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Manoj Kushwaha

Abstract Children Stories Inspirational

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Manoj Kushwaha

Abstract Children Stories Inspirational

माधव का मन

माधव का मन

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"मन" के स्वरूप के बारे में हमनें बहुत से महात्माओं, प्रबुद्ध जनों से सुना होगा, भगवद्गीता में तो साक्षात श्रीकृष्ण के मुख से मन का विस्तृत रूप पढ़ा भी होगा जिससे पता चलता है कि मन बड़ा ही चंचल, चपल है। मन के इस रथ में घोड़ों के रूप में सभी ज्ञानेंद्रियां, कर्मेंद्रियां जुती हुई हैं। सभी का एकमत से ये कहना है कि जिसने इस पर काबू पा लिया उसने संपूर्ण ब्रह्मांड पर विजय प्राप्त कर ली ये उसे और रोचक बनाता है।

लेकिन इस मन को वश में करने का क्या एक ही तरीका है?? सन्यास लेकर, संसार से विरक्त होकर या फिर अपने कर्तव्यों का निर्वहन करते हुए या फिर कुछ और ? आज मैं आपको एक बालक की कहानी सुनाऊंगा जहां मन का खेल कैसे उसे प्रभावित करता है और कैसे वो उस पर विजय प्राप्त करता है उसी के साथ खेलते हुए, समाज और जीवन को समझते हुए, समानता–असमानता के साथ चलते हुए। सभी को रोमांचित कर देने वाला एक अद्भुत जीवन जिसे मैं आज आपके समक्ष रखने जा रहा हूं।

कहानी के माध्यम से मैं आपको 90 के दशक की दिल्ली ले चलता हूं, जहां जीवन जीने की खींच तान तो है लेकिन आज की तरह भाग दौड़ भरा जीवन नहीं। राजधानी वाली गति तो है पर राजधानी ट्रेन की गति से कुछ मद्धम, लुटियंस दिल्ली तो है लेकिन उसके आस पास बहुत सा इलाका और भी है जहां लोगों ने अपनी जेब के अनुसार अपने रहने की व्यवस्था करी है वहीं जगह जगह बिल्डिंग मैटेरियल पड़े हुए हैं क्योंकि यहीं आने वाली दिल्ली की ऊंची इमारतों की नींव रखी जा रही है तो वही एक ओर दूर दराज से आए लोग अपने आशियाने बना रहे हैं।

भीड़ भाड़ भी इतनी नहीं है और ना ही गली कूचे सूने पड़े रहते हैं, शाम को लोग चौपाल पर बैठ कर ताश खेलते मिलते हैं तो वहीं पास में किसी कुल्फी वाले के पास बच्चों की लाईन नजर आती है जहां कुछ पैसों में स्वादिष्ट कुल्फी मिल रही है जिसके आगे आज की सारी आइसक्रीम फेल हैं। मोटर साइकल – स्कूटर वगैरह किसी सरकारी नौकरी वाले या किसी सेठ के पास ही हैं और मोबाइल तो कल्पना से परे की वस्तु है इसलिए बच्चे बेखौफ होकर गलियों में खेलते हुए दिखाई पड़ते हैं।

मौसम की परवाह किए बिना, क्या धूप, बारिश, ठंड सब एक तरफ लेकिन वो गली कूचे में खेलने का जुनून सब पर भारी है। सभ्य और असभ्य खेल की कोई परिभाषा ही नहीं है, बेधड़क हो कर रेत के ढेर में घर बनाना और उसी में लोट पोट होकर खेलने की बात ही कुछ और है। अगर चोट लग भी जाए तो घर पहुंचने पर मरहम से पहले माँ के नर्म लेकिन परिवार के लिए काम करते हुए सख्त हाथों के मजेदार थप्पड़ के अलग ही मजे हैं।

बचपन के खेल निराले होते हैं और वैसे ही होते हैं बच्चे, ये कहानी उन्हीं में से एक बच्चे "माधव" की है जो जीवन के प्रति अपने नजरिए का निर्माण कर रहा था। अलग अलग तरह की सीख अपने हृदय में उतर रहा था, कुछ जो किताबें सिखाती थी और कुछ जो समाज से सीखने को मिलता था। एक अजीब सी उत्सुकता, कौतूहल था उस बालक में, एक अन्वेषक की भांति सभी को भांपता फिर अपने आस पास के जीवन में उसे तलाशता सा रहता था। आदर्शवाद और यथार्थवाद के बीच उसका मन सदा ही झूलता रहता था कि जो समाज सिखा रहा है वह सत्य है या फिर जो सामने यथार्थ घट रहा है वह? मन की इस उलझन से पार पाना इतना आसान ना था। लेकिन कोई था जो उसे शायद इस विचलित करने वाली अवस्था से बाहर निकाल सकता था, माधव के पिता!!

