शिखा श्रीवास्तव

Abstract

2.5  

शिखा श्रीवास्तव

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चीख

चीख

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आज केस का फैसला आने वाला था। नित्या अपने कक्ष में आँखें बंद किये बीते दिनों के घटनाक्रमों की समीक्षा कर रही थी।

एक साल पहले का वो दिन उसकी और उसकी माँ 'काजल जी' की ज़िन्दगी का सबसे अनमोल दिन था जब एलएलबी की फाइनल परीक्षा का परिणाम घोषित हुआ और देखते ही देखते नित्या सारे विश्विद्यालय में चर्चा का विषय बन चुकी थी क्योंकि वो पहली लड़की थी जिसने विश्वविद्यालय के अब तक के इतिहास में टॉप किया था।

विश्विद्यालय में उसे सम्मानित करने के लिए एक विशेष कार्यक्रम रखा गया था। जब डिग्री और पुरस्कार लेने के लिए नित्या को मंच पर आमंत्रित किया गया तब उसने इच्छा जतायी की ये पुरस्कार उसे उसकी माँ अपने हाथों से दे।

ये सुनते ही दर्शक-दीर्घा में बैठी काजल जी घबरा गई, लेकिन नित्या की ज़िद के आगे उनकी एक ना चली। घबराई-सकुचाई सर झुकाये जब वो मंच पर पहुँची तब नित्या ने उनसे कहा "बस माँ, आज के बाद आपको कभी किसी के सामने इस तरह नज़रें नहीं चुरानी पड़ेंगी। आपकी आधी तपस्या आज सफल हुई। बाकी आधी सफल करने की जिम्मेदारी आपकी बेटी लेती है।"

काजल जी नित्या की बात का आशय नहीं समझ सकी, लेकिन उस वक्त उन्होंने उससे कुछ नहीं कहा।

अपनी बेटी के गले में मेडल पहनाते हुए काजल जी के खुशी के आँसू रोके नहीं रुक रहे थे। आखिरकार ये उनके अब तक के जीवन का पहला अवसर था जब वो किसी दुःख में विवश होकर नहीं अपितु खुशी की अधिकता से रो पड़ी थी।

नित्या ने अब हॉस्टल छोड़कर एक छोटा सा घर किराये पर ले लिया था।

काजल जी को लेकर जब वो वहाँ पहुँची तब उन्होंने सबसे पहले भगवान को भोग लगाया और फिर नित्या की पसंद का खाना बनाने में लग गयी।

खाना खाते हुए उन्हें अचानक मंच पर कही हुई नित्या की बात याद आयी। उन्होंने उस संदर्भ में जब नित्या से पूछा तो उसने कहा "माँ कुछ दिन का वक्त दो मुझे। सब बता दूँगी। पहले तो मुझे कल सुबह का इंतज़ार है। सहाय सर ने मुझे अपने दफ्तर बुलाया है। वो इस शहर के सबसे काबिल वकीलों में से एक है। अगर मुझे उनके अंडर रहकर प्रैक्टिस करने का अवसर मिल गया तो समझो आपकी बेटी की राह थोड़ी आसान हो जाएगी।"

"मुझे तेरी मेहनत पर पूरा भरोसा है लाडो। बस तू कल खुशखबरी लेकर आ जा तो मैं खुशी-खुशी गाँव वापस चली जाऊँ।" काजल जी ने प्यार से नित्या का सर सहलाया।

"नहीं माँ अब तुम कहीं नहीं जाओगी, यहीं शहर में मेरे साथ, मेरे पास रहोगी।" नित्या ने कहा।

काजल जी ने चुपचाप सहमति में सर हिला दिया। वैसे भी नित्या के अलावा इस दुनिया में उनका था ही कौन।

अगले दिन जब मिठाई के डिब्बे के साथ नित्या घर पहुँची तब काजल जी समझ गयी कि नित्या की इच्छा पूरी हो गयी है और सहाय सर ने उसे अपना सहायक बना लिया है।

अपनी बेटी को कामयाबी की सीढ़ियां चढ़ते हुए देखकर काजल जी के अब तक के जीवन के सारे दुःख मानों मिटते जा रहे थे।

लेकिन इन दुखों की गहरी छाया जो नित्या के मन में बसी हुई थी उसका हल्का होना अभी सम्भव नहीं था।

