Manoj Kushwaha

Children Stories

5.0  

Manoj Kushwaha

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"एक पागल औरत : माया"

"एक पागल औरत : माया"

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स्त्री, नारी, औरत चाहे किसी भी नाम से पुकारें हमारे समाज में नारी का एक विशिष्ट स्थान है क्योंकि संसार के सृजन का मूल, प्रकृति के स्वरूप को भी माँ माना गया है। आदर्शवाद का ये सूत्र स्कूलों में पढ़ाया जाता रहा है, ये एक समाज का आदर्श होना भी चाहिए और माधव भी इस सूत्र से बढ़ा प्रभावित था। अपने बालपन के खेल कूद के साथ साथ, स्कूल आते जाते यहाँ वहाँ बड़ी ही उत्सुकता वश इस सूत्र से जुड़े उदाहरण देखता समझता रहता था। उसे ये तो समझ आ गया कि इसमें असमानता बहुत है मगर कितनी ये उसका कोमल मन समझ नहीं पा रहा था लेकिन एक एहसास था कि इसके लिए कुछ तो करना होगा।

समय अपनी गति से चलता रहा, पढ़ाई भी लेकिन समाज एक अलग ही गति से आगे बढ़ रह था जहाँ मानवाधिकारों की बात हो रही थी, आगे बढ़ने की बात हो रही थी, चांद से आगे जाने की योजनाएँ बनाई जा रही थी किंतु हर सुविधा, सुरक्षा, प्रगतिशीलता, शिक्षा का वादा और उसकी पहुँच केवल एक तपके तक सीमित थी। जिन्हें शायद इसकी सबसे ज्यादा जरूरत थी, जिनके उत्थान के लिए इन योजनाओं का निर्माण किया गया था वे अब भी इससे वंचित ही थे, लेकिन सरकार के इन सब दाव पेंच से दूर माधव का मन एक अलग ही गति से दौड़ रहा था, "मन की गति" जिसे मापने के लिए आज तक कोई भी यन्त्र उपलब्ध नहीं हो पाया है। इस प्रगतिशील दुनिया में जहाँ सब कुछ बहुत तेज़ी से बदल रहा था वहीं भारत में भी बदलाव हो रह थे लेकिन एक वंचित वर्ग भी था जो इन सबसे अनजान अपनी मूल आवश्यकताओं को पूरा करने में ही जीवन व्यतीत कर देता है।

मन की गति अपने नियम से, समय की गति सृष्टि के नियमानुसार और दुनिया अपनी गति से बढ़ती रही, मौसम बदला बरसात थमी और प्रकृति ने शीत ऋतू की चादर ओढ़ ली। उन दशकों में सर्दी जल्दी आया करती थी और जाड़े की रात एवं सुबह का अपना ही एक मज़ा था, उन दिनों रात में कड़ाके की ठण्ड पड़ती थी तो वहीं सुबह हर तरफ कोहरे-धुंध की एक सफ़ेद चादर दिखाई पड़ती थी। 90 के दशक में इतनी सुविधाएँ नहीं थी तो लोग सुबह जल्दी उठ जाया करते थे और सूर्य देवता के प्रकट होने का बेसब्री से इंतज़ार किया करते थे कि, कब धूप निकले और कब दिनचर्या सुचारु रूप से चले। लेकिन माधव तो एक बालक था, बच्चा था जिसे स्कूल जाना होता था, पहले पिता जी स्कूल छोड़ा करते थे पर अब कभी कभार वह खुद भी स्कूल चला जाता था। ऐसी ही एक कुहासे भरी सुबह माधव अपने आप स्कूल जा रहा था, ठण्ड ऐसी जो पूरे शरीर में ठिठुरन भर दे फिर भी स्कूल जाना तब एक नियम होता था, आगे बढ़ते हुए जैसे ही माधव अपनी गली से दाहिनी ओर मुड़ा और कुछ कदम चला तो उसे एक औरत के कुछ बड़बड़ाने की आवाज़ सुनाई दी। स्कूल समय पर पहुँचना था लेकिन उस आवाज़ ने उसे कुछ आकर्षित किया, उसे लगा मानो कोई अपनी झुंझलाहट में कुछ बके जा रहा हो, उसे काली-सी एक परछाई-सी दिखी लेकिन स्कूल समय पर पहुँचने की जल्दी थी और वो आगे बढ़ गया।

