के कमरे में अशक्त पड़ी थीं। तीन दिन से खाना-पीना बंद कर रखा था। पर पुरानी जिद्द क़ायम थी, मरते मर जाएंगी पर बाबा के सामने नहीं आएंगी। बहिन माँ की देखभाल में लगी थी और उन्हें कुछ खिलाने की लगातार कोशिश कर रही थी। मैं और छोटे, अपने दो चचेरे भाइयों के साथ, बैठक में बाबा की सेवा में लगे थे।

  आज रात से ही मैं किसी अनिष्ठ की आशंका से घिरा था। डॉक्टर के देखकर जाने के बाद से ऐसा ख्याल किसी और के मन में भी आया होगा, पर हममें से किसी ने आपस में इस बारे में कोई बात नहीं की थी। मौन ही हमारे घर की मुख्य भाषा थी। हम इसके अलग-अलग स्तरों से हालतों को समझते थे। हम ज्यादातर बातों को बिना बोले ही समझने की कोशिश करते थे। आज छोटे से बात करने का बहुत मन था पर हमारी इसके लिए कोई तैयारी नहीं थी। इसलिए रह रहकर हम बाहर की बजाय अपने भीतर लौटे जा रहे थे। मन स्मृतियों के खण्डहरों में दौड़ रहा था, कई-कई कोटरों में जाता, कुछ टूटे-बिखरे दृश्य समेटता और वापस बाबा के चेहरे पर लौट आता। शहर का हर वो हिस्सा जहाँ मैं उनके साथ गया था मेरे सामने घूम रहा था। एक समय, मैं परकोटों से घिरे पुराने शहर की दीवारों पर दौड़ते हुए, किले तक जा पहुँचा।

   किले के फाटक पर बाबा खड़े थे। वह दूर खड़ी एक इमारत की ओर इशारा करके बता रहे थे, ‘क़िले की दीवार से सटी ये जो पुरानी कोतवाली खड़ी है इसके सामने से नीचे उतरती ढलान को टकसाल कहते हैं। राजे-रजवाड़ों के समय में यहीं किसी इमारत में सिक्के बनते थे। इसी ढलान के दोनों ओर पसरी सँकरी गलियों से मिलकर बना है, हमारा शहर। पूरा शहर सालों पुरानी ऊँची-ऊँची दीवारों और बड़े-बड़े फाटकों से घिरा है। हमारा पुराना घर इसी टकसाल वाली ढलान पर था।’ ऐसा कहते हुए वह कहीं दूर देखने लगे और फिर जैसे अपने भीतर ही किसी भूल भूलैया में खो गए। उस समय वह ख़ुद भी मुझे किसी पुराने किले की तरह लगे। विराट पर बिलकुल वीरान, अपने अतीत के साथ बिलकुल अकेले। तभी माँ की कही बात याद आई कि हम किसी बुरे समय में, किले और टकसाल से दूर, शहर के पूर्वी फाटक के पास वाली गली के, कई सालों से बन्द रहे आए, इस पुराने ढब के मकान में रहने चले आए थे। पर बाबा का मन जैसे पुराने मकान में ही कहीं छूट गया था।

