डॉ. रंजना वर्मा

Tragedy

4.5  

डॉ. रंजना वर्मा

Tragedy

अतीत की टीस

अतीत की टीस

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   नीरा शांगलू अपने कांदीवली स्थित एक कमरे के अपार्टमेंट में बैठी थी। वह एक प्राइवेट कंपनी में जॉब करती थी। घर में केवल वह और उसकी बूढ़ी दादी दो ही प्राणी थे। 

    वह दादी की सुख सुविधा का पूरा ध्यान रखती थी फिर भी उनके मुख पर हँसी के फूल देखने के लिए तरस कर रह जाती थी। उठते बैठते उनके मुख से 'हाय' और 'हे राम' ही निकलता था। उनकी आंखों की कोरों पर अटके हुए आंसू उनके मन की अथाह वेदना को जब तक प्रकट कर ही देते थे। वह उनकी उस अजानी व्यथा को केवल मन की गहराइयों में ही महसूस कर पाती थी। पूछने पर वे कुछ भी नहीं कहती थीं।

    कुछ वर्ष पूर्व जब समाचार में कश्मीर से धारा 370 हटाने का समाचार सुना तब उनके चेहरे पर हल्की मुस्कान खिल उठी थी। फिर कश्मीरी पंडितों की घर वापसी की बातें और चर्चाएं बड़े चाव से वे सुना करती थीं। और फिर 'कश्मीर फ़ाइल्स' फिल्म की चर्चा चल पड़ी।

   ऑफिस के सहकर्मियों के साथ नीरा भी जाकर एक दिन वह बहु-चर्चित बहु-विवादित फिल्म देख आई। जब वह पिक्चर देख कर घर पहुंची तब उसकी आंखें लगातार रोते रहने के कारण लाल हो रही थीं। पिक्चर का हर दृश्य उसके मासूम हृदय पर कचोके लगा रहा था।

    वह फिल्म देखने के बाद उसे दादी के आंसुओं का कारण कुछ कुछ समझ में आने लगा था। 

    दो दिन व्यग्र रहने के बाद अंततः उसने पूछ ही लिया -

"दादी ! हम भी तो कश्मीरी ब्राह्मण हैं न ?"

"हां। क्यों ?"

"आप कहती हैं कि हमारा संसार में कोई नहीं है। ऐसा क्यों दादी ? कहां है हमारे परिवार के लोग ? मेरी मां, पिताजी, भाई-बहन, क्या कोई नहीं है हमारा ?"

    नीरा ने पूछा।

"हां बेटा ! अब कोई नहीं रहा हमारा।"

    दादी ने गहरी आह भरी -

"कभी हमारा भी घर हुआ करता था। बड़ा सा घर और आंगन। सेब के दो बाग। तेरे पिता पुरुषोत्तम शांगलू प्रतिष्ठित व्यक्ति थे गांव के। बड़े सुख के दिन थे वे तेरी मां दामिनी गुड़िया जैसी खूबसूरत, भोली और मासूम थी। हम अपने घर में खुश रहते थे। छोटा सा परिवार था हमारा। तेरे पिता मां, दादाजी और एक भाई मोहन।"

"मेरा भाई ?"

"हां। तब वह सात साल का था।"

"तो कहां गए सब ? क्यों हम वहां नहीं रह पाए ?"

    नीरा ने पूछा परंतु उसके हृदय में आशंकाओं के हजारों बिच्छू डंक मारने लगे थे। क्या उसके परिवार की भी 'कश्मीर फ़ाइल्स' में दिखाई गई कहानी जैसी ही कोई कहानी थी ? क्या.... "

"हमारे पड़ोसी मुसलमान थे लेकिन हम लोगों में बहुत स्नेह था। हमारे घर में आंगन के एक कोने में छोटा सा मंदिर था शंकर भगवान का। बिना उन्हें लोटा भर जल चढ़ाए हम लोग पानी भी नहीं पीते थे। आस-पड़ोस के लोगों से मिलजुल कर ही सब रहते थे। एक दूसरे के दुख सुख में सहभागी। एक दूसरे के मददगार।"

    दादी जैसे अतीत की वादियों में गुम होती जा रही थीं।

"वह पड़ोस की सलमा ... उसकी शादी में हम सब शामिल हुए थे। गोटेदार चुनरी दी थी हमने उसे। वही ओढ़ कर वह विदा हुई थी ससुराल के लिए .... और वह अब्दुल ? वह तो तेरे भाई मोहन के साथ ही चिपका रहता था। हमेशा उसे अपने घर की बिरयानी से ज्यादा हमारे घर की खीर पूरी पसंद आती थी। होली पर बनी गुझिया उनके घर पहले भेजी जाती थी लेकिन ...."