सहाय सर के साथ काम करते हुए धीरे-धीरे नित्या वकालत से जुड़ी सारी बारीकियां सीखती जा रही थी।

सहाय सर भी उसकी मेहनत से बहुत प्रसन्न थे। वो उनकी सबसे पसंदीदा शिष्यों में से एक बन चुकी थी।

अब वक्त आ चुका था जब सहाय सर चाहते थे कि नित्या स्वतंत्र रूप से अदालत में केस लड़ना शुरू करे।

उन्होंने अपने पास आये हुए एक महत्वपूर्ण केस की फ़ाइल उसके आगे रखी तब नित्या ने कहा "सर इस बार ये केस आप संभाल लीजिये क्योंकि अपना पहला केस मैंने तब ही चुन लिया था जब मैंने वकालत की प्रवेश-परीक्षा देना तय किया था।"

उसकी बात सुनकर सहाय सर आश्चर्य से उसकी तरफ देख रहे थे। उनके पूछने पर नित्या ने एक पेपर निकालकर उनके आगे रखा।

उस पेपर पर जिसका नाम लिखा था उसे पढ़कर सहाय सर ने चौंककर कहा "अगर मैं गलत नहीं हूँ तो ये नाम 'श्रीमान विजय राज' तो तुम्हारे पिताजी का है। तुम उनके खिलाफ केस करने जा रही हो?"

"जी सर, मेरा पहला केस उसी शख्स के खिलाफ है जो बदकिस्मती से मेरे सारे सर्टिफिकेट्स पर मेरा पिता कहलाता है।" नित्या ने पेपर पर नज़रें गड़ाये हुए कहा।

सहाय सर बोले "अगर तुम्हें आपत्ति ना हो तो क्या मैं इसकी वजह जान सकता हूँ?"

अपनी भावनाओं को संभालने की कोशिश करते हुए भर्राई आवाज़ में नित्या ने कहा "मेरी माँ का रंग काला है। हमारे समाज में सुंदरता का जो पैमाना है वो उस पर खरी नहीं उतरती। अच्छे-खासे दहेज़ का लालच देकर किसी तरह मेरे नानाजी ने उनकी शादी करवा दी। मेरे दादाजी के मजबूर करने पर श्रीमान विजय ने शादी तो कर ली लेकिन उन्होंने कभी मेरी माँ को अपनी पत्नी होने का सम्मान नहीं दिया। यहाँ तक कि इंसान होने का भी सम्मान नहीं दिया। महीनों घर से गायब रहते। जब आते तब भी माँ को अपमानित करने का कोई अवसर नहीं छोड़ते। कभी-कभार बस रात के अँधेरे में अपने पति होने का हक जमाने पहुँच जाते।

मेरी सीधी-सादी माँ अपने आँसुओं को पीकर जीती रही, इस उम्मीद में सबकी सेवा करती रही कि शायद एक दिन लोग उसकी सूरत के आगे उसकी सीरत को रखेंगे। लेकिन अफ़सोस की ये किताबी बातें किताबी ही रह गयी।

कुछ वक्त के बाद माँ को पता चला वो गर्भवती है। उनके मन में एक आस जगी की शायद ये आने वाली संतान उनके और उनके पति के बीच की दूरी को मिटा देगी।

लेकिन अफ़सोस की जब मेरी माँ को अपने पति के साथ कि, प्यार की, आराम और देखभाल की सबसे ज्यादा जरूरत थी वो फिर उसे अकेली छोड़कर गायब हो चुका था।

और सर आप तो जानते हैं कि ससुराल में जिस स्त्री का पति उसका सम्मान नहीं करता, कोई उसका सम्मान नहीं करता। मेरी माँ की हैसियत उस घर में सिवा एक मुफ्त की नौकरानी के कुछ नहीं थी जो हर वक्त सबकी सेवा में लगी रहती थी।

डिलीवरी के लिए अस्पताल जाने के दिन तक शायद ही कभी उसके तन और मन को आराम मिला।

और फिर वो दिन आया जब मेरा जन्म हुआ। माँ को लगा अब उसके दुःख के दिन बीत जाएंगे। लेकिन जैसे ही श्रीमान विजय ने मुझे पहली बार देखा उसी वक्त मेरी माँ पर इल्जाम लगा दिया कि ये संतान उनकी नहीं है क्योंकि मैंने भी संयोग से अपनी माँ की रंगत पायी थी।