   हमने जब भी बाबा को देखा उचाट मन से कहीं दूर देखते हुए ही पाया। हमारे लिए बाबा हमेशा से एक रहस्य थे, किसी अंधेरी गुफा से भी गहरे। उनके भीतर झांकते डर लगता था। कुछ पूछो तो लगता कि जवाब नहीं बल्कि सवाल ही गूँजकर वापस आ रहा है। बस उसमें कुछ अंधेरों के मिलने से आवाज़ थोड़ी भारी हो जाती थी। वे जैसे एक तिलिस्म से घिरे रहते। उससे कभी थोड़ा-बहुत पर्दा सरकता तो वह माँ के द्वारा। पर माँ भी जैसे उनके भीतर के अंधेरों से, उसके तिलिस्म से डरती थीं। शायद वह भी उनके व्यक्तित्व के विराट किले की ज़द में थीं। पर जब भी माँ हमें उनके बारे में कुछ बतातीं, हम सब बहुत ध्यान से सुनते और हमारे सामने बाबा की ज़िन्दगी का एक छोटा सा हिस्सा चमक उठता। जैसे बाबा को काली पतलून और नीले रंग की सदरी बहुत पसंद थी। वह जब किसी शादी-ब्याह या जलसे में जाते वही पहनते। जैसे सदरी की जेब से माँ को एक रात एक चिट्ठी मिली थी। माँ पढ़ नहीं सकती थीं। पर उसकी लिखाई को देखकर माँ ने अंदाज़ा लगाया था कि वह किसी स्त्री के हाथ की लिखी है। माँ ने कहा था ‘कैसे मोतियों से हर्फ़ हैं, ख़ुशक़त, चमकीले।' ऐसा कहते हुए वे उदास हो गई थीं। माँ के अनपढ़ होने ने हमारे चारों ओर के रहस्य को और गहरा कर दिया था। गर वे पढ़ी-लिखी होतीं तो बाबा, घर, परिवार और दुनिया के बारे में कुछ और जान पातीं और फिर कभी किसी दोपहरी में बाबा के दफ़्तर जाने के बाद आँगन में उतर आई धूप में बैठी मेरे सिर में तेल ठोकते हुए मुझे बतातीं। शायद उस बताए हुए को जोड़कर हमारी स्मृति में कुछ स्पष्ट चित्र बन पाते। पर माँ पढ़ी-लिखी नहीं थीं और महीनों घर से बाहर नहीं निकलती थीं।

   बाबा से जुड़ा एक किस्सा वे अक्सर सुनाती थीं। हर बार वे उसमें कुछ नया जोड़ देतीं। हमें लगता जैसे-जैसे हम बड़े हो रहे हैं उनकी बातें कुछ विस्तार पाती जा रही हैं। बाबा के बचपन की यह घटना शायद उन्होंने बाबा की माँ, हमारी दादी से सुनी थी। अब दादी की बहुत धुंधली-सी छवि हम सभी के बीच रह गई थी। उनके बारे में माँ की बताई दो एक बातें आज भी याद हैं, जैसे उन्होंने अंग्रेजों का राज देखा था, राजपाट छिन जाने के बाद राजे-रजवाड़ों के पास बची रह गई शानो-शौकत और उसमें छुपी खिसियाहट देखी थी।

   अब दादी नहीं थीं। पर उनका सुनाया वह किस्सा माँ के मार्फत हमारे साथ रहा आया था। उन्होंने बताया था कि बचपन में एक बार बाबा घर से झोला लेकर लकड़ी का कोयला, जो उन दिनों छोटी अंगीठी में चाय बनाने के लिए इस्तेमाल होता था, लेने के लिए निकले, तो सारा दिन घर नहीं लौटे। एक तांगेवाला जो पुराने शहर से रेलवे फाटक तक सवारियाँ ढोता था, ने बाबा के बचपन का नाम लेते हुए बताया था कि उसने गोपाल को स्टेशन के पास देखा था। उस दिन बाबा अंधेरा होने के बाद घर लौटे थे। वह उस मदारी के खेल के सम्मोहन में बंधे, उसके पीछे-पीछे शहर भर में घूमते हुए, नौ नंबर रेलवे फाटक तक जा पहुँचे थे। उन दिनों वहाँ पहुंच कर शहर ख़त्म हो जाता था। उस मदारी के पास एक भालू और कई जड़ी-बूटियाँ थीं। दादी ने माँ को बताया था कि उस मदारी ने उस रोज़ बाबा पर जादू कर दिया था। उसके बाद से वे देर रात तक तारे देखते रहते थे। वे इशारे से गिलहरी, खरगोश आदि को दो पैरों पर खड़ा कर सकते थे। जब तक वह न चाहें जानवर अपने चारों पैर एक साथ ज़मीन पर नहीं टेक सकता था। सचमुच उनपर जादू हुआ था या उन्होंने जादू सीख लिया था, यह बात हमेशा संदेह के घेरे में रही। इस बात को दादी ही साफ़ कर सकती थीं पर अब वे नहीं थीं। वे हम भाई-बहिनों के जन्म के कुछ साल बाद मर गई थीं। बस उनका पनडब्बा, गुटान और गोटा लगा पंखा अब तक हमारे साथ, इस किस्से की ही तरह बिना किसी खास अहमियत के रहा आता था।