    कहते कहते दादी चुप हो गई।

"लेकिन क्या दादी ? आगे बताओ न !"

    नीरा ने उत्सुकता से पूछा परंतु जैसे उसके पेट में कुछ मरोड़ सी उठी। आंखों के आगे 'कश्मीर फ़ाइल्स' पिक्चर के कई दृश्य घूम गए।

"लेकिन एक दिन अचानक से ही सब कुछ बदल गया। तुम्हारे पिता जब घर से बाहर निकले तो अपने घर की दीवारों पर चिपके पोस्टर देख कर चौंक पड़े। इन पोस्टरों में हमें धर्म परिवर्तन करने के लिए कहा गया था। मरने मारने की बातें थी और कश्मीर से चले जाने की बात थी।

   पुरुषोत्तम ने घर में लाकर पोस्टर पढ़ा तो तेरे दादाजी ने कहा -

"किसी ने शरारत की होगी शायद।"

"नहीं बाबा ! मस्जिद से पता नहीं क्या-क्या तो कहा जा रहा है।"

"क्या कहा जा रहा है ?"

    उन्होंने पूछा।

"यही सब जो इस पोस्टर में लिखा है। कहा जा रहा है कि कश्मीर मुसलमानों का है यहां हिंदूओं को रहने का हक नहीं है। काफिरों को कत्ल कर दो और ... और उनकी औरतों को छीन लो। जो यहां रहे वह मुसलमान बन जाए या अपनी जान दे दे।"

    पुरुषोत्तम ने बताया।

"क्या ?"

"हां बाबा ! बाहर हमारे पड़ोसी मुसलमान भाई झुंड बना कर खड़े यही सब बातें कर रहे हैं अशरफ भाई ने तो मुझसे साफ-साफ कहा कि पड़ोसी के नाते समझा रहे हैं। घर द्वार छोड़ कर कहीं और चले जाओ नहीं तो मार दिए जाओगे। यहां का माहौल काफ़िरों के लिए ठीक नहीं है।"

"क्या ? ऐसा कहा उसने ? वह हमारा पड़ोसी है।"

"वह .... वह सिर्फ मुसलमान है बाबा !"

"लेकिन हम कहां जाएंगे ? हमारी अपनी जमीन, बाग, घर गृहस्थी, यह सब छोड़कर कहां जाएं। यह तो हमारी पुश्तैनी जमीन है।"

"बाबा !"

"ठहरो, तुम जरा आस पास की खबर लेते रहो। शायद सब ठीक हो जाए। अरे हम आजाद देश में हैं। हमारी सरकार, पुलिस क्या कोई कुछ नहीं करेगा ? इतना ही आसान है किसी को मार देना या उसके घर से भगा देना ? शिव शंभू पर भरोसा रखो। सब ठीक होगा।"

   तुम्हारे दादा जी ने समझा दिया तो हमें भी लगा कि वह ठीक कह रहे हैं। दो दिन निर्विघ्न बीत गए तो थोड़ा आश्वस्त हो गए हम लोग।

    दो दिन बाद एक दोपहर अचानक ही पन्द्रह बीस लोगों ने हमारा घर घेर लिया। उन सभी के हाथों में लाठी-डंडे और तलवार जैसे हथियार थे। पुरुषोत्तम ने खिड़की खोली तो वे धमकाते हुए बोले -

"पुरुषोत्तम ! तू हमारी जमात में आ जा। पूरे परिवार के साथ इस्लाम कबूल कर ले या अपनी बीवी को छोड़ कर कहीं और भाग जा।"

"क्या कह रहे हैं आप लोग ?"

