Manoj Kushwaha

Abstract Inspirational Children

4.4  

Manoj Kushwaha

Abstract Inspirational Children

"लम्बी छुट्टियाँ, वो बच्चे और मोती"

"लम्बी छुट्टियाँ, वो बच्चे और मोती"

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वो भी तो बच्चे ही थे, बिल्कुल आपके हमारे बच्चों जैसे, उन्हें भी वैसा ही प्यार-दुलार चाहिए जैसा कि हमारे बच्चों को क्योंकि निर्मल हृदय किसी भेदभाव को नहीं जानता-समझता अगर समझता है तो बस प्रेम की भाषा-निश्छल प्रेम। किसकी आंखों को भाते हैं भीख मांगते, भूख से रोते-बिलखते, अभाव में जीते हुए, दो वक़्त की रोटी कमाने के लिए घरों का काम करते हुए बच्चे, उनकी ये दशा शायद ही किसी को भाए लेकिन उनकी इस दशा के लिए जिम्मेदार कहीं न कहीं ये समाज ही है। खासकर वो समाज जो अपने सभ्य, श्रेष्ठ और जिम्मेदार होने का दंभ भरता है, ये कहानी एक ऐसी ही सत्य घटना पर आधारित है जिसका साक्षी मैं स्वयं हूँ क्यूंकि मैं भी इस कहानी का एक किरदार हूं।

साल 2019, जुलाई का महीना था, हम हर साल दिल्ली से इंदौर जाया करते थे और वहीं से आधे घंटे की दूरी पर उज्जैन के राजा, बाबा महाकाल के दर्शन भी कर आते थे। इस बार भी हमेशा की तरह गुरु पूर्णिमा पर इंदौर जाना तय हुआ, समय बहुत था इसलिए एक लम्बी छुट्टी की योजना बनाई कि आस-पास के पर्यटन स्थल जैसे मांडवगढ़ वगैरह भी घूम लेंगे। 

बस फिर क्या था निजामुद्दीन से इंदौर इंटरसिटी में मज़े से कोटा- सवाई माधोपुर-नागदा-उज्जैन होते हुए 12:30 बजे इंदौर पहुँच गए, हर बार की तरह ही हमने ऑटो किया और निकल पड़े अपनी मंज़िल की ओर। बार बार देखने के बाद भी हर सड़क, चौराहा, नुक्कड़ कुछ नए से लगते थे, दिल्ली की भागदौड़ से दूर एक अलग ही शांति का आभास हो रहा था। कुछ ही देर में घर पहुंचे अभी सामान उतार कर रखा ही था कि गली के अंतिम छोर पर मैले कुचले कपड़े पहने कुछ बच्चे खेलते दिखे, पहनावे से लग रहा था जैसे बंजारों के बच्चे हों। मुझे इतने गौर से उस तरफ देखते हुए मेरी सास ने कहा कि सामने खेत में एक परिवार रहता है ये उनके ही बच्चे हैं, दिन भर इधर उधर खेलते रहते हैं। दिन के 02:30 बज चुके थे और रात भर की थकान मिटाने के लिहाज़ से आज के दिन आराम करना ही सही लगा सो मुंह हाथ धोकर आराम करने चले गए। रात को सोने से पहले मैं जब टहलते हुए उस तरफ गया जहां दिन में बच्चे खड़े थे तो देखा एक स्त्री जिसकी उम्र ज्यादा नहीं लग रही थी, उन सभी बच्चों को बड़े ही प्यार से खाना खिला रही थी, मैं थोड़ी देर वहीं किनारे खड़ा रहा और वो मनमोहक दृश्य देखता रहा फिर वापस लौट गया अगली सुबह घूमने भी तो निकलना था।