   हमारे लिए इस किस्से से जुड़ी बस एक ही बात महत्व की थी कि हमें लगता था कि बाबा सच में जादू जानते हैं और वह जादू उन्होंने किसी खरगोश या गिलहरी पर नहीं माँ पर कर दिया है। इसीलिए माँ सुबह से शाम तक हमेशा, डेढ़ टांग से, इधर से उधर भागती रहती हैं। उन्हें दिन में किसी ने पीठ ज़मीन पर टिकाते नहीं देखा था। उन्हें किसी ने बाबा के इशारे के बगैर बैठते, सुस्ताते भी नहीं देखा था।

   …पर कभी-कभी हमें यह भी लगता था कि बाबा पर जादू हुआ है और वह जादू किसी मदारी का नहीं बल्कि ताई का है जो ताऊ के चले जाने के बाद हमारे साथ ही रहने लगी थीं। यह उस समय की बात है जब हम भाई-बहिनों का स्कूल में दाखिला नहीं हुआ था और एक मास्टरसाब हमें घर पर ही पढ़ाते थे। वह सर्दियों में सुबह और गर्मियों में शाम के वक़्त आया करते थे। वह गर्मियों की एक शाम थी जिसमें मास्टर साब हमें पढ़ाकर गए ही थे कि आँगन में लगे केलों के पेड़ों पर पानी छिड़ककर, हम अलग-अलग चारपाइयों पर बैठे मास्टर साब का दिया पाठ याद कर रहे थे, तभी ताई एक बड़ा ट्रंक और मिलिटरी की वर्दी के रंग का एक थैला लेकर हमारे घर आई थीं। उन्हें घर की पहली मंज़िल पर बना वह कमरा दे दिया गया था जो उससे पहले बाबा के पढ़ने के लिए ही खुलता था। हम कभी अकेले उस कमरे में नहीं जाते थे। हमें वहाँ जाते डर लगता था। ताई उसी में रहने लगीं, उन्हें उसमें डर नहीं लगता था, पर ताई के उस कमरे में रहने से हम ताई से भी डरने लगे थे। उनकी बड़ी-बड़ी गोल आँखें थीं। वे बहुत गोरी थीं। माँ से भी ज्यादा। उनके गालों की हड्डियाँ उठी हुई थीं। हम दिन में उन्हें तब ही देख पाते थे जब मास्टर हमें पढ़ा रहे होते थे और वे चाय बनाकर उनको दे जाया करती थीं। बाकी समय वह अपने कमरे में ही रहती थीं।

   गर्मियों की रातों में हम आँगन में एक कतार में बिछी चारपाइयों पर सोया करते थे। चाँदनी रात में ताई का कमरा आसमान में रुके हुए जहाज-सा लगता था। मुझे लगता चाँदनी में डूबा कमरा धीरे-धीरे हिल रहा है। उस समय सब सो रहे होते पर मैं सोने का नाटक करते हुए, आँखें मीचे जागता रहता था। कौन जाने उस समय और भी कोई जागते हुए सोया रहता हो। पर मैं साँस साधे, आँखें मूँदे पड़ा रहता था और वह कमरा धीरे-धीरे मेरे भीतर काँपता रहता था। वह हिलते-हिलते गिर तो नहीं जाएगा, यह देखने के लिए मैं बीच-बीच में आँखें खोलकर उसे देख लेता। देर रात वह और सफ़ेद और चमकदार लगने लगता था। ऐसे में मैं अपने आस-पास पड़ी चारपाइयों को ध्यान से देखता। उनपर सोए हुओं की साँसों को ध्यान से सुनता। उठते-गिरते सीनों को ताकता। सोचता इनमें कौन होगा जो मेरे जैसा सोने का बहाना करके जागता होगा। और मेरे सो जाने पर मेरी भी साँसे इसी तरह गिनता होगा। मेरे दाहिने सुभु, मुझसे तीन साल छोटा मेरा मझला भाई सोया रहता। वह कई बार आधी रात में बिना आँखें खोले ही उठता और मेरे पास आकर सो जाता। वह आधी रात में चाँदनी में जीवित हो उठे कमरे से डरकर ऐसा करता या नींद में उठकर आ जाता, मैं कभी नहीं जान पाता। वह अक्सर बीमार रहता था और बाद में नौ साल की उम्र में पीलिए से पीला पड़के मर गया था। कई दिनों तक उसकी उस चारपाई पर कोई नहीं सोया था। माँ ने उसे कई बार धोके सुखाया था। उसकी बीमारी के दिनों में माँ जब उसे मेरे पास सोया हुआ पातीं तो रोते हुए उसे उठातीं और अलग चारपाई पर लिटा देतीं। वह सुबह देर तक सोया रहता था। वह उसे अपने पास नहीं सुला सकती थीं क्योंकि उनकी चारपाई पर सबसे छोटा भाई विशु, माने छोटे सोता था। बहिन सबसे बड़ी थी और दिन में लगातार माँ के साथ घर के कामों में लगी रहती थी और रात तक बहुत थक जाती थी सो वह स्टूल पर रखे पंखे के ठीक सामने लगी सबसे पहली चारपाई पर सोती थी। वह पंखे की तरफ़ मुँह करके सोती थी और अपने पीछे बिछी चारपाइयों की ओर पलट कर कभी नहीं देखती थी। माँ के बाद वाली सबसे आखिर की चारपाई बाबा की होती जिसपर चाँदनी नहीं पड़ती थी। उसपर पड़ने वाली चाँदनी ताई के कमरे से रुक जाती थी।