"कह नहीं रहे हैं ... समझा रहे हैं। जान की सलामती चाहता है तो मुसलमान बन जा या फिर घर छोड़ कर भाग जा जान बचा कर। तीन दिन का समय है तेरे पास। फिर न कहना कि हमने समझाया नहीं था।"

    कहते अपनी लाल लाल आंखों से हमें घूरते तलवारें चमकाते वे लोग चले गए।

    हमें काटो तो खून नहीं। क्या करें ? कहां जाएं ? कैसे जान बचाएं ? कुछ समझ में नहीं आ रहा था। उस समय तू मां के पेट में थी। 

    उसी रात थोड़े से गहने और पैसे देकर तुम्हारे बाबा ने मुझे और तेरी मां को कुछ हिंदू दोस्तों के साथ भेज दिया। वे लोग भी अपना घर द्वार छोड़ कर भाग रहे थे। तेरे भाई को भी पुरुषोत्तम हमारे साथ भेजना चाहता था लेकिन वह नहीं आया अपने बाप को छोड़ कर। तब पुरुषोत्तम ने हमें समझाया -

"तुम लोग जाओ। तुम्हारी इज्जत और हमारा धर्म बचा रहे यह आवश्यक है। कल मैं भी बाबा और मोहन के साथ निकल जाऊंगा। तुम दोनों इन लोगों के साथ ही रहना। मेरा नंबर है मनजीत के पास। मैं वहीं तुम लोगों से मिलूंगा। कल बाग बेचने की बात की है। कुछ पैसे पास रहेंगे तो काम आएंगे।"

    हम दोनों साथ बहू पूरी रात जंगलों में होकर गिरते पड़ते उन लोगों के साथ भागते रहे।

    दो दिनों के बाद किसी तरह हम मनजीत के रिश्तेदार के पास हरिद्वार पहुंचे। वहीं ठहर कर हम परिवार वालों का इंतजार करते रहे। उनका न कोई फोन लग रहा था और न कोई समाचार ही मिल पा रहा था वहां का। मनजीत भी को भी अपने भाई के आने का इंतजार था। पहाड़ जैसे दिन बीतने पर ही नहीं आते थे। न अखबारों में कश्मीर की कोई खबर छपती थी न रेडियो टी वी पर ही कोई बात पता चल पाती थी। जैसे सब शांत था। सब कुछ ठीक था लेकिन ....

    कुछ भी ठीक नहीं था वहां। बेटी ! वह शांति मरघट की शांति थी। हिंदूओं के विनाश की खामोशी थी। हमारे लिए तो पुलिस, सरकार सभी अंधे बहरे हो गए थे। मेड़ ही खेत की फसल को खाने लगी थी। अब हम किसे दोष देते ?

    ग्यारहवें दिन मनजीत को भाई के आने की खबर मिली तो वह उसे लेने चला गया कुछ और हिंदूओं के साथ वह आया था किंतु बुरी... बहुत बुरी हालत में था वह .... घायल और संत्रस्त।

    उसी ने बताया - 

'पुरुषोत्तम भाई ने अपने बाग बेचने के लिए अब्दुल सत्तार से बात की थी। उसके बाग भी हमारे बागों के पास ही थे।'

    उसके हाथों बाग बेचना भी हमारी मजबूरी थी। हिंदू तो जान बचा कर भाग रहे थे या मारे जा रहे थे तो बाग कौन खरीदता ? औने पौने दाम पर सौदा तय हुआ था। दूसरे दिन उसने पुरुषोत्तम को पैसा लेने के लिए बाग में ही बुलाया था। तब दो दो जोड़ी कपड़े और दो चार पैकेट बिस्कुट थैले में डाल कर पुरुषोत्तम मोहन और अपने पिता के साथ बाग पर गया था जिससे पैसे लेकर वहीं से निकल आए पर सत्तार ने खुद ही उन्हें हत्यारों को सौंप दिया। उन आतताइयों ने उन तीनों को काट डाला। हमारा घर जला दिया गया। यह खबर पाने पर मनजीत का भाई अन्य लोगों के साथ जान बचा कर भागा। बिना खाए पिए ही पूरी रात वे चलते रहे थे। दूसरे दिन किसी ट्रक वाले ने उसे हरिद्वार की सीमा तक छोड़ दिया था।"

    कहते कहते दादी फूट-फूट कर रोने लगी।

"दादी !"