मेरी माँ ने उस आदमी के आगे बहुत मिन्नतें की, रोयी-गिड़गिड़ाई की वो इस तरह का घटिया इल्जाम उनके चरित्र पर ना लगाये लेकिन उस इंसान पर मेरी माँ के आँसुओं का कोई असर नहीं हुआ। उसने अपने पिताजी से स्पष्ट शब्दों में कहा कि अगर उन्होंने मुझे और मेरी माँ को घर से नहीं निकाला तो वो हमेशा के लिए घर से चला जायेगा।

पुत्र-प्रेम में मजबूर मेरे दादाजी ने जब मेरे नानाजी को बुलाया और उन्हें मेरी माँ को ले जाने के लिए कहा तब उन्होंने भी हाथ जोड़कर कह दिया कि बेटी की विदाई के पश्चात अब उसके जीवन-मरण से उनका कोई सरोकार नहीं।

तब दादाजी ने गांव के खेत का एक छोटा सा टुकड़ा और खेत से लगा एक छोटा सा घर मेरी माँ को देकर हमें वहाँ भेज दिया।

मेरी अनपढ़ माँ को ना अपने अधिकारों की जानकारी थी, और ना कोई उनका मार्गदर्शन करने वाला था।

वो बिना किसी प्रतिकार के मुझे लेकर गाँव चली गयी। अकेले उस खेत के टुकड़े पर मेहनत-मजदूरी करके किसी तरह उन्होंने मुझे पाला-पोसा, लेकिन अपनी बेटी के आगे कभी उन्होंने अपनी आँखों में आँसू नहीं आने दिये।

खुद अनपढ़ रहते हुए भी मेरी शिक्षा के प्रति वो पूरी तरह जागरूक थी।

ऐसे ही दिन गुजर रहे थे कि खबर आयी श्रीमान विजय ने दूसरी शादी कर ली है।

गाँव के कुछ लोग जो अब तक माँ के सरल और स्नेही व्यवहार के कारण उनका सम्मान करने लगे थे और उनके शुभचिंतक बन चुके थे, उन्होंने माँ को समझाया कि उन्हें इस विवाह का विरोध करना चाहिए लेकिन मेरी माँ ने इंकार करते हुए कह दिया कि उनमें इतनी हिम्मत नहीं है। वैसे भी जो रिश्ता कभी होकर भी था ही नहीं उसके लिए क्या लड़ना।

गाँव वालों के जाने के बाद उस दिन पहली बार मेरी माँ मेरे आगे रोयी।

तब मुझे चीजों की ज्यादा समझ नहीं थी लेकिन इतना समझ गयी थी कि जो मेरे पिताजी है उनके कारण मेरी माँ दुखी है।

मैंने उनके आँसू पोंछते हुए कहा "माँ मुझे पता चल गया पिताजी अब कभी हमारे पास नहीं आएंगे। तुम मत रो। मैं अब कभी ज़िद नहीं करूँगी की पिताजी को बुलाओ या मुझे उनके पास ले चलो।

गाँव में कोई मुझे चिढ़ायेगा भी की मेरी माँ को मेरे पिताजी के बारे में नहीं पता है तब भी मैं नहीं रोऊँगी। तुम्हें परेशान नहीं करूँगी।"

मेरी बातें सुनकर माँ और जोर से रो पड़ी। रोते-रोते ही हम माँ-बेटी ना जाने कब सो गए।

अगली सुबह विद्यालय के लिए जाते वक्त मेरे बालमन ने ये तय कर लिया था कि मैं पढ़-लिखकर इतनी काबिल बनूँगी की अपनी माँ को रुलाने वाले को रुला सकूँ। मुझे ये समझ आ गया था कि मेरी माँ की सबसे बड़ी कमी उनकी अशिक्षा थी। अगर वो विद्यालय वाली मैडम जी की तरह पढ़ी-लिखी होती तब वो भी उनकी तरह हँसती-मुस्कुराती, खुश रहती, सब उसका सम्मान करते।