अगली सुबह का मौसम बड़ा ही सुहाना था, रात भर की नींद से थकान दूर हो चुकी थी और एक नई स्फूर्ति का एहसास हो रहा था, आस पास के ज्यादातर लोग सुबह सुबह हाथ में पूजा की थाली लिए, एक लोटा जल लिए मंदिर की ओर जाते हुए दिख रहे थे। मैं भी तैयार होकर मंदिर की ओर चल निकला, रास्ते में जाते हुए एक नज़र खेत पर भी डालता गया लेकिन वहां कोई नहीं दिखा तो मैंने सोचा गए होंगे बच्चे कहीं खेलने और मैं मंदिर चला गया। 

मंदिर पास वाले पार्क में था, आस-पास हरे भरे फलदार वृक्ष, पार्क में खेलते हुए बच्चे और एक तरफ छोटा सा मंदिर जहाँ ज़्यादा भीड़ भाड़ ना होने की वजह से बड़ा शांत वातावरण था। मैं थोड़ी देर वहां बैठा, कुछ प्राणायाम किए इतने में ही मैंने देखा कि सामने से करीब एक 13-14 साल की बच्ची निकल रही थी, वो हाथ पोंछती हुयी जा रही थी, कपड़े वही गंदे से , मुझे उस ओर इस तरह से देखते हुए पास खड़ी एक माताजी ने बताया कि, "ये उन भीलों कि लड़की हैं, यहाँ झाड़ू पोंछा करने आती है। मकान मालिक बड़े ही सज्जन व्यक्ति हैं, स्कूल में अध्यापक हैं - बच्ची की परेशानी को देखते हुए उसे कुछ काम दे दिया, काम के बदले कुछ पैसे मिलेंगे तो उसके लिए अच्छा होगा"।

मेरे मन में आया कि उसकी मदद करने के लिए क्या उस नाबालिग बच्चे से काम करवाना जरूरी था ? नहीं !! फिर ये कैसा सभ्य समाज? क्या इसे सभ्य कहलाने का अधिकार है ? क्या एक अध्यापक को ये नहीं पता होगा कि बालश्रम एक दंडनीय अपराध है और अगर एक बार के लिए इस बात को नजरंदाज भी कर दें तो, समाज एक बच्चे के प्रति इतना असंवेदनशील कैसे हो सकता है? क्या वो अध्यापक या वहां आस पास रहने वाले लोग इतने सक्षम नहीं है जो बिना श्रम कराये, मानवता के नाते उसकी मदद कर दें? क्या अपने बच्चों से किसी सुविधा के बदले भी हम ऐसा ही व्यवहार करेंगे? ये सब सोच ही रहा था इतने में मेरा फ़ोन बजा, दूसरी तरफ से आवाज आयी, "समाधि लगा ली क्या, चलना नहीं है ? जल्दी आओ गाड़ी वाला आ गया है " मैंने उत्तर दिया, " हाँ, आता हूँ" और घर की तरफ चल दिया। वापसी में देखा तो उसी ख़ाली पड़े खेत में कुछ बच्चे बैठे थे, वो बड़ी लड़की चाय बना रही थी, करीब 09:30 बज चुके थे और चाय चढ़ी थी, आज मुझे चाय की कीमत का एहसास हो रहा था। मन ही मन मैंने सोचा कुछ तो करना है इन बच्चों के लिए। सामने परिवार वाले खड़े थे, मेरी बीवी की फ़िर से आवाज़ आई कि जल्दी करिए देर हो रही है और फिर हम घूमने निकल गए।

दिन भर घूमते हुए मैंने देखा कि कितने प्यार से हम अपने बच्चों के लिए उनके पसंद ही हर चीज़ एक इशारे पर सामने रख देते हैं और वहीं उस लड़की को चाय के लिए भी झाड़ू पोछा करना पड़ रहा था, ऐसे कितने ही उदाहरण मेरे सामने पूरे दिन आते जाते रहे। एक फिल्म की तरह मेरी आंखों के सामने दृश्य आ जा रहे थे तभी मैंने सोचा कि आज उन बच्चों के लिए कुछ खाने का सामान साथ ले चलूँगा, वापसी में मैंने बिस्कुट, चॉकलेट और खाने का कुछ अन्य सामान ले लिया। घर पहुंच कर जब चाय पीने बैठा तो सुबह का वो दृश्य मेरी आंखों के सामने जीवंत हो गया तभी मैंने निश्चय कर लिया कि अगली सुबह उन बच्चों को चाय के लिए इंतज़ार नहीं करना पड़ेगा।

