शिखा श्रीवास्तव

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शिखा श्रीवास्तव

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बचपन की बारिश कागज की कश्ती

बचपन की बारिश कागज की कश्ती

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दरवाज़े की लगातार बजती हुई घंटी से मंदिरा की नींद उचट गयी।

"माँ, अरे देखो कोई आया है, दरवाजा खोल दो।" उसने बिना आँखें खोले कहा।और फिर अगले ही पल एक झटके में उठकर बैठ गयी।

"मैं भी ना पागल हो गयी हूँ। माँ यहाँ कहाँ है, वो तो अपने उसूल पसंद बेटे में ही रमी है।मेरी फिक्र किसे है।" बड़बड़ाती हुई मंदिरा उठी और दरवाजा खोल दिया।सामने उसकी कामवाली मीना खड़ी थी।

"अरे तू? आज इतनी जल्दी कैसे? अभी तो सात ही बजे हैं।" मंदिरा ने पूछा।

"अरे बीबीजी, कल राखी है ना। इसलिए मुझे जल्दी-जल्दी सारा काम खत्म करके घर जाना है।कल भाई आयेगा तो उसके स्वागत की तैयारी भी तो करनी है। इसलिए मुझे आज शाम की छुट्टी चाहिए।" मीना ने उत्साह से कहा।

"तू बहुत लकी है कि तेरा भाई तेरे पास आता है।" सहसा मंदिरा बोल पड़ी।

"क्यों बीबीजी, आपके भाई नहीं आयेंगे कल?" मीना ने पूछा।मंदिरा ने कोई जवाब नहीं दिया और अपने कमरे में चली गयी।उसका सर दर्द से फटा जा रहा था, जो कि देर रात तक एक केस पर काम करने का असर था।मंदिरा इस शहर की सबसे नामी वकील थी और हाई सोसायटी की पहली चॉइस।

सरदर्द की गोली खाने के बाद उसने अपनी असिस्टेंट रीटा को फोन किया।

"हैलो रीटा, मेरी तबियत कुछ ठीक नहीं लग रही है। आज तो बस एक ही हियरिंग है तुम देख लेना। मैं नहीं आऊँगी।कोई दिक्कत हो तो फोन कर लेना।"

"ओके मैम। कोई दिक्कत है तो मैं आ जाऊँ क्या?" रीटा ने कहा।

"नहीं उसकी जरूरत नहीं है। थैंक्स।" कहकर मंदिरा ने फोन रख दिया।थोड़ी देर में मीना घर का काम खत्म करके चली गयी।मंदिरा बेमन से उठी और फ्रेश होकर थोड़ा-बहुत नाश्ता करके फिर से अपने कमरे में आ गयी।शायद रात भर की थकान का असर था कि उसे फिर से नींद आ गयी।

अचानक बादलों की तेज गड़गड़ाहट से मंदिरा की नींद टूटी।वो उठकर बालकनी में आयी तो देखा मूसलाधार बारिश हो रही थी।वो वहीं कुर्सी डालकर बैठ गयी और अपने हाथ बाहर निकालकर बारिश की बूँदों से अठखेलियाँ करते हुए ना जाने किन ख्यालों में डूब गयी।कुछ देर के बाद बच्चों के शोरगुल से मंदिरा का ध्यान टूटा। उसने बालकनी से झांककर देखा उसके बगल वाले फ्लैट के बच्चे अपने बगीचे में बारिश का आनंद लेते हुए भीग रहे थे।

उनकी बातचीत के स्वर मंदिरा के कानों में भी आ रहे थे।

"भैया-भैया, चलो ना नाव बनाकर तैराते हैं।" वो छोटी बच्ची अपने भाई से कह रही थी।उसका भाई अंदर गया और पानी का टब लेकर आ गया।

"जब तक इसमें पानी भरेगा, मैं नाव बनाता हूँ।तू भी आ-जा मेरे साथ।" भाई बच्ची को लेकर अंदर चला गया।थोड़ी ही देर में दोनों बच्चे अपनी-अपनी नाव लेकर निकले और टब में डाल दिया जो अब तक बारिश के पानी से भर चुका था।लेकिन आसमान से तेज़ रफ़्तार में गिरती बारिश की बूँदों से उनकी नाव टूटकर डूब गयी।ये देखकर वो बच्ची रोने लगी।