जैसे-जैसे मैं ऊँची कक्षा में पहुँचती गयी मुझे कानून की, व्यक्ति के अधिकारों की समझ होने लगी और मैंने अपना रास्ता चुन लिया कानून का रास्ता जिस पर चलकर मुझे अपनी माँ का खोया हुआ सम्मान लौटाना था, बिना किसी गलती के समाज में उनकी झुकी हुई नज़रों को उठाना था।

मेरी माँ ने मेरा पूरा साथ दिया और आज वकालत पास करके मैं आपके इस दफ्तर में खड़ी हूँ। अब मेरी बारी है सर की मैं अपनी माँ का साथ दूँ जिसे सबने अकेला छोड़ दिया।"

नित्या की बातें सुनकर सहाय सर बोले "आगे बढ़ो नित्या, कोर्ट का नोटिस उस शख्स को भिजवा दो। मैं पूरी तरह तुम्हारे साथ हूँ।"

उनकी बात सुनकर नित्या थोड़ी आश्वस्त हो गयी औऱ उसने विजय के पते पर कोर्ट का नोटिस भिजवा दिया जिसमें उस पर ये इल्जाम लगाया गया था कि उसने बिना पहली पत्नी को तलाक दिए गैरकानूनी रूप से दूसरी शादी की और अपनी पहली पत्नी के चरित्र पर गलत इल्जाम लगाकर उसकी संतान को स्वीकार नहीं किया जिसके कारण उसे और उसकी संतान को समाज में कदम-कदम पर अपमानित होना पड़ा।

नोटिस भिजवाने के बाद नित्या घर के लिए निकल गयी। घर पहुँचकर उसने काजल जी के आगे नोटिस की एक कॉपी रखते हुए कहा "माँ, ये है तुम्हारे सवाल का जवाब।"

काजल जी ने हैरानी से कागज देखते हुए कहा "ये क्या है लाडो? क्या लिखा है इसमें?"

जब नित्या ने उन्हें इस नोटिस में लिखी बातें बतायी तो वो कुछ देर तक खामोशी से बस उसका चेहरा देखती रह गयी।

"क्या हुआ माँ? कुछ बोलो।" नित्या ने काजल जी झिंझोरा तो उनकी तंद्रा टूटी।

अपने आँसुओं को रोकने की कोशिश करती हुई काजल जी बोली "इसकी क्या जरूरत थी लाडो? जब तब किसी ने हमारी बात नहीं सुनी तो अब क्या सुनेगा?"

"ये बहरा समाज किसी निरीह की मूक वेदना नहीं सुनता माँ। इसे सुनाने के लिए कभी-कभी चीखना पड़ता है। ये नोटिस वही चीख है।

जो सम्मान तुम्हारा हक था, वो तुम्हारी बेटी तुम्हारे लिए लेकर आयेगी।

तुम्हारी बेटी लड़ेगी तुम्हारे लिए क्योंकि जो स्वयं अपने लिए नहीं लड़ते, कोई उनके लिए नहीं लड़ता, कोई उनके हक में नहीं बोलता। अब ये आँसू तुम नहीं वो लोग बहाएंगे जिन्होंने तुम्हारे साथ गलत किया है।" नित्या ने काजल जी के आँसू पोंछते हुए कहा।

उधर जब कोर्ट का नोटिस विजय के घर पहुँचा तो उसे देखकर सबके होश उड़ गए कि ये अचानक इतने सालों के बाद उस कायर काजल में इतनी हिम्मत कैसे आ गयी जो वो अपनी वकील से ये नोटिस भिजवा रही है।

विजय ने अपनी परेशान दूसरी पत्नी स्मिता से कहा "तुम फिक्र मत करो, मैं देख लूँगा इसे कोर्ट में। इनसे निपटने के लिए मुझे किसी वकील की भी जरूरत नहीं है।"

नियत तिथि पर सालों के बाद जब दोनों पक्षों का अदालत परिसर में आमना-सामना हुआ तो काजल जी के साथ नित्या को देखते ही विजय समझ गया कि काजल जी की वकील कौन है।

उसने काजल जी के पास जाकर कहा "अपनी दो कौड़ी की नाजायज़ बेटी के साथ मिलकर मुझसे लड़ने चली हो? भूल गयी क्या हालत की थी मैंने तुम्हारी?"