इंदौर की शामें दिल्ली के मुकाबले शांत हुआ करती हैं। लोग जल्दी खाना खा कर, जल्दी सो जाया करते हैं : अगली सुबह जल्दी उठना भी तो होता है और यहाँ के लोगों की ये बात मुझे बहुत पसंद है। शाम गहराई तो मैंने सोचा क्यों ना बच्चों से मिलने चला जाए, घर की ओर खाने का सामान लेने बढ़ा ही था कि मैंने देखा एक महिला कुछ खाने का सामान लिए उसी ओर जा रही थी तो मैं भी कौतूहल वश उनके पीछे हो लिया। मैंने देखा कि उन्होंने बच्चों को दाल चावल खाने को दिए, बच्चे बहुत खुश हुए। वापस आती हुई उन महिला से मैंने पूछा कि, "आप रोज़ उन बच्चों को खाना देती हैं" जवाब में उन्होंने कहा, "कि बेचारे बच्चे अकेले रहते हैं, दोपहर के दाल-चावल बच गए थे तो सोचा बच्चों को ही दे दूँ" इतना कहकर वो चली गईं। मुझे उनसे कोई एतराज नहीं हुआ लेकिन एक सवाल जरूर मेरे मन में आया कि क्या हम अपने बच्चों भी ऐसे ही बासी खाना खिलाते या फिर जो खाना किसी जानवर को खिलाने के लिए रखा हो अथवा जिसे हम स्वयं के लिए उपयुक्त नहीं मानते उसे किसी और को कैसे खिला सकते हैं? वो भी बच्चों को! खैर ये उस अध्यापक की तुलना में संवेदनशील थीं जो बिना किसी स्वार्थ के उन्हें भोजन दे गयी थीं और भोजन था तो खाने योग्य ही इसलिए मैंने सोचा थोड़ा इंतज़ार किया जाये और जब बच्चे खाना खा लें तब उनके पास जाऊँ।

रात के भोजन के बाद मैं अपने हाथ में थैला उठाये उस ओर चल दिया तो उसी गली में रहने वाला एक काला कुत्ता-मोती भी मेरे साथ हो लिया, उसे लगा क्या पता उसके लिए भी कुछ हो इन थैलों में शायद उसकी छठी इंद्री कुछ भाँप चुकी थी। मैंने गेट पर जाकर गेट बजाया तो देखा कि बच्चे वहीं खड़े थे लेकिन एक अंजान व्यक्ति को देखकर गेट खोलने में हिचकिचा रहे थे और कुछ बच्चे मोती को देखकर घबरा रहे थे क्यूंकि मोती का रिकॉर्ड उस इलाके में कुछ ज्यादा अच्छा नहीं था। लेकिन मोती कि हिलती हुई पूँछ और मेरे हाथ में लटके हुए थैले देखकर उस बड़ी लड़की ने झट से गेट खोल दिया, मैं और मोती अंदर गए तो देखा एक झोपड़ी डली हुई है, वहां 4 से 10 साल के करीब 12-13 बच्चे थे और 14 साल की एक बड़ी लड़की थी, कुछ हरी घास पड़ी थी शायद कोई जानवर भी होगा लेकिन अँधेरे में कुछ खासा दिखाई नहीं दे रहा था। 

