शिखा श्रीवास्तव

Inspirational

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शिखा श्रीवास्तव

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आपका परिवार

आपका परिवार

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चित्रा बेचैनी से बिस्तर पर करवट बदल रही थी। रात के दो बज रहे थे लेकिन उसकी आँखों से आज नींद कोसों दूर थी।

उसका एक साल का बेटा मिट्ठू बहुत देर तक रोने के बाद किसी तरह शांत होकर थोड़ी देर पहले ही सोया था। बिस्तर पर अपने पति की खाली जगह देखकर उसे रोना आ रहा था।

चित्रा के पति चेतन व्यापार के सिलसिले में तीन दिनों के लिए बाहर गए हुए थे। घर में इस वक्त उसके और मिट्ठू के अलावा बस सास-ससुर थे।

बूढ़े सास-ससुर के लिए कड़ाके की ठंडी रात में बार-बार कमरे से निकलकर आना मुश्किल था। इसलिए वो अकेले ही किसी तरह रोते हुए मिट्ठू को संभाल रही थी।

चेतन के बिना इस वक्त वो स्वयं को बहुत अकेला महसूस कर रही थी। सोच-सोचकर ही उसके प्राण हलक में अटके जा रहे थे कि आधी रात में अगर मिट्ठू को कोई गंभीर समस्या हो जाती और वो लगातार रोता ही रहता तब वो अकेली कहाँ जाती? सास-ससुर की दौड़भाग वाली उम्र नहीं थी और आस-पड़ोस से पता नहीं कोई आता भी या नहीं।

जब ये सारे विचार उसे डराने लगे तब स्वयं का ध्यान भटकाने के लिए उसने अपना फोन उठाया और फ़ेसबुक के पन्ने ऊपर-नीचे करने लगी।

फ़ेसबुक के लगभग सभी पेज पिछले साल हुए घातक आतंकी हमले में शहीद हुए वीर सैनिकों के सम्मान और याद में किये गए पोस्ट से भरे पड़े थे।

उन्हें पढ़कर सहसा चित्रा को ख्याल आया कि उसका पति महज तीन रातों के लिए उससे दूर गया है और वो इतना घबरा रही है। लेकिन जिनके पति-पिता-पुत्र महीनों के लिए उनसे दूर सरहद पर रहते हैं या देश को अपने प्राण अर्पित कर देते हैं, वो लोग, वो परिवार कैसे रहते होंगे? क्या उन्हें भी इस तरह की घबराहट नहीं होती होगी कि अगर आधी रात में कोई विपदा आ गयी तो वो कैसे संभालेंगे? जैसा हमारा सामाजिक ढाँचा है उसमें जरूरी तो नहीं सारी स्त्रियां मजबूत और सक्षम ही होती होंगी, या फिर हर घर में कोई और सदस्य, कोई ऐसा पड़ोसी भी होगा जो मुसीबत में तुरंत आकर खड़ा हो जाये। बहुत से घरों में ऐसे ही लाचार बुजुर्ग होंगे जिन्हें स्वयं मदद की आवश्यकता रहती होगी, ऐसे ही छोटे बच्चे होंगे जो आधी रात को इसी तरह रोते होंगे और उनकी माँ परेशान हो जाती होगी कि बच्चे को कोई गंभीर समस्या तो नहीं हो गयी।

सरहद पर दिन-रात तैनात उन परिवारों के बेटों-पतियों और पिताओं की बदौलत ही तो देश के अंदर हमारे जैसे परिवार सुकून से सो पा रहे हैं।

तो क्या हम सबका ये कर्तव्य नहीं बनता की उनकी गैर-मौजूदगी में हम उनके परिवार की सुरक्षा करें, उनका ख्याल रखें, उन्हें अकेलेपन का अहसास ना होने दें?