हमेशा की तरह आज भी काजल जी कुछ बोल नहीं पायी लेकिन नित्या ने जवाब देते हुए कहा "दो कौड़ी का और नाजायज़ कौन है ये अब अदालत बतायेगी। और हम कुछ भूले नहीं इसलिए तो आपके सामने यहाँ खड़े हैं।"

विजय की प्रतिक्रिया का इंतज़ार किये बिना नित्या काजल का हाथ थामे अदालत के अंदर चली गयी।

तय वक्त पर अदालत की कार्यवाही शुरू हुई।

जज साहब का अभिवादन करते हुए नित्या ने अपनी मुवक्किल की तरफ से आरोप लगाने की इजाज़त माँगी।

इजाज़त मिलते ही नित्या ने कहना शुरू किया "श्रीमान विजय राज, आप पर आपकी पत्नी की तरफ से पहला आरोप ये है कि मर्ज़ी ना होने के बावजूद आपने अपने परिवार के दबाव और दहेज के लालच में उनसे विवाह किया लेकिन कभी उन्हें पत्नी होने का सम्मान नहीं दिया, अपितु हमेशा उनका शोषण किया, उन्हें अपमानित किया जबकि इसमें मेरी मुव्वक्किल की कोई गलती नहीं थी। चाहे मजबूरी में ही सही पर विवाह में आपकी मर्जी शामिल थी।

और मैंने पहली पत्नी की जगह सिर्फ पत्नी शब्द का इस्तेमाल इसलिए किया है क्योंकि बिना मेरी मुव्वक्किल को कानूनी रूप से तलाक दिए आपने जो शादी की है वो शादी और उससे उत्पन्न बच्चे सभी कानून की नज़र में नाजायज़ हैं।"

नित्या के मुँह से ये बात सुनकर विजय और उसकी तथाकथित पत्नी स्मिता के चेहरे के रंग अब उड़ने लगे थे।

नित्या ने आगे कहा "आप पर दूसरा इल्जाम ये है कि अपनी पत्नी को घर से निकालते वक्त ना तो आपने दहेज में मिला हुआ सामान उन्हें लौटाया और ना ही उनका स्त्री-धन उन्हें दिया।"

एक कागज़ जज महोदय की तरफ बढ़ाते हुए नित्या बोली "सर, इसमें उन सारे सामानों की सूची है जो मेरी मुव्वकिल वापस चाहती हैं। सामान तो अब इस्तेमाल के लायक रह नहीं गए होंगे इसलिए आपसे आग्रह है कि उनकी कीमत मेरी मुव्वक्किल को दिलवायी जाये।"

जज साहब बोले "फैसले के वक्त इस पर विचार किया जायेगा। फिलहाल आप आगे बढ़िए।"

"जी जज साहब।" कहते हुए नित्या ने अपना तीसरा और अंतिम इल्जाम लगाया।

"श्रीमान विजय आप पर अंतिम इल्जाम ये है कि आपने काजल जी से उत्पन्न अपनी संतान को अपनाने से इंकार करके उन पर चरित्रहीनता का झूठा इल्जाम लगाया।"

"मैंने बिल्कुल सच्चा इल्जाम लगाया। कोई झूठ नहीं बोला।" विजय चीखकर बोला।

"कौन से इल्जाम सच्चे हैं, कौन से झूठे ये अब अदालत तय करेगी। आप अदालत की मर्यादा में रहकर तभी बोलिये जब बोलने के लिए कहा जाये।" जज साहब ने आदेश देते हुए विजय से कहा।

एक बार फिर नित्या जज साहब से मुखातिब होते हुए बोली " सर, मैं अपने इल्जामों को साबित करने के लिए गवाहों को बुलाने की आज्ञा चाहूँगी।"

आज्ञा मिलते ही नित्या ने गवाहों को बुलाना शुरू किया जिनमें विजय के अपने दोनों भाई और भाभी के साथ बरसों से उनके पड़ोसी रहे लोग और दूसरे रिश्तेदार भी शामिल थे।

कानून और सज़ा का डर दिखाकर नित्या और सहाय सर ने उन्हें अदालत में सच बोलने के लिए राजी कर लिया था।