मेरी चारों ओर घूमती हुई नज़रों और मन में चलते हुए विचारों को उस लड़की की आवाज़ ने भंग किया जब उसने पूछा कि, "अंकल, क्या ये सब कुछ हमारे लिए है? मेरे हाँ कहते ही उसने बच्चों को कुछ इशारा किया और सारे बच्चे मेरे कुछ करीब आ गए, उनमें से एक छोटा सा लड़का अपने नन्हे हाथों से एक टूटा फूटा स्टूल खींचता हुआ लेकर आ रहा था। उसकी विवशता देखकर मैं उसकी और बढ़ा और उसके हाथ से स्टूल ले लिया तो वो मुझे ऐसे घूरने लगा जैसे मैंने उससे कोहिनूर छीन लिया हो, मुझे उसे देख कर थोड़ी हंसी आई, मुझे लगा मेरे समझने में कहीं कोई भूल हो गयी वो स्टूल अपने बैठने के लिए ला रहा होगा। पीछे से उस बड़ी लड़की ने कहा कि अंकल वो आपके लिए ही ला रहा था, ये सुनकर मेरा अपराध बोध कुछ कम हुआ और जब तक ये प्रकरण चल रहा था तब तक सभी बच्चे थैले खोल कर अपनी जिज्ञासा शांत कर चुके थे। उन्हीं में से एक छोटे बच्चे ने अपनी तोतली आवाज़ में दोबारा पूछा कि, " अंकल ये सारा का सारा सच में हमारे लिए है क्या? तो मैं उसकी तरफ बढ़ा और सभी को एक एक चॉकलेट दी और बाकी सामान उस बड़ी लड़की को थमा दिया कि वो अपने हिसाब से सभी को बाँट दे। वहीं मोती खुद को तवज्जोह ना मिलने की वजह से एक कोने में चुप चाप बैठा हुआ था तो कुछ बिस्कुट उसे भी खाने को दिए, बिस्कुट देखते ही मोती भी ख़ुशी के मारे फिर से पूँछ हिलाने लगा।

जाते हुए मैंने बच्चों को स्ट्रीट लाइट की रोशनी में अपनी ससुराल दिखाते हुए कहा कि सुबह चाय के लिए दूध वहां से ले आना, उस बड़ी लड़की ने कहा कि अंकल, चीनी, चायपत्ती भी नहीं है, क्या आप वो भी दिला दोगे? मैंने उत्तर दिया कि, "सब मिल जायेगा और कल सुबह की चाय सभी के लिए मैं ही ले आऊंगा। ये सुन कर बच्चे आश्वस्त हो गए, उन सभी के खिलखिलाते हुए चेहरे देखकर मुझे भी संतोष कि अनुभूति हुई। मैं वापस घर की ओर चल पड़ा इतने में ही मोती को मेरे साथ देखकर मेरे साले ने कहा, "जीजा जी, इस कुत्ते से संभल कर रहना इसने यहाँ लोगों पर कहर बरपा रखा है, आने जाने वाले लोगों से दूध की थैली और खाने का सामान झपट लेता है और काटता भी है, अभी देखो कैसे भोला भला बन के खड़ा है"। मैंने मोती को देखा तो मानो कह रहा हो कि रोज़ खाने को मिल जाये तो अपना नाम क्यों ख़राब करूँ, उसकी भावना को समझते हुए मैंने बिस्कुट का एक और पैकेट फाड़ कर उसे दे दिया, वो पूँछ हिलाता हुआ मेरे पास आया और खाकर चुप चाप वहां से चला गया। भूख के आगे किसी का बस नहीं चलता, फिर चाहे वो इंसान हो या जानवर, मोती के स्वभाव को देखकर मैं ये समझ चुका था।