इन्हीं विचारों में डूबते-उतराते हुए ना जाने कब उसकी आँख लग गयी।

सुबह नींद खुलने पर उसे रात के अपने विचारों का ध्यान आया। उसने मन ही मन कुछ तय किया और जल्दी-जल्दी घर के काम निपटाने में लग गयी।

दोपहर में जब मिट्ठू सो गया तब अपने सास-ससुर को उसका ध्यान रखने के लिए कहकर चित्रा उस क्लब की तरफ बढ़ गयी जिसकी वो सदस्य थी। आज वहाँ भी सैनिकों के सम्मान में कार्यक्रम का आयोजन किया गया था।

क्लब की अध्यक्ष के ओजपूर्ण भाषण से कार्यक्रम की शुरुआत हुई। कई महिलाओं ने वीर-रस की कविताएं पढ़ी। हिंदुस्तान जिंदाबाद, पाकिस्तान मुर्दाबाद के नारे भी लगे। मोमबत्तियां भी जलाई गयी।

इन सबके बाद जब कार्यक्रम का समापन होने लगा तब अध्यक्ष महोदया से आज्ञा लेकर चित्रा मंच पर पहुँची।

माइक संभालते हुए उसने कहा "क्या महज वीर जवानों की याद में मोमबत्तियां जला देने से, उनके सम्मान में चंद पंक्तियां पढ़ देने भर से उनके प्रति, उनके परिवारों के प्रति हमारी जिम्मेदारी, हमारी जवाबदेही खत्म हो जाती है? बिल्कुल नहीं। इस देश के हर एक नागरिक का ये फ़र्ज़ बनता है कि जिनकी वजह से उसका परिवार सुरक्षित है, उनके परिवारों की सुरक्षा के लिए वो सब मिलकर आगे आये।"

चित्रा की बात सुनकर सभी ने तालियां बजाकर सहमति जतायी।

अध्यक्ष महोदया ने चित्रा से कहा "तुम्हारी बातों को सुनकर ऐसा लग रहा है जैसे तुम्हारे दिल-दिमाग में कोई उलझन भी है और उसका हल भी। अपनी बात पूरी करो और बताओ तुम आदरणीय सैनिकों के लिए क्या करना चाहती हो? क्या चल रहा है तुम्हारे मन में?"

उनकी बात सुनकर चित्रा ने पिछली रात मिट्ठू के रोने पर हुई घबराहट, और उसके बाद सैनिकों के परिवारों की ऐसी ही समस्याओं के बारे में अपने मन में आये विचारों को बताते हुए कहा "मैं सोच रही हूँ हम सब मिलकर एक छोटी सी शुरुआत करते हुए एक ऐसी संस्था बनाये जो आस-पास के इलाकों में रह रहे सैनिकों के परिवारों की मददगार बने। अगर कभी आधी रात में उन्हें किसी भी तरह की जरूरत हो तो हमारी संस्था उनकी मदद करने के लिए तैयार खड़ी हो। बहुत से घरों में ऐसी भी महिलाएं होंगी जिन्हें घर से बाहर काम पर भी जाना होता होगा। जरूरी नहीं उनके पीछे उनके बच्चों या घर के बुजुर्गों को संभालने वाला कोई मौजूद हो या फिर उनकी आर्थिक स्थिति इतनी अच्छी हो कि वो आया या कामवाली रख सकें। हम सब मिलकर उनकी इस समस्या का समाधान करें और उनके पीछे अकेले रह गए बच्चों के लिए, बुजुर्गों के लिए डे केयर की व्यवस्था करें ताकि वो बेफिक्र होकर अपने परिवार की आर्थिक जिम्मेदारी उठा सकें।

मैंने पढ़ा कि अभी भी शहीद हुए बहुत से सैनिकों के परिवारों को ना तो सरकार से मुआवज़े के पैसे मिल पाए हैं ना सदस्यों को नौकरी। उन घरों में बहुत से ऐसे भी होंगे जिनके लिए नौकरी और पैसे के लिए अकेले दौड़भाग कर पाना संभव नहीं हो पा रहा होगा। कभी वो महिलाएं सोचती होंगी बच्चों और बुजुर्गों को अकेले छोड़कर कहाँ-कहाँ भटके तो कभी शायद वो स्वयं को इतना मजबूत नहीं पाती होंगी की सरकारी दफ्तरों में अकेली जा सकें जिसका फायदा निःसंदेह बिचौलिए उठाते ही होंगे। हमें ऐसी महिलाओं की मदद के लिए भी आगे आना चाहिए। उनके घर के सदस्यों की देखभाल के लिए डे केयर होगा ही। बस हमें उनकी हिम्मत बढ़ाते हुए, उन्हें हौसला देते हुए उनके साथ संबंधित दफ्तरों में जाना चाहिए ताकि वो स्वयं को अशक्त और अकेला ना समझें।