    मीरा ने उनके कंधे पर हाथ रख दिया।

"हमारा सब कुछ लुट गया। कुछ नहीं रहा। तेरी मां का बुरा हाल हो गया था। और मैं ? मैं तो पति, पुत्र, पौत्र सब कुछ गंवा बैठी थी। हम दोनों एक दूसरे के गले लग कर रोतीं और फिर एक दूसरे के आंसू पोंछ दिया करतीं।" 

"उसके बाद ?"

"उसके बाद कैसे जीए हम यह तो या तो हम जानते हैं या शिव शंभू। पास के पैसे भी कितने दिन चलते ? कुछ तो करना ही था हमें। वहीं पर एक आश्रम में हमें आसरा मिल गया। फिर एक अनाथ आश्रम में। और फिर .... उस संघर्ष की कहानी .... मत पूछो ... बस, एक आंख में आंसू और दूसरी आंख में उम्मीद लिए किसी प्रकार हम जी रहे थे। तेरी मां गर्भवती न होती तो वहीं गंगा जी में समाधि ले लेते। लेकिन .... आने वाली जिंदगी की आशा हमें मरने नहीं देती थी। आठ महीने बाद तू ने जन्म लिया। बड़े कष्ट से पाल रहे थे हम तुझे दूसरों के घर काम करके। झाड़ू पोंछा तक किया हमने और कभी कभी दूसरों के आगे हाथ भी फैलाया। पर ....  

 फिर एक दिन तेरी मां भी तुझे मेरी गोद में डाल कर दुनिया से मुंह मोड़ गई। तब से बस मैं और तू हम दो ही रह गए परिवार में।"

"अब वे दिन बीत गए दादी ! कैसी कठिन परीक्षा थी वह हमारे धर्म, हमारी आस्था की।"

    नीरा ने आंसू पोंछते हुए कहा।

"दादी ! अब सरकार कश्मीरी पंडितों का पुनर्वास करा रही है। हमें हमारी जमीन, बाग, घर सब मिल जाएगा तो क्या हम वहां चले जाएंगे ?"

"नहीं नहीं.... वहां जाने की बात सोचना भी मत बेटी ! सरकार हमारा पुनर्वासन करेगी लेकिन हमारे पड़ोसी वहां के लोग इस्लाम के नाम पर, जिहाद की आड़ लेकर हम हिंदूओं को मारने वाले, उनकी औरतों की इज्जत लूटने वाले वे लोग तो वही रहेंगे न ? जो हमारे साथ हमदर्दी जताएंगे या सरकार के दबाव में हमें वहां रहने देंगे वे फिर कभी भी धर्म के नाम पर हमारा उत्पीड़न नहीं करेंगे इसकी गारंटी तो कोई सरकार नहीं ले सकेगी न !"

"तो ..... तो क्या हमें भूल जाना चाहिए वह सब ?"

"नहीं। कभी नहीं भूलना चाहिए। वह अतीत तो टीस बन कर हमेशा ही हमारे दिल में कसकता रहेगा। वहां रहने के लिए हमें भी उनकी तरह ही बनना होगा। हमें आक्रामक नहीं बनना है लेकिन अपनी रक्षा के लिए अपने धर्म और सम्मान की रक्षा के लिए हथियार उठाना होगा। क्या हमें अपनी रक्षा करने का भी अधिकार नहीं है ? इतनी सशक्त बनो कि हमलावर का वध कर सको या अपने प्राण दे सको। हमारे अतीत की यह टीस हम में आत्मरक्षा के लिए मर मिटने की भावना जागृत कर सके तभी हमारा कश्मीर 'हमारा' होगा, हमारे रहने योग्य होगा।"

"आप ठीक कह रही हैं दादी ! यही करना होगा हमें..... बस यही।"



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