अगले दिन जब मेरी सास ने मुझे चाय के लिए पूछा तो मैंने कहा कि 15-20 कप बनाना तो उन्होंने कहा, "उन बच्चों के लिए जो खेत में चौकीदारी करते हैं ?" मैंने उत्तर दिया, "हाँ, अच्छा वैसे आपको पता है क्या, उनके साथ उनकी माँ भी रहा करती थी, वो कहाँ गयी "? उन्होंने कहा, "कि वो माँ नहीं, इन सभी की बड़ी बहन है और उसके भाई-भाभी भी साथ रहा करते थे, कुछ ही दिन पहले वो दोनों कहीं भाग गए और वो उन्हें ही ढूंढने निकली है। जाते हुए बोल गयी थी आस पड़ोस में कि बच्चों का ध्यान रखना, कुछ भी खाने पीने को दे देना बदले में बच्चे कुछ काम वगैरह भी कर देंगे" सुनकर मुझे बड़ा आश्चर्य हुआ कि क्या अपने आप को सभ्य कहने वाले समाज का ये दायित्व नहीं बनता कि मानवता के नाते बच्चों को 2 समय का भोजन करवा दें ? क्या अपने बच्चों की ही तरह समाज में रहने वाले कुछ सक्षम लोग कुछ दिनों के लिए इन बच्चों का बीड़ा नहीं उठा सकते ?

इतने में मेरी सास की आवाज़ आई कि जब तक चाय बन रही है तब तक आप बिस्कुट और टोस्ट ले आओ, खाली चाय नुकसान करती है। मैं जाकर खाने के लिए कुछ सामान ले आया और चाय लेकर बच्चों के पास गया, मुझे देखते ही बच्चों ने तुरंत गेट खोल दिया, मैंने बच्चों को चाय, बिस्कुट, टोस्ट दिए। बच्चों के अधरों पर मुस्कान साफ़ झलक रही थी, तभी गेट पर एक और अतिथि आया, मोती शायद उसने मुझे आते देख लिया था तो उसे भी खाने के लिए बिस्कुट दे दिए। सुबह का समय था तो सब कुछ साफ़ साफ़ दिखाई दे रहा था, खेत काफी बड़ा था, एक गाय भी बंधी हुई थी जिसे देख कर लग रहा था कि कुछ समय बाद ही बच्चा देने वाली हो तो मैंने बच्चों से पूछा कि इसकी देखभाल कौन करता है ? बड़ी लड़की ने बताया कि गाय खेत मालिक की है लेकिन इसकी देखभाल हमारी बड़ी बहन और भैया भाभी करते थे और आजकल हम ही कर रहे हैं। लेकिन कुछ ही दिनों में वो लोग आ जायेंगे तो वो ही करेंगे, ये कहते हुए लड़की कुछ भावुक सी हो गयी क्यूंकि उसे अंदाज़ा नहीं था कि वे लोग कब तक आएंगे? कुछ था तो बस एक उम्मीद कि वो आएंगे! और उम्मीद पर तो दुनिया चल रही है जनाब फिर ये तो छोटे बच्चे थे अपने हृदयमें कई संभावनाओं को कैद किये हुए ।

निकलते हुए मैंने बच्चों को थैले में रखी चीनी और चायपत्ती दे दी, उन्हें एक दुकान का पता बता दिया जहाँ से रोज़ उन्हें दूध मिल जाया करेगा जिससे वो अपनी इच्छा अनुसार चाय पी सकेंगे और खाने की चिंता से निश्चिन्त करते हुए कहा कि आज का खाना हमारे घर से ले आएं, मैं चला ही था कि लड़की ने मुझे टोका कि अंकल और कल ? उसकी आतुर आँखों को देखकर मैंने कहा कि मैं अभी 10 दिन और हूँ यहाँ तो चिंता करने कि कोई आवश्यकता नहीं है। सभी बच्चों ने एक सुर में धन्यवाद व्यक्त किया, मैं और मोती वहां से चले गए, लोग रोज़ ये सिलसिला देखते थे पर कुछ कहते नहीं थे सोचते थे आखिर कब तक करेगा ये सब ? मेरी सास ने बताया कि लोग बातें कर रहे हैं कि आपने इन बच्चों को सर चढ़ा रखा है, बच्चे किसी का कोई काम नहीं करते और अब किसी के घर का बासी खाना भी नहीं खाते। उन्होंने हँसते हुए कहा, "पर लोग मोती में आये बदलाव से खुश हैं कहते हैं अब किसी आने जाने वाले को परेशान नहीं करता, आपके दामाद ने कोई जादू कर दिया है इस पर" मैंने भी हँसते हुए अपनी बीवी की ओर देखते हुए कहा, "कि चलो कहीं तो कोई जादू चला" मेरी इस बात पर सभी हंस पड़े।