जैसे-जैसे गवाही होती गयी विजय और स्मिता के चेहरों के रंग उड़ते गए।

तीसरे इल्जाम की सच्चाई साबित करने के लिए अदालत ने डीएनए टेस्ट की इजाज़त नित्या को दे दी।

विजय चाहकर भी इससे इंकार नहीं कर सकता था।

डीएनए टेस्ट की रिपोर्ट आने के बाद केस की आगे की सुनवाई होने वाली थी।

जहाँ विजय और स्मिता बेचैन थे वहाँ पहली बार नित्या और काजल जी को आज सुकून महसूस हो रहा था।

एक सप्ताह के बाद डीएनए की रिपोर्ट के साथ एक बार फिर नित्या अदालत में विजय के सामने खड़ी थी।

रिपोर्ट पढ़ने के बाद जज साहब ने कहा "श्रीमान विजय आप पर लगाये हुए सभी आरोप सही साबित हो चुके हैं। क्या आपको या आपके वकील को अपनी सफाई में कुछ कहना है?"

विजय ने सर झुकाये हुए कुछ भी कहने से इंकार कर दिया। अब वो कहता भी तो क्या? उसके सारे झूठों की पोल नित्या ने खोलकर रख दी थी।

पहली बार अदालत में काजल की आवाज़ आयी "साहब मैं कुछ कहना चाहती हूँ।"

इजाज़त मिलने पर कटघरे में आकर काजल जी ने कहा "साहब आप जो न्याय करेंगे हमें मंजूर होगा बस आप इनको जेल मत भेजियेगा। हमें पता चला है इनके छोटे बेटे बहुत बीमार रहते हैं। हम उनको दुख नहीं देना चाहते।"

काजल जी की बात सुनकर नित्या के साथ-साथ अदालत में मौजूद सभी लोग हैरान थे। स्मिता अब नज़र उठाकर उनकी तरफ देख भी नहीं पा रही थी।

नित्या ने काजल जी की तरफ से कहा "सर, मेरी मुव्वक्किल चाहती हैं कि श्रीमान विजय कानूनी रूप से तलाक देकर उन्हें मुक्त कर दें और उनकी संतान का जायज हक उन्हें देकर अपनी दूसरी नाजायज़ शादी को जायज़ बना ले।"

ये शब्द बोलते हुए नित्या जान-बूझकर विजय की तरफ देख रही थी लेकिन विजय अब खामोशी से सर झुकाए खड़ा था।

जज साहब ने फैसला एक दिन के लिए टाल दिया।

अदालत से निकलकर नित्या और काजल जी घर की तरफ निकले ही थे कि स्मिता उनके सामने आकर खड़ी हो गयी और बोली "मुझे माफ़ कर दीजिये। जितना दोष विजय का है उतना मेरा भी है। सब कुछ जानकर भी मैंने उससे शादी की।"

"हमें आपसे कोई शिकायत नहीं है।" कहकर काजल जी आगे बढ़ गयी।

अगला दिन फैसले का दिन था। नित्या वक्त से कुछ पहले ही आकर अपने कक्ष में बैठी बीते दिनों के बारे में सोच रही थी।

ये केस ना सिर्फ़ उसके व्यक्तिगत जीवन के लिए महत्व रखता था अपितु उसका पहला स्वतंत्र केस होने के कारण उसके वकालती जीवन के लिए भी बहुत महत्व रखता था।

सहाय सर की आवाज़ से नित्या की तंद्रा भंग हुई और वो वापस वर्तमान में आ गयी।

तय वक्त पर जज साहब के आते ही अदालत की कार्यवाही शुरू हुई।

जज साहब ने काजल जी और विजय के तलाक पर मुहर लगाते हुए पहले शारीरिक और फिर बाद के वर्षों में काजल को घर से निकालकर उसे मानसिक रूप से प्रताड़ित करने के लिए पांच लाख जुर्माना लगाया। जुर्माने की रकम उसे काजल जी को देनी थी। दहेज में मिले हुए सारे सामानों की वर्तमान कीमत के साथ-साथ काजल जी के तमाम जेवर भी उन्हें सौंपने का निर्णय जज साहब ने दे दिया था।

साथ ही विजय की संतान होने के नाते उसकी संपत्ति पर नित्या का जो हक था वो उसे देने का आदेश भी जज साहब ने दिया।