"अरे-अरे रोते नहीं है। चल उस छज्जे के नीचे टब को रखते हैं। वहाँ हमारी नाव नहीं डूबेगी।" भाई बच्ची के आँसू पोंछता हुआ बोलाअगले ही पल दोनों बच्चे टब को खिसकाकर छज्जे के नीचे ले जा चुके थे।और भाई ने फिर से दो नाव बनाकर उसमें डाल दिया था।उनमें प्रतियोगिता शुरू हो चुकी थी। वो बच्ची ताली बजा-बजाकर कह रही थी "देखो भैया, मेरी नाव आगे निकल गयी। मैं जीत गयी।"भाई मुस्कुराता हुआ उसे देख रहा था।तभी बच्ची की नाव डूब गयी।ये देखकर उसका भाई उसे चिढ़ाने लगा।लेकिन जब उसने देखा कि उसकी बहन इस हार से रो पड़ी है तो उसने अपनी बहन को गले लगाते हुए कहा "पगली मेरी नाव भी तो तेरी है।"ये सुनकर बच्ची फिर से खुश होकर ताली बजाने लगी।इन दोनों को देखकर मंदिरा को अपने बचपन और भाई की याद आने लगी।मंदिरा और उसके बड़े भैया मुदित के बारे में सब कहते थे कि दोनों दो शरीर एक जान हैं।मंदिरा को बचपन से ही बारिश बहुत पसंद थी।

बरसात के मौसम में वो अक्सर मुदित के साथ छत पर चली जाती और दोनों भाई-बहन उस पाइप को जाम कर देते जिससे छत पर जमा होने वाला पानी बाहर निकलता था।सके बाद जब छत पर पानी का जमाव हो जाता तो दोनों उसमें खूब छप-छप करके मज़े लेते।मुदित हमेशा मंदिरा के लिए बहुत सुंदर-सुंदर नाव बनाता था।मंदिरा से बहुत कोशिश करने पर भी कभी अच्छी नाव नहीं बन पाती थी।और उसके बाद शुरू होती थी दोनों भाई-बहन की प्रतियोगिता।जब मंदिरा जीत जाती तो खुशी से नाच पड़ती, लेकिन जब हार जाती तो उसका चेहरा उतर जाता।इसलिए मुदित अक्सर जान-बूझकर उसे जीतने देता था और उसकी खुशी में खुश हो लेता था।मुदित पढ़ने में होशियार था, वहीं मंदिरा थोड़ी कमजोर थी।

कभी-कभी यूँ ही बचपने में मुदित उसे चिढ़ाया करता था "मंदिरा मंदी है।"

धीरे-धीरे ये बात मंदिरा के दिल-दिमाग में बैठती चली गयी और उसने मन ही मन ठान लिया कि वो एक दिन मुदित से ज्यादा कामयाब होकर दिखायेगी।बारहवीं के बाद मुदित लॉ की पढ़ाई कर रहा था।मंदिरा ने भी अपनी बारहवीं के बाद लॉ को ही चुना।मुदित अपने कार्यक्षेत्र में उसूलों का पक्का था। वो कभी गलत का साथ नहीं देता था, चाहे उसे कितनी ही मोटी फीस क्यों ना ऑफर की जाये।लेकिन तेज़ी से आगे बढ़ने और नाम कमाने की चाह में मंदिरा सही-गलत, सच-झूठ की जगह उन केसों को लेती थी जिनसे उसे ज्यादा पैसे भी मिले और अखबारों में जगह भी।