आज कहीं जाने आने का कोई प्लान नहीं बना था तो मेरी बीवी ने कहा, "कि आज राजवाड़ा चलते हैं, मुझे कुछ खरीददारी करनी है"। भला मुझे क्या एतराज होता, राजवाड़ा ये वही महल है जिसे इंदौर का आईना भी कहा जाता है। राजवाड़ा को इंदौर का शॉपिंग हब भी कहा जाता है क्योंकि इसके चारों तरफ हर तरह की खरीददारी के लिए सैकड़ों दुकानें हैं, अगर आप इंदौर आते हैं तो यहाँ आये बिना आपकी इंदौर यात्रा अधूरी रह जाएगी। ऑटो वाला आ चुका था और इसके साथ ही हम निकल पड़े ऐतिहासिक राजवाड़ा के लिए। वहां पहुंच कर बाजार का एक चक्कर लगाने के बाद हर बार की तरह ही विजय चाट वाले के पास कचौड़ी-समोसे और गोलगप्पे खा कर शॉपिंग करने निकल पड़े।

पास की ही एक दुकान से नहाने का साबुन, कंघी, काजल, बिंदी वगैरह खरीदे और साथ की ही दुकान से कुछ 14 जोड़ी कपड़े और नीले रंग की एक अच्छी सी फ्रॉक भी खरीदी, ये देख कर मैं उत्सुकतावश पूछ बैठा कि, "अरे! इतने सारे कपड़े किसलिए, कोई लाटरी लगी है क्या" ? दूसरी तरफ से जवाब आया कि, "अरे पतिदेव, थोड़ा बहुत पुण्य हमें भी कमाने दो" मैं चुप रहा लेकिन मन ही मन बहुत खुश हुआ कि मेरी बीवी इससे कतई अनभिज्ञ नहीं है कि मैं क्या कर रहा हूँ। फिर हमेशा की ही तरह सर्राफा के बहार सजी दुकानों से बड़े ही चाव से गुलाब जामुन और मालपुए का स्वाद लेकर वापस घर लौट आए।

आज बहुत देर हो गई थी तो सोचा बच्चों का हालचाल ले लिया जाए कि खाना खाया या नहीं ? जैसे ही हम गेट पर पहुंचे तो खाने की बहुत ही बढ़िया खुशबु आई तो मुझे लगा शायद उनकी बहन वापस आ गयी है लेकिन अंदर जाकर देखा तो बच्चे रात का खाना खा ही रहे थे। मुझे और मेरी बीवी को देखते ही बड़ी लड़की उठ खड़ी हुई और हमारे बैठने के लिए तो टूटे हुए स्टूल ले आई और बैठते हुए बोली अंकल आज पड़ोस वाली आंटी आई थी उन्होंने आपके बारे में पूछा और फिर ये खाना दे गयी और बोली, "भैया अगर दिल्ली लौट भी जायेंगे तो घबराना नहीं, तुम्हें रोज़ ऐसा ही बढ़िया खाना मिलेगा जब तक तुम्हारे परिवार के बाकी लोग वापस नहीं आ जाते"। ये सुनकर मुझे अच्छा लगा कि आखिर बदलाव के बीज ने नमी पकड़ना शुरू कर दिया है। मेरी बीवी ने बच्चों के पास एक डब्बा रखा और कहा, "इसमें तुम सब के लिए गुलाब जामुन हैं, खाना खाने के बाद खा लेना, बड़े ही स्वादिष्ट हैं और हाँ साथ में साबुन है कल नहा धोकर तैयार रहना तुम सके लिए एक सरप्राइज है" सभी बच्चों ने एक मुस्कान के साथ स्वीकृति दे दी, इसके साथ ही हम भी घर वापस चले गए।