पिता, वो व्यक्ति जिसके कंधे पर बैठ कर आप दुनिया देखते हैं और साथ ही साथ वो आपको दुनिया में रहने की कला भी सिखाते हैं। माधव के पिता भी उसे रोज जीवन के नए नए रंगों से परिचित करवाते रहते, नए नियम, सिद्धांतों के बारे में बताते। उन्होंने सिखाया कि धर्म की रक्षा करो, निर्बल के बल बनो, असहाय की सहायता करो, स्त्री, वृद्ध एवं बच्चों के उत्थान के किए कार्य करो एवं जीवन में नवीन गुणों अथवा कला के प्रति ग्रहणशील बनो। पिता की ये सीख आगे चलकर स्कूली एवं समाज के द्वारा सिखाई गई सीख व सिद्धांतों पर भारी पड़ने वाली थी। किंतु मन के निर्माण में समाज एवं स्कूली शिक्षा की भी अहम भूमिका होती है और हमारी शिक्षा व्यवस्था तो फिर सब कुछ सिखाती है आवश्यक हो अथवा नहीं और माधव को इसमें खास रुचि नहीं थी।

आदर्शवाद जो सिखाता है, सब कुछ आदर्श, आदर्श समाज, आदर्श बालक, आदर्श जीवन आदि आदि लेकिन वहीं जीवन का वास्तविक स्वरूप इसके बहुत भिन्न है जो कदम कदम पर यथार्थवाद का परिचय देता रहता है। माधव इन दोनों सिद्धांतों को लेकर व्याकुल सा रहता था क्योंकि जो सिखाया जा रहा है और जो सामने होता दिख रहा है वो तो एक दूसरे के एकदम उलट है। इस असमंजस की स्थिति में एक पिता ही थे जो राह दिखा सकते थे जिन्होंने समझाया की विद्या एक प्रक्रिया है जो निरंतर चलती रहेगी। हमें अपने मन को समझाना होगा कि जीवन की विभिन्न घटनाओं से सीख लेकर हमें इन सिद्धांतों में एक समन्वय बिठाना है, ये सुन कर धूल के कुछ बादल तो छंटे किंतु शंकाएं फिर रह गईं और अगर समाधान ना मिले तो व्याकुलता पुनः घेर लेती है। किंतु पिता की एक सीख काफी थी हर शंका के समाधान के लिए "जहां चाह, वहां राह"

ये सूत्र "जहां चाह, वहां राह" माधव के मन में घर कर गया और वो रोज़ के जीवन को देखता हुआ आगे बढ़ने लगा जहां उसे ये एहसास तो हो गया कि जो हम देखना चाहते हैं और जो दिखता है उसके बीच एक फासला है। समाज जो सिखा रहा है वो देखने सुनने में तो अच्छा लगता है लेकिन उसे यथार्थ करने के लिए जो पुरुषार्थ चाहिए उसके लिए जीवन की घटनाओं से सीखना पड़ेगा। लेकिन माधव का कोमल मन अपनी ही दुनिया में घूमता रहता है, कभी पंचतत्र की रहस्मयी कथाओं में तो कभी भूतों की डरावनी कहानियों में। एक अलग ही जीवन होता है बच्चों का जहां कुछ भी असंभव नहीं है, वो कहा था ना कि "जहां चाह, वहां राह"

अत्यंत मेधावी छात्र लेकिन शिक्षा पद्धति से कहीं आगे की सोच रखने वाला जिसके लिए असल शिक्षा जीवन की विभिन्न परिस्थितियों के आमना सामना होने से मिलती है बस किताबी जीवन से नहीं इसलिए उसकी रुचि महापुरुषों की जीवनी पढ़ने में ज्यादा थी जैसे स्वामी विवेकानंद, महर्षि दयानंद सरस्वती, राजा राम मोहन राय, देशबंधु चितरंजन दास, ईश्वर चंद्र विद्या सागर, भगत सिंह, चंद्रशेखर आजाद आदि 

कभी मन के इस खेल को समझते हुए और कभी उसी मायावी मन की उलझनों में उलझा माधव व्याकुल हो जाता कि क्या सही है और क्या गलत? आदर्शवाद कहता है कि हम सभी को सत्य बोलना चाहिए लेकिन सभी ऐसा नहीं करते! स्त्री पर अत्याचार नहीं होना चाहिए लेकिन फिर भी हो रहा है, नाबालिग बच्चों से कार्य नहीं करना लेकिन अपनी उम्र के बच्चों को कार्य करता देख उसे बुरा लगता था। सामाजिक समानताएं-असमानताएं माधव के भीतर एक अलग ही चरित्र निर्माण कर रही थीं और मन का ये मंथन उसे आगे के लिए तैयार भी कर रहा था क्योंकि उसे शायद नहीं पता था कि आने वाले समय उसे किसी बड़े कार्य के लिए तैयार कर रह है।

आने वाला जीवन माधव के लिए इतना सरल नहीं रहेगा, आखिर लोगों का पूरा जीवन बीत जाता है मन को काबू करने में और फिर अभी माधव है तो एक बालक ही। सिद्धांतों के इस समन्वय में माधव ने आगे क्या किया मैं आपको सुनाऊंगा अगली लघु कथा में।


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