  एक दिन सुभु जब बुखार में तप रहा था और आधी रात को मेरी चारपाई पर आकर मुझसे चिपटकर लेट गया था। पहली बार मैंने उसके सिर पर हाथ रखकर उसके चेहरे को ध्यान से देखा था। वह जाग रहा था। उसकी आँखें खुली हुई थीं। तभी मैंने और शायद हम दोनों ने ताई के कमरे से दो परछाइयाँ उतरते हुए देखी थीं। एक परछाई दूसरी को मारती-धकेलती नीचे ला रही थी। इतने उद्वेग में भी उनके मुँह से कोई आवाज़ नहीं निकल रही थी। वे दोनों आँगन में आकर आखिर में बिछी चारपाइयों में समा गई थीं। सुभु और मैंने फिर एक दूसरे को देखा था। वह वे आवाज़ धीरे-धीरे सिसक रहा था। उसके तीसरे रोज़ वह नहीं रहा था।

  उसके मरने पर ताई बहुत ज़ोर-ज़ोर से रोई थीं। पर माँ ने इसे इतने सहज ढंग से लिया था कि हम सभी भाई बहिन बहुत डर गए थे। यह सोचकर कि आगे किसी दिन हममें से कोई मरेगा और माँ बिलकुल नहीं रोएंगी, हमारी रुलाई छूट जाती थी।

   जब हम सब स्कूल जाने लगे थे। अचानक एक दिन बाबा ने मिल जाना बंद कर दिया था। हमें बाद में पता चला था कि मिल में लम्बी चली हड़ताल के बाद ताला पड़ गया था। उसी समय एक दिन जब हम स्कूल से लौटे तो ताई ने गुनिया बुलाया था। गुनिया जो खोई चीज़ों की जानकारी देता है। जो किसिम-किसिम के टोटके कर यह बताता है कि खोई चीज़ किसने चुराई है और छुपा कर कहाँ रखी हैं। गुनिया एक बड़े साबुत नारियल पर माँ के दोनों घुटने टिकवा कर यह जानने की कोशिश कर रहा था कि ताई की खोई हुई कीमती चीज़ कहीं माँ ने तो नहीं चुराई है। गुनिया किस निर्णय पर पहुँचा हमें लाख पूछने पर भी नहीं बताया गया था। जब गुनिया परीक्षा ले रहा था तब बाबा आसमान की ओर ऐसे देख रहे थे, मानो दिन की रोशनी में कोई खोया हुआ तारा ढूँढ रहे हों। उसके कुछ दिन बाद हमें पता चला था कि ताई की खोई हुई चीज़ नहीं मिली थी पर उसके एवज़ में बाबा ने माँ की कोई उतनी ही कीमती चीज़ ताई को दिलवा दी थी। उसके कुछ दिन बाद ताई अपना ट्रंक और दो-तीन पोटलियाँ लेकर एक दिन दोपहर में ही जब बाबा मिल खुलने की पड़ताल करने के लिए गए हुए थे, ताँगा मंगाकर चली गई थीं। उनके जाने के बाद हमें बाबा को देखकर लगने लगा था कि वह अपना जादू भूल गए हैं, या उनपर किए गए जादू का असर छटने लगा है।

