वेदना माँ की
वेदना माँ की
मैं पृथ्वी हूँ। मुझ पर रहने वाले सारे निवासी, जीव-जंतु माता कहते है मुझे।
लेकिन अफसोस कि माता की इज्जत करना भूल चुकी है मेरी ये संतानें।
मैंने इन्हें जीवन दिया, आश्रय दिया, अनाज दिया, लेकिन मेरी ये कृतघ्न संतानें अंधाधुंध प्रगति की इच्छा में दिनों-दिन अपनी माता के शरीर को खोखला करती जा रहीं है।
मुझे इस बात का दुख नहीं है कि दिन पर दिन खोती जा रही हूँ मैं अपना जीवन, क्षीण हो रही है मेरी आयु। दुख है कि मैं ना रही तो मेरी इन संतानों का क्या होगा?
इसलिए अपने तरीके से वक्त-वक्त पर मैंने इन्हें संकेत भी दिए, कभी तूफान के रूप में, कभी भूकंप, तो कभी बाढ़ के रूप में। लेकिन इन्होंने मेरे संकेतों को समझने की कोशिश ही नहीं की।
मेरे सबसे लायक बेटे, ये वृक्ष, ये जंगल, मेरी सबसे लायक बेटियां, ये नदियां, ये सब मिलकर ना सिर्फ मेरे और मेरे बाकी संतानों के स्वास्थ्य की रक्षा करते है, बल्कि सबकी भूख-प्यास मिटाकर जीवन के साधन भी उपलब्ध कराते है।
लेकिन हाय रे मेरी सबसे नालायक संतान, ये इंसान बजाए इनकी कद्र करने के, इनकी रक्षा करने के, अपनी तरक्की के नशे में चूर इनका अस्तित्व मिटाता जा रहा है।
काश किसी तरह मेरे इन मूर्ख बालकों की समझ में आये की अगर माता का ही अस्तित्व ना रहा तो संतानों का अस्तित्व तो स्वतः ही मिट जाएगा।
बस मेरा एक ही सवाल है सबसे। अपने माता-पिता के बूढ़े और लाचार होने पर तो रख आते हो उन्हें वृद्ध-आश्रम में, पर मुझे किस आश्रम में रखोगे जब मैं हो जाऊंगी पूरी तरह बीमार और लाचार।