आज मंगलवार की सुबह थी और कुछ खास भी क्यूंकि अगले दिन बुधवार को हमें दिल्ली के लिए निकलना था, इसलिए आज का दिन हम उन प्यारे से बच्चों के लिए यादगार बनाना चाहते थे। सुबह जब हम पहुंचे तो बच्चे नहा धोकर तैयार बैठे थे, मेरी धर्मपत्नी ने उन सभी बच्चों को पहने के लिए नए कपड़े दिए। कपड़े देखकर बच्चों की ख़ुशी का कोई ठिकाना नहीं रहा, फिर उसने बड़ी लड़की को बुलाया और पूछा बेटा आपका नाम क्या है ? मैंने सोचा बताओ मैंने आज तक किसी बच्चे का नाम जानने की कोशिश की नहीं की। लड़की ने जवाब दिया, "मुस्कान, मुस्कान नाम है मेरा" बड़ा ही सुन्दर नाम था, उसे नीले रंग की एक बहुत ही सुंदर फ्रॉक दी, सभी बच्चे नए कपड़े पहनकर आए, एक साथ वो सभी बहुत ही सुन्दर लग रहे थे। इसके बाद बच्चों को मिलने वाले अगले सरप्राइज की बारी थी, सभी बच्चों को फिर हम मॉल ले गए और वहां रेस्टोरेंट में उनकी पसंद का खाना खिलाया, बच्चों ने बताया कि आज वो सब पहली बार किसी अच्छे होटल में आए थे खाना तो बहुत दूर की बात थी। मॉल देखकर बच्चे अचंभित हो रहे थे। उसके बाद हम बच्चों को मेघदूत गार्डन ले गए जहाँ उन सभी ने अलग अलग झूलों का आनंद लिया, आज बच्चे बहुत खुश थे, शाम भी हो चली थी तो बच्चों ने कहा कि अंकल आप हमें आइस क्रीम खिलाओगे ? बस फिर क्या था सभी बच्चों ने भर पेट आइस क्रीम खायी नतीजतन आज बच्चों ने रात का खाना खाने से मना कर दिया। दिन भर मस्ती कर के सभी वापस आए, झोपड़ी की लाइट जल रही थी तो बच्चों को वहीं गेट पर छोड़कर मैं, मेरी बीवी और मेरी प्यारी सी बेटी घर चल दिए। घर के बाहर पहले से ही मोती इंतज़ार कर रहा था, वो कुछ उदास दिख रहा था, अकेला जो रह गया था आज! इसलिए रिश्वत के तौर पर आज उसे 2 पैकेट बिस्किट दे कर हम सभी सोने चले गए, सोचा सुबह बच्चों को चाय के समय बता देंगे कि आज इंदौर में हमारा आखिरी दिन है।