   ताई के जाने के बाद, एक दिन मैंने बहिन को छोटे से कहते हुए सुना था कि ताई की माँ ने अपना सारा सोना तीरथ जाने से पहले ताई के पास रख छोड़ा था। जब वह तीरथ से लौटीं तो चाहती थीं कि ताई उसमें से कुछ सोना उन्हें लौटा दें जिसे बेच कर वह कुछ रकम मरने से पहले अपनी सेवा में लगे कुछ लोगों को दे सकें, पर इस बावत उनकी कई चिट्ठियाँ आने पर भी ताई अपनी माँ के पास उनका सामान लेकर नहीं गई थीं। वह चाहती थी कि हमारी माँ उनका वह सामान जो उनके पास उनकी माँ की धरोहर है, अपने सोने से बदल लें। जिसके लिए माँ ने मना कर दिया था। उसी के बाद एक दिन उन्होंने माँ को गुनिया के सामने लाकर खड़ाकर दिया था।

  नहीं पता बहिन की बात सच थी या झूठ पर तभी से एक ही घर में रहते हुए भी माँ और बाबा के बीच संवाद समाप्त हो गया था। और वह अबोला, तब से लेकर आज तक क़ायम था। माँ बाबा की हर जरूरत को समझती थीं और उनके मांगने से पहले ही बहिन से उनके पास भेज देती थीं। हम बड़े हो रहे थे पर अभी भी बाबा को ठीक से समझ नहीं पाते थे पर बहिन बहुत जल्दी माँ को समझने लगी थी। बल्कि वह धीरे-धीरे माँ की तरह होती जा रही थी। अभी मेरा कॉलेज का आखिरी साल पूरा होने में तीन महीने बाकी थे, छोटे ग्यारहवीं में था और बहिन पढ़ाई छोड़ चुकी थी कि अनायास बाबा बहुत बीमार पड़ गए थे। उन्हें गर्मी की एक चांदनी रात में लकवा मार गया था। वह अपना दायाँ हाथ और पाँव नहीं उठा पा रहे थे। उनकी ज़ुबान भी साथ नहीं दे रही थी। यूँ तो एक लम्बे समय से हम सभी एक अंजान बीमारी से पीड़ित थे जो हमें लगातार उदास बनाए रखती थी और हमारे घर को मोहल्ले के बाकी के घरों से अलग और रहस्यमय बनाती थी। पर बाबा की इस बीमारी से ये रहस्य और उदासी, और भी गहरा गए थे।  

  बाहर से हम सब सामान्य दिखने की लगातार एक असहज-सी कोशिश किया करते थे। पर भीतर ही भीतर हम सभी जानते थे कि एक अघोषित युद्ध घर की हवा में कई साल से टंगा है। लगता था कोई मिसाइल दीवार में आकर फंस गई है जो हलके से कंपन से भी फट सकती है। इसलिए हम तीनों भाई बहिन कभी एक दूसरे की बात का विरोध नहीं करते थे। विरोध से कंपन पैदा होने का डर था जिससे दीवार में फंसी वह मिसाइल फट सकती थी और वह सब कुछ जिसे हम घर समझते थे, एक झटके में उड़ सकता था। अब बाबा के अचानक इस तरह बीमार हो जाने से उस युद्ध के बिना किसी निर्णय के समाप्त होने की संभावनाएं बन रही थीं। कोई गाँठ थी जो बिना खुले ही घुल जाने वाली थी। इस बात का अफ़सोस बाबा की आँखों से धीरे-धीरे झर रहा था। पर उनमें अभी कुछ ऐसा था जिससे उम्मीद बंधी हुई थी, और वही शायद बाबा के प्राणों को भी हिलगाए हुए था।