आज पूरे दिन स्कूल में उसके कानों में वहीं बुदबुदाहट गूंजती रही, ना ही खाना खाया और ना ही खेल-कूद, पढ़ाई में मन ही लगा, माधव एक बालक था लेकिन औरों से अलग उसे समाज की चिंता थी, पिता जी की सीख उसे रोज सामाजिक व्यवस्था पर सोचने को मजबूर कर देती थी। उसने निश्चय किया कि अगले दिन समय से पहले निकल कर उस आवाज़ का राज़ जान कर ही आगे बढ़ेगा, बच्चे का कोमल मन एवं दृढ निश्चय पत्थरों को भी पिघलाने की क्षमता रखता है फिर ये तो बस एक आवाज़ थी। पूरे दिन की बेचैनी के बाद रात को मौसम और माँ के दुलार ने हर बच्चे की ही तरह माधव को भी सुला दिया, आज उसके सपनों पर भी सुबह की धुंध में सुनी उस बुदबुदाहट का ही कब्ज़ा था। माँ की लोरी सुनकर माधव और बाकी भाई-बहन सो गए, माँ को भी कहीं ना कहीं माधव की बेचैनी का एहसास था लेकिन हर माँ की तरह प्यार-दुलार कर के एक मीठी नींद सुला ही दिया। एक सर्द-बेचैन रात कैसी होती है वह आज माधव को पता चलने वाला था। कुछ ही देर में घर में जलती हुई तेल की डिबरी बंद हो हुई और चारों ओर घना अँधेरा छा गया, कुछ देर बाद एक दूसरे की दिनचर्या के बारे में जान कर घर में आखिरी जगे हुए दो व्यक्ति माधव के माता-पिता भी सो गए।

अगली सुबह जल्दी तैयार होकर समय से पहले ही माधव स्कूल के लिए निकल पड़ा, गली के कोहरे में धीरे-धीरे आगे बढ़ते हुए, दाहिने मुड़ के जैसे ही कुछ दूर चला तो उसी बुदबुदाहट ने उसका ध्यान आकर्षित किया, एक बड़ा-सा खाली प्लॉट, पीछे बनियान पहने खेलते हुए छोटे-छोटे 2 बच्चे, बड़ा-सा जंग लगा हुआ लोहे का एक काला गेट और उसके बीचों बीच मैले-कुचले कपड़े पहने बैठी एक औरत, वह उस ओर बढ़ा ही था कि पीछे से एक आवाज़ ने उसे रोक लिया: " ऐ माधव, कहाँ जा रहा है? वापस आ वो औरत पागल है, रोज़ सुबह ऐसे ही बर्तन मांझते हुए बड़बड़ाती रहती है, प्लॉट की रखवाली करती है। माधव भी वापस होते हुए तेज़ी से अपने स्कूल की ओर बढ़ चला, आज का दिन भी उसे बेचैन किये हुआ था। मन में कई सवाल कौंध रहे थे, क्या वह औरत सच में पागल है? आखिर उस बड़े, खाली पड़े प्लाट में दिन भर करती क्या है? उसके परिवार वाले उसका ध्यान क्यों नहीं रखते? वगैरह वगैरह! बीच बीच में अलग-अलग पीरियड की घंटी बजती रही, छुट्टी हुई और माधव घर आ गया। अब वह जब भी वहाँ से गुजरता तो आते जाते उस तरफ एक बार देखते हुए निकलता था, दिन में तो वहाँ कभी कोई नहीं दिखता था, लोहे का वह बड़ा जंग लगा गेट बंद ही रहता था। अभी तक उसे अपने किसी भी सवाल का कोई जवाब नहीं मिला था फिर अचनाक एक दिन दोपहर के समय स्कूल से घर लौटते हुए उसने देखा कि उस प्लॉट के आगे कुछ लोग खड़े हैं। अंदर से लड़ने की, गाली-गलौज की जोर-जोर से आवाज़ें आ रही हैं, पड़ोसी ने बताया कि आज उसका पति आया है, उसे छोड़ कर जा रहा है इसलिए ये सब कुछ चल रहा है।