मुदित ने कई बार मंदिरा को समझाना चाहा, लेकिन मंदिरा का यही जवाब होता था "भैया, आपके उसूलों ने आपको क्या दिया है? बस दो वक्त की रोटी। लेकिन मुझे इससे ज्यादा चाहिए।"उसका कहना था सच वही है जो साबित हो जाये अन्यथा वो झूठ है।मंदिरा का रिकॉर्ड बन चुका था कि वो अपने कैरियर में आज तक एक भी केस नहीं हारी थी।पिछले साल की बात है उसके पास एक केस आया।एक नामचीन उद्योगपति ने अपने कर्मचारी पर गबन का आरोप लगाया था।हालांकि कर्मचारी का कहना था कि गबन उसने नहीं, खुद उधोगपति के बेटे ने किया है और वो इसका गवाह है।मंदिरा को उधोगपति ने केस के लिए मोटी रकम ऑफर की।मंदिरा ने केस ले लिया।तारीख आने पर जब वो अपने मुवक्किल की तरफ से अदालत पहुँची तो ये देखकर हैरान रह गयी कि उसके सामने उस कर्मचारी की तरफ़ से लड़ने वाला कोई और नहीं उसका भाई मुदित था।अदालत में दोनों भाई-बहन की जिरह शूरु हो चुकी थी।

दोनों अपने-अपने मुवक्किल की तरफ से सबूत औऱ गवाह पेश कर रहे थे।उस दिन केस का फैसला नहीं हो सका।घर पहुँचकर मुदित ने मंदिरा से कहा "मंदी तू गलत कर रही है। उस गरीब कर्मचारी को बिना गलती के मत फँसा।"

"पहली बात भैया, मैं अब मंदी नहीं हूँ। आपसे बहुत आगे निकल चुकी हूँ।और दूसरी बात मैं अपने मुवक्किल की तरफ़ से लड़कर अपना काम कर रही हूँ। कोई व्यक्तिगत दुश्मनी नहीं निकाल रही किसी से।"मुदित समझ गया मंदिरा को कुछ भी कहना बेकार है।दोनों भाई-बहन जी-जान से अपने-अपने पक्षों को जीतवाने की कोशिश में लगे हुए थे।आखिरकार अगली तारीख में मंदिरा के सारे झूठे सबूत और गवाहों की पोल मुदित ने खोल दी और सच अदालत के सामने रख दिया।अदालत ने कर्मचारी को रिहा करने के साथ-साथ उस उधोगपति को उसे हर्जाना देने का भी आदेश दिया और उसके बेटे पर फिर से गबन का केस चलाने का हुक्म भी सुना दिया।

मंदिरा की आँखों से आज अपने भाई के लिए नफरत की आग बरस रही थी जिसकी वजह से उसके जीतने का रिकॉर्ड आज टूट गया था।वो बाहर निकलीतो देखा उस कर्मचारी की पत्नी मुदित को घर से लाया हुआ हलवा खिलाकर बार-बार हाथ जोड़कर धन्यवाद कह रही थी।मंदिरा ने एक नज़र उन सबको देखा और वितृष्णा से मुँह फेरकर अपनी कार में बैठ गयी और घर के लिए निकल गयी।मुदित जानता था मंदिरा का मूड बहुत खराब होगा। इसलिए वो भी उसे मनाने के लिए घर चल पड़ा। आखिर वो सबसे पहले उसकी दुलारी सी बहन थी।जब मुदित घर पहुँचा तो बारिश शुरू हो चुकी थीमंदिरा अपने कमरे में था !मुदित ने बचपन की तरह कागज की नाव बनायी और मंदिरा के पास गया।

"देख मंदिरा, बारिश हो रही है। आ जा नाव तैराकर बचपन को याद करें।" मुदित लाड़ से बोला।

"क्यों जीत का हलवा खाकर आपका पेट नहीं भरा जो फिर चले आये मुझे हराने की योजना बनाकर।" मंदिरा गुस्से से बोली।

"ये तू क्या कह रही है? और दफ्तर की बातों को घर में लाने का क्या मतलब है?" मुदित ने कहा।

"मतलब है, हज़ार बार मतलब है। आपसे बर्दाश्त नहीं हो रहा था कि जिसे आप मंदी कहते थे वो आपसे आगे कैसे निकल गयी?इसलिए आपने जानबूझकर ये केस लिया ताकि मेरा रिकॉर्ड खराब कर सकें। और अब आकर झूठा लाड़ दिखा रहे हैं।" मंदिरा चिल्लाई।