अगर हम सब अपने घर और दफ्तर के साथ-साथ रोज एक-दो घंटे का भी वक्त निकाल लें तो बारी-बारी से मिलकर इस संस्था की जिम्मेदारी उठा सकते हैं। हमारे घरों के जो बुजुर्ग रिटायर हो चुके हैं पर सेहतमंद हैं हम उन्हें इस संस्था से जोड़ सकते हैं ताकि उनका खाली वक्त भी अच्छे काम में लगे और संस्था की भी मदद हो जाये।"

चित्रा की बात से वहाँ मौजूद सभी लोग सहमत नज़र आ रहे थे।

मंच पर जाकर अध्यक्ष महोदया बोली "चित्रा ने ठीक कहा सिर्फ ऐसे कार्यक्रमों के आयोजन से हम सबकी जिम्मेदारी खत्म नहीं हो जाती। जिन वीर सैनिकों ने अपने कंधों पर हम सब देशवासियों की जिम्मेदारी ले रखी है, उनके परिवार की जिम्मेदारी हम सबकी है जिसे हम खुशी से उठाएंगे।

जल्द से जल्द हम सब मिलकर इस संस्था का गठन करके सभी सदस्यों की सुविधा अनुसार हफ्ते के हर दिन संस्था में अपना वक्त देने वाले लोगों की सूची तैयार करेंगे और अखबारों, रेडियो, सोशल मीडिया के साथ-साथ स्वयं भी आस-पास के इलाकों में रहने वाले सैनिकों के परिवारों में जाकर इस संस्था की जानकारी उन्हें देंगे ताकि जब भी किसी भी तरह की मुसीबत आये, उन्हें किसी मदद की दरकार हो तो वो हमें अपने साथ खड़ा पाए। साथ ही हम पूरे देश से ये अपील करेंगे कि वो अपने-अपने इलाकों में मिलकर ऐसी ही संस्था बनाये ताकि पूरे देश में कहीं भी किसी भी सैनिक का परिवार कभी स्वयं को अकेला और असहाय ना समझे।"

अध्यक्ष महोदया की बात का स्वागत करते हुए सभी ने तालियां बजायी और सबका ध्यान इस ओर दिलाने के लिए चित्रा को भी बधाई दी।

कुछ ही दिनों में संस्था का गठन हो गया जिसका नाम रखा गया 'आपका परिवार'।

अब वो महिलाएं जो अकेली पड़ जाने की वजह से ना अपनी नौकरी पर ध्यान दे पा रहीं थी, ना दफ्तरों के चक्कर लगा पा रही थी उनके होंठो पर भी मुस्कान खिलने लगी थी। जो अकेली रातों में घबराकर उठ जाया करती थी अब नींद से उनकी भी दोस्ती होने लगी थी।

कभी डे केयर में बारी-बारी से सैनिकों के परिवारों के सदस्यों और बच्चों की देखभाल करते हुए तो कभी आधी रात में उनकी मदद के लिए आगे बढ़कर तो कभी उनके साथ दफ्तरों के चक्कर काटते हुए क्लब के सदस्य देश के प्रति अपने प्रेम और कर्तव्य को निभाते हुए स्वयं को धन्य मान रहे थे कि उन्हें इस नेक काम से जुड़ने का मौका मिला।

इस संस्था के बारे में पढ़कर अब दूसरे शहरों के लोग भी 'आपका परिवार' की श्रृंखला को आगे बढ़ाने के लिए पहल करने लगे थे।

सबके सहयोग से अपने सपने और अपनी सोच को साकार होता हुआ देखकर चित्रा की आँखें नम हो चली थी।

सैनिकों की तस्वीरें देखते हुए उसने मन ही मन कहा "आपके बलिदानों के आगे हमारा ये प्रयास कुछ भी नहीं। बस आप सबसे सदा यही आशीष चाहेंगे की जब भी जरूरत पड़े देश के लिए, देश के सैनिकों के लिए हम डटकर खड़े हो सकें।"

अपने परिवारों के लिए हर वक्त मौजद 'आपका परिवार' को देखकर वीर सैनिकों की तस्वीरें भी आज मुस्कुरा रही थी।



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