उस दिन माधव रात भर ठीक से सो नहीं पाया, उसके मन में आदर्शवाद की वह सभी बातें कोलाहल मचाने लगी जहाँ उसके पिता के अनुसार भारतीय संस्कृति में नारी को एक पूजनीय स्थान दिया गया है और वहीं पास में ये अत्याचार आखिर क्यों? अभी उसका कोमल मन इस असमानता को समझ नहीं पा रहा था, उसे समझना बाकी था कि आदर्शवाद का पालन, आदर्श व्यक्तियों द्वारा ही किया जाता है और समाज में आदर्श बना रहे इसके लिए एक निरंतर प्रयास चाहिए। आखिरकार माधव ने सोचा कि क्यों न वह कुछ करे अपने स्तर पर और ये तो सब जानते ही हैं "जहाँ चाह वहाँ राह"। अगली सुबह माधव जब स्कूल के लिए निकलता तो एक 5 रूपये का सिक्का, उस समय जो बड़े अकार का आया करता था अपनी जेब में डाल कर निकलता और बर्तन मांझती उस औरत की तरफ बड़ी ही चालाकी से उछाल दिया करता था शायद इस तरह से उसकी कुछ मदद हो सके। अब ये लगभग रोज़ का सिलसिला बन गया था, माधव रोज़ एक 5 का सिक्का उसकी ओर उछाल देता और वह औरत भी इधर उधर देख कर पैसे अपने पास रख लिया करती थी।

इन कुछ दिनों में बहुत कुछ बदलाव आया था, ठंड पहले से बढ़ चुकी थी, अब माधव आदर्शवाद पर सवाल खड़े करने के बजाय यथार्थवाद को भी समझने लग गया था, वह कहीं न कहीं समझ चुका था कि सवाल करने के साथ ही उससे बिना विचलित हुए उसके समाधान के लिए भी कार्य करते रहना ही असली आदर्शवाद है। इन बीते दिनों में एक चीज़ और बदल चुकी थी अब वह औरत बड़बड़ाती नहीं थी अब आने जाने वालों को उसकी सिसकियों कि आवाज़ आती थी लेकिन कहीं न कहीं वह सिसकियाँ समाज कि विवशता, संवेदनशीलता को दर्शा रही थी। रोज़ की ही तरह आज भी माधव सिक्का चालाकी से उछालते हुए चला गया लेकिन शायद वह जान चुकी थी कि ये मदद कौन कर रहा है क्योंकि आज उसके चेहरे पर मुस्कान थी। माधव भी स्कूल में खुश रहने लगा, वो कहते हैं न जब कभी भी आप निष्काम भाव से कोई सेवा करते हैं तो मन का आनंदित होना तो स्वाभाविक ही है। उस औरत की मुस्कान ने माधव को एक प्रेरणा दी थी कि अगर ढृढ़ निश्चय हो तो  असंभव को भी संभव बनाया जा सकता है, उस दिन स्कूल से वापस आते हुए देखा तो उसने पाया वो बड़ा, काला, जंग लगा हुआ गेट खुला हुआ था तो कौतूहल वश उसने पड़ोसी से पूछा, "कि ये गेट तो बंद रहता था ना" तो पड़ोसी ने कहा कि "पता नहीं, गयी होगी वह पगली माया कहीं भटकने, आज उसका पति फिर आया था बहुत झगड़ा हुआ दोनों में"।

"माया", इतने दिनों में कभी उसका नाम जानने की कोशिश ही नहीं की, नाम के ही जैसा मायावी-सा व्यक्तित्व था उसका, उस रात माधव चैन की नींद सोया। अगली सुबह फिर हमेशा की तरह वही बड़ा 5 का सिक्का लेकर निकल पड़ा, हँसता-खेलता अपनी मंज़िल की ओर आगे बढ़ते हुए, थोड़ी दूर चलकर जब उसने दाहिनी ओर देखा तो आज वहाँ कोई हलचल नहीं थी, कोहरा भी कुछ कम था तो सभी कुछ साफ़ दिखाई दे रहा था। आज वो जंग लगा हुआ, काला गेट, वीरान-सा ही दिख रहा था, माधव सोच ही रहा था कि इतने में पड़ोसी ने बताया, "कि कल रात के अंधेरे में ही वह अपने दोनों बच्चों को लेकर कहीं चली गयी और गोदाम के मालिक ने एक नया गॉर्ड रख लिया है"। माधव को जैसे एक धक्का सा लगा, वो थोड़ा रुका फिर 5 रूपये के उस सिक्के को जेब में रखते हुए स्कूल की ओर बढ़ गया क्योंकि अब तक वह जान चुका था कि "माया" की मुक्ति के लिए अभी संघर्ष शुरू हुआ है। माया दोबारा कभी भी नहीं दिखी किंतु समाज में महिलाओं की स्थिति को लेकर माधव को सजग कर गयी।


यही थी "माया-एक पागल औरत" जो समाज के कितने ही रूपों को सबके सामने रख कर कहीं लुप्त हो गयी और माधव के जीवन में आने वाले  कई महत्त्वपूर्ण पड़ावों की नींव रख गयी। 


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