उसकी तेज़ आवाज़ सुनकर उसके माँ-पापा भी वहाँ आ गये।

"यही तमीज है मंदिरा तू अपने बड़े भाई पर चिल्ला रही है।" माँ ने मंदिरा को डाँटते हुए कहा।

"हाँ-हाँ आप लोग तो मुझे ही समझायेंगे। ये आपका लाडला बेटा जो है।" मंदिरा बोली।

"हम सच के साथ हैं मंदिरा और तेरा भाई सच की राह पर है। उसने उस गरीब कर्मचारी को सज़ा से बचाकर उसके परिवार को सड़क पर आने से बचाया है और ये हमारे लिए गर्व की बात है।" मंदिरा के पापा बोले।मुदित ने फिर से मंदिरा का गुस्सा ठंडा करने की कोशिश करते हुए कहा "अब भूल भी जा उन बातों को। आ माँ के हाथ के चाय-पकोड़े खाते हैं और कल की राखी की प्लानिंग करते हैं।"

"अब और क्या बचा है। राखी का उपहार तो आपने आज अदालत में दे ही दिया।" मंदिरा अभी भी गुस्से में थी।धीरे-धीरे बात इतनी बढ़ गयी कि मंदिरा ने कह दिया कि वो अब एक छत के नीचे मुदित के साथ नहीं रहेगी।उसके पास उसके एक क्लाइंट का दिया हुआ फ्लैट था। मंदिरा ने वहीं जाने का फैसला कर लिया।

उसने अपने माँ-पापा से भी अपने साथ चलने के लिए कहा, पर उसके पापा बोले "आप जाइये मिस मंदिरा, इस शहर की सबसे नामी वकील को ही आलीशान फ्लैट में रहना शोभा देता है, हम जैसे साधारण लोगों को नहीं।हमारा ये छोटा सा घर हमारे आत्मसम्मान का प्रतीक है, अपने ईमान को बेचकर कमायी हुई कीमत नहीं।"मंदिरा ने इस बात का कोई जवाब नहीं दिया और अपना सामान लेकर उसी वक्त चली गयी।

अगले दिन राखी थी। मुदित ने एक बार फिर कोशिश की कि शायद अब मंदिरा का मन शांत हो गया हो, लेकिन उसने मुदित का फोन नहीं उठाया और उस फ्लैट में पैर रखना मुदित के लिए गंवारा नहीं था।कुछ दिन बीतने पर उसके माँ-पापा ने भी एक-दो बार कोशिश की मंदिरा को लौटा लाने की लेकिन वो नहीं आयी।हारकर सबने उसे उसके अहंकार और ज़िद के साथ अकेला छोड़ दिया।

आज मीना की बात, बारिश, उन बच्चों के खेल ने मंदिरा को अपने भाई और बचपन की बेतहाशा याद दिला दी थी।वो चाहकर भी अपना ध्यान कहीं और नहीं लगा पा रही थी।हारकर वो उठी और अंदर चली आयी।फिर उसने ड्रावर से नींद की एक गोली निकालकर खा ली।

जब नींद की गोली का असर खत्म हुआ तो आधी रात हो रही थी।भूख से मंदिरा के पेट में चूहे कुलबुला रहे थे।वो उठी और रसोई में जाकर मैगी बनाने लगी।मैगी बनाते-बनाते एक बार फिर वो बचपन की यादों में खो गयी।जब कभी घर में उसकी मनपसंद सब्जी नहीं बनती थी तब वो बेमन से किसी तरह थोड़ा-बहुत खाकर उठ जाती थी।और फिर देर रात में मुदित को जगाकर कहती थी "चलो ना भैया, मैगी बनाये।"

और फिर दोनों भाई-बहन उठकर रसोई की तरफ चल देते।उनकी पूरी कोशिश रहती की बिना ज्यादा खटपट की आवाज़ के वो जल्दी-जल्दी मैगी बनाकर कमरे में आ जाये।एक तरफ मुदित मैगी बनाता, दूसरी तरफ मंदिरा कॉफी।और फिर दोनों भाई-बहन की लेट-नाईट पार्टी शुरू हो जाती।

आज अकेले मैगी बनाते हुए मंदिरा की आँखों से आँसू छलक उठे।उसने सारी मैगी डस्टबिन में डाल दी और वापस आ गयी।