विजय से मुखातिब होते हुए जज साहब बोले "हालांकि आपको सश्रम कारावास होना चाहिए था लेकिन साबित होने के बाद भी काजल जी की तरफ से कुछ इल्जामों को वापस लेने की वजह से आपको छोड़ा जा रहा है। इसलिए उम्मीद है कि भविष्य में आप इन्हें परेशान नहीं करेंगे वरना अदालत फिर किसी तरह के आग्रह पर विचार नहीं करेगी।"

विजय ने हाथ जोड़कर इस फैसले से अपनी सहमति जता दी।

अदालत से बाहर निकलकर जैसे ही नित्या और काजल जी का विजय से सामना हुआ, नित्या बोली "अब तो आपको पता चल गया होगा कि दो कौड़ी का कौन है और नाजायज़ कौन?

दूसरी बात, आप इस गलतफहमी में मत रहियेगा की मुझे और मेरी माँ को आपके पैसों का कोई लालच है। आपसे मिले हुए सारे पैसे और सम्पत्ति हम महिला आश्रम में दान दे रहे हैं। मेरी जिस माँ ने ज़मीन के एक छोटे से टुकड़े पर मजदूरी करके अपनी बेटी का पालन-पोषण कर लिया उस माँ को और उसकी इस सक्षम बेटी को आपके पैसों की जरूरत कभी नहीं पड़ेगी।

लेकिन अगर हम अपना हक छोड़ देते तो आप जैसे लोगों को सबक कैसे मिलता?

मुझे बस आपसे एक ही चीज चाहिए थी, मेरी माँ के चरित्र पर आपके द्वारा लगाये हुए झूठे आरोप से मुक्ति और समाज में उसके खोये हुए सम्मान की वापसी जो मैं आपसे छीन चुकी हूँ।"

विजय ने उसकी बात का कोई जवाब दिये बिना काजल जी से कहा "काजल, मुझे माफ़...।"

लेकिन काजल उसकी बात पूरी होने से पहले ही आगे बढ़ चुकी थी।

अगले दिन के अख़बार नित्या की तारीफ़ों से रंगे हुए थे। विजय से मिलने वाली सारी रकम और संपत्ति महिला आश्रम में दान देने के फैसले की वजह से भी उसकी बहुत तारीफ़ हो रही थी।

कुछ दिनों के बाद दो दिनों की छुट्टी में नित्या काजल जी को साथ लेकर अपने गाँव पहुँची।

गाँव में भी नित्या की जीत की खबरें पहुँच चुकी थी।

जो लोग आज तक काजल जी और नित्या का मज़ाक उड़ाते थे, उन्हें अपमानित करने का, उन पर ऊँगली उठाने का अवसर ढूँढते थे, आज उन सबके सर झुके हुए थे और अपने संघर्ष के साथ-साथ अपनी बेटी की बदौलत पहली बार काजल जी सबसे नज़रें मिलाकर बातें कर रही थी।

जीवन में पहली बार उनके होंठो पर संतोष भरी मुस्कुराहट सजी हुई थी।

रेडियो पर किसी फिल्म की सुनी गयी पंक्तियां आज उन्हें सार्थक होती हुई प्रतीत हो रही थी कि जब बेटी खड़ी होती है तभी जीत बड़ी होती है।

अपनी माँ को खुश और मुस्कुराते हुए देखकर नित्या बोली "माँ, तुम्हारी इस मुस्कान ने मुझे आज जीत का असली अहसास दिया है। बस तुम इसी तरह मुस्कुराती रहो, तुम्हारी बेटी जीत के रास्ते पर आगे बढ़ती रहेगी।"

नित्या के सर पर आशीर्वाद भरा हाथ रखते हुए काजल जी ने उसे गले से लगाते हुए कहा "तूने सच कहा था लाडो, कभी-कभी अपनी आवाज़ सुनाने के लिए हमें चीखना पड़ता है।

तेरी माँ को तेरी इस चीख पर गर्व है।"

नित्या स्वयं को अपनी माँ के आँचल में छुपाते हुए मन ही मन इस लम्हे के लिए ईश्वर के प्रति आभार प्रकट करती हुई मुस्कुरा रही थी।


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