   आज सुबह से उनकी साँस और तेज़ चलने लगी थी। आँखें रह रहके खुलतीं, फिर बंद हो जातीं। हम सब चाहते थे माँ एक बार बाबा के सामने आएं, एक बार बात हो जाए, पर दो लोगों के बीच बात कैसे फूटती है, हम नहीं जानते थे। पर दिन चढ़ने से पहले बहिन बैठक में आकर बोली, ‘यहाँ बिस्तर के पास एक कुर्सी रख दो, माँ बाहर आ रही हैं।’ हमने बिना कुछ पूछे कुर्सी उठाकर बिस्तर के पास रख दी। बाबा की कुर्सी। हमने पहले कभी माँ को उसपर बैठते नहीं देखा था।

   बीती रात हमने जागते हुए काटी थी और लगातार हमारी आँखें बाबा पर और कान भीतर माँ के गले से फूटने वाली किसी संभावित आवाज़ पर लगे थे। पर बहिन और माँ की बातचीत की कोई आवाज़ बाहर नहीं आई थी। पर बहिन ने माँ को न जाने बिना कुछ कहे-सुने कैसे बाबा के बारे में कुछ बता कर, बाबा के आगे आने के लिए मना लिया था। मैं सोच रहा था स्त्रियाँ सचमुच कुछ परा ध्वनियाँ सुन सकती हैं जिन्हें पुरुष कभी नहीं सुन पाते। तभी भीतर से माँ के हल्की-सी कराह के साथ उठने की आवाज़ आई। वह दीवार के सहारे चलती हुई आईं और बाबा के सामने शायद जीवन में पहली बार कुर्सी पर बैठ गईं। करवट लिए लेटे हुए बाबा ने अबकी बार जब आँखें खोलीं तो माँ को देखा। फिर सिर के नीचे दबा हाथ धीरे से निकाला और खोल दिया। उसमें वही क़ागज़ था जिसमें बहिन के मुताबिक़ ‘अना’ लिखा था, माँ का नाम, जिससे वह कभी किसी ऐसे क्षण में माँ को बुलाते थे जो उन्होंने और माँ ने ही देखा था और बड़ी बहिन ने कभी माँ के चेहरे पर उसे पढ़ लिया था। माँ पढ़ी-लिखी नहीं थीं। पर उन्होंने क़ाग़ज़ हाथ में लेकर पढ़ा। वह लिखावट, और उसको लिखते हुए मन में रहा आया भाव पढ़ लेती थीं। इस बार भी वह उसे पढ़ने में सफल रहीं। बाबा ने हाथ वापस खींचा और कान से लगा लिया।

  माँ ने आँखें बंद कर लीं।

 हमें एक पल को समय काँपता सा लगा। माँ ने जब आँखें खोलीं, तो वे पहले जैसी नहीं थीं। बाबा के हो हिले, पर शब्द नहीं निकले। पर हम सबने देखा कि मृत्यु से पहले, उस अनाविल क्षण में उनका चेहरा अक्लांत हो उठा। साँसे निर्बाध चलने लगीं और चेहरे पर एक मुस्कान किसी साफ़ सफ़्फ़ाक़ धारा पर सुबह की पहली किरण-सी झिलमिलाने लगी।

 ……फिर सब शांत हो गया। माँ अकंप बैठी रहीं। हमारे भीतर सालों पुराना डर फिर से सिर उठाने लगा। लगा माँ किसी के भी मरने पर नहीं रोएंगी, बाबा के मरने पे भी नहीं। उन्होंने बाबा का लिखा क़ाग़ज़ उठाकर गोद में रख लिया और धीरे-धीरे उनकी आँखों की कोरें भीगने लगीं। हम लोग बाबा को विदा करने की तैयारी करने लगे। बहिन माँ को उठाकर भीतर ले गई। वहाँ माँ बहिन से लिपट कर खूब रोईं। फिर कुछ देर बाद बहिन की गोद में सिर रखकर, पीठ सीधी करके लेट गईं।

  हमें लगा घर में पसरे जादू का असर छटने लगा है। सालों से साँस रोके खड़ी दीवारें साँस लेने लगी हैं। हमें बिना बोले ही लगा कि अब हमारे बीच कोई बात फूटेगी। हमने देखा घर की मुढ़ेरों पर दौड़ती गिलहरियों ने अपने आगे के पाँव ज़मीन पर टेक दिए हैं…, वे बैठकर सुस्ता रही हैं।


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