एक तरफ़ रात का अँधेरा गहराता जा रहा था, दूसरी तरफ मंदिरा के मन पर छाया हुआ अँधेरा छंटता जा रहा था।सुबह सूरज की किरणों ने जैसे ही धरती के हृदय पर दस्तक दी, मंदिरा भी उठ गयी।उसने अलमारी खोली तो उसे वो साड़ी नज़र आयी जो मुदित अपनी पहली कमाई से उसके लिए लाया था।

आज ये साधारण साड़ी उसे दुनिया की सबसे कीमती साड़ी लग रही थी।उसने वो साड़ी निकाली और उसे प्रेस किया।

थोड़ी ही देर में मंदिरा अपने फ्लैट से निकल चुकी थी।उधर दरवाजे पर दस्तक की आवाज़ सुनकर जब मंदिरा की माँ ने दरवाजा खोला तो सामने मंदिरा को देखकर हैरान भी हुई और खुश भी।

"ऐसे ही देखती रहोगी माँ या अंदर भी आने दोगी?" मंदिरा बोली।उसकी आवाज़ सुनकर मुदित और उसके पापा भी बाहर आ गये।

मंदिरा ने अपने माँ-पापा के पैर छुये और बचपन की तरह भागकर मुदित के पास चली गयी।अपने बैग से कागज की नाव निकालकर मुदित के हाथ में रखते हुए मंदिरा बोली "देखो भैया, तुम्हारी मंदी से अब भी ये नाव परफेक्ट नहीं बनती।मेरे लिए नाव बना दोगे ना?"

मुदित ने बिना कुछ कहे उसे गले से लगा लिया।

"अपनी मंदी को माफ कर दो भैया। मुझे मेरी गलतियों का अहसास हो चुका है।" मंदिरा की आँखों में आँसू थे।

"चुप पगली।" मुदित ने उसके आँसुओं को पोंछते हुए कहा।

"भैया, मैंने तय कर लिया है मैं अब कभी गलत का साथ नहीं दूँगी।मैं और आप साथ मिलकर सच के लिए लड़ेंगे, जरूरतमंदों के लिए लड़ेंगे।

और अपनी अब तक की सारी कमाई और संपत्ति को मैं जरूरतमंद लोगों के लिए एक ट्रस्ट खोलने में लगा दूँगी।" मंदिरा ने कहा।

उसकी ये बात सुनकर मुदित ने उसके सर पर हाथ रखते हुए कहा "आज मेरी मंदी सचमुच मुझसे बहुत आगे निकल गयी है। मुझे तुझ पर गर्व है।"

मंदिरा अंदर गयी और तुरंत राखी की थाली सजाकर ले आयी।

एक राखी बांधने के बाद जब उसने दूसरी राखी बांधनी शुरू की तो मुदित ने पूछा "ये क्या है? दो राखियां क्यों?"

"ये दूसरी राखी पिछले साल का उधार है। और आपको भी अपना उधार चुकाते हुए मुझे दो उपहार देने होंगे।" मंदिरा इठलाते हुए बोली।

"ठीक है बाबा, जितने मन हो उतने उपहार ले लेना। अब चल पहले साथ में नाश्ता करते हैं।" मुदित बोला।

"हाँ माँ, जल्दी कुछ खिला दो। कल दिन भर की भूखी है तुम्हारी बेटी।

नाश्ते की मेज पर आज एक बार फिर पूरे परिवार की हँसी-ठिठोली से रौनक आ गयी थी।थोड़ी ही देर में देखते-देखते आसमान काले बादलों से घिर गया और बरसात शुरू हो गयी।मंदिरा मुदित का हाथ पकड़कर छत पर चली गयी।एक बार फिर बारिश के पानी में कागज की नाव तैराते हुए दोनों भाई-बहन छोटे बच्चे बन गये थे, लेकिन आज उनके बीच कोई प्रतियोगिता नहीं थी।बारिश के पानी में तैरती हुई कागज की कश्ती उनके बीच आ गयी सारी कड़वाहटों को हमेशा-हमेशा के लिए अपने साथ बहाकर दूर ले जा रही थी।



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