इस बार इतनी लंबी छुट्टियां कैसे खत्म हो गई पता ही नहीं चला देखते ही देखते इंदौर में हमारा आखिरी दिन आ गया था पिछले दिन की थकान की वजह से आज कुछ देरी से नींद खुली, लगभग 10 बज चुके थे, घड़ी देखते मेरी बीवी ने पूछा कि, "मम्मी बच्चों को चाय दे दी थी क्या" ? मम्मी ने कहा, " नहीं, आज ज़रूरत नहीं पड़ी, उनकी बड़ी बहन कल रात वापस आ गई है" मुझे याद आया शायद इसीलिए कल रात झोपड़ी की लाइट जल रही थी। ये सब बातचीत चल ही रही थी कि तभी दरवाजे पर खटखट हुई और घाघरा चोली पहनी एक लड़की अंदर आई, ये वही लड़की थी जो बच्चों को उस दिन खाना खिला रही थी। इससे पहले कि कुछ समझ में आता वो आकर पैरों में गिर गयी और रोते हुए धन्यवाद करने लगी, वो कुछ कह नहीं पा रही थी लेकिन उसकी ख़ामोशी उसके मन में उमड़ते हुए भावनाओं के बादलों की गड़गड़ाहट खूब बयां कर रही थी। मेरी बीवी ने उसे ऊपर उठाया और कहा, "कोई बात नहीं, ये हमारा कर्त्तव्य था, धन्यवाद करना है तो बच्चों को पढाई लिखाई जरूर करवाना"। अभी उसकी बात पूरी भी नहीं हुई थी बीच में ही उसने एक बर्तन आगे किया और बोली कि हमारी गाय ने एक बछिया को जन्म दिया है और ये उसके पहली धार के दूध का चीका है, ये बहुत ही पौष्टिक होता है, आपकी बिटिया के लिए खासकर मुस्कान ने भेजा है। मुस्कान ने हमारा दिल जीत लिया था, मुस्कान का भेजा हुआ चीका मेरे लिए आज तक का सबसे अमूल्य उपहार था। 

सामान पैक किया और क्योंकि आज हमारा आखिरी दिन था तो हमने बच्चों ले लिए खूब साड़ी चॉकलेट्स ली और जाने से पहले हम उन बच्चों से मिलने गए। सभी को चॉकलेट्स दी लेकिन आज बच्चों की आंखों में चमक कुछ कम दिखी, आज उनकी आँखों में आंसू थे जैसा कि वो कहना चाह रहे हों कि मत जाओ! इन बीते दिनों में हमारा भी दिल बच्चों से खासा जुड़ गया था लेकिन जाना तो था ही तो बच्चों से मिलकर फिर हम गाड़ी की और बढ़े रास्ते में वो आंटी जी मिली उन्होंने कहा कि आप निश्चिन्त रहना हम बच्चों का ख्याल रखेंगे, मुझे बड़ी ख़ुशी हुई क्यूंकि अब वो नमी पकड़ा हुआ बीज अंकुरित होने लगा था और आने वाले समय में उसके वृक्ष बनने की संभावना साफ़ दिखाई दे रही थी।

इस बार की छुट्टियां बड़ी यादगार रहीं , हम बस निकलने वाले थे लेकिन मुझे एक पात्र का इंतज़ार अभी भी था। पीछे मुड़ कर देखा तो बच्चे भी दिखाई नहीं दिए लेकिन देरी होने के कारण हम सभी से मिलकर निकल पड़े। लेकिन जैसे ही गली से उलटे हाथ की तरफ मुड़े तो ड्राइवर ने एकदम से ब्रेक लगा दी, सामने देखा तो सभी बच्चे लाइन लगा कर खड़े थे, सभी के हाथ में पास के ही पौधों से तोड़े हुए फूल थे और था कहानी का वो आखिरी किरदार "मोती"। 

हम सब गाड़ी से एक बार फिर उतरे, बच्चों से वो फूल लिए, मोती को पास की दुकान से बिस्कुट खाने को दिए, मंजर कुछ ऐसा था जिसे शब्दों में बयां करना कुछ मुश्किल है। भीगी पलकों के साथ दोबारा मिलने की आशा और खूबसूरत, अविस्मरणीय यादों को लेकर हम स्टेशन की ओर चल दिए, मोती कुछ दूर तक पीछे दौड़ा और जब तक गाड़ी दिखती रही बच्चे हमें विदा करने वहीं खड़े हमें देखते रहे।


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