भूख
भूख


"सर ।"
रोहन ने सिर उठाया । दरवाजे पर एक साधारण रूप रंग वाली स्त्री खड़ी थी । कपड़े उसने साधारण पर सुरुचिपूर्ण ढंग से पहने थे । द्वार पर खड़ी होकर उसीने पुकारा था उसे ।
"बोलिये । मुझसे कुछ काम है आपको ?"रोहन ने पूछा ।
"जी , क्या कुछ खाने के लिये मिलेगा ? बहुत भूख लगी है ।" वह बोली ।
उसकी बात सुनकर वह चौंक पड़ा । देखने मे ही किसी भले घर की स्त्री लग रही थी वह । भिखारिन तो कत्तई नहीं थी वह ।
"जी , मैं समझा नहीं ।"
"समझना क्या है सर ! भूख लगी है । कुछ खाने को दे सकें तो बड़ी कृपा होगी ।"उसने कहा ।
" आइए , अंदर आ जाइये ।"वह भीतर आ गयी तो रोहन ने कुर्सी आगे बढ़ा दी ।
" बैठिये । मैं नाश्ता करने ही जा रहा था ।"
वह चुप रही । रोहन ने एक प्लेट में सैंडविच और चाय का प्याला बढ़ाते हुए पूछा -
"कहाँ रहती हैं आप ?"
"यहीं पीछे वाली गली में ।"
"आपके पति ?"
"करीब साल भर पहले मुझे छोड़ कर कहीं चले गये । अब तक किसी तरह काम चलाती रही । वो लौटे नहीं और सारे पैसे चुक गये । कल सुबह एक रोटी खाई थी । खाली पेट पानी नहीं पिया जाता । कोई नौकरी भी नहीं । मजबूरन आज आपसे माँगना पड़ा ।"
उसने सिर झुकाए सैंडविच खाते खाते बताया । चेहरे पर लज्जा की लकीरें । आंखों में विवशता ।
रोहन ने नाश्ता खत्म कर लिया था ।
"और कुछ ? ब्रेड दूँ क्या ?"
उसने पूछा । उसके चुप रहने पर उसने दो पीस ब्रेड उसकी प्लेट में रख दी । वह खाने लगी तो रोहन उसके पास जाकर खड़ा हो गया ।
"भूखा हूँ मैं भी । दो साल पहले पत्नी गुज़र गयी । तब से...."
उसने हल्के से उसका कंधा छुआ । वह चुप बैठी रही । रोहन उससे सटते हुए फुसफुसाया -
"तुम्हारी भूख बुझाने की जिम्मेदारी लूँ तो क्या तुम मेरी भूख ... मैं कभी तुम्हें भूखी नहीं रखूँगा ।"
उसका हाथ उसके ब्लाउज में सरक गया । उसने उत्तर नहीं दिया । उसका सिर झुक गया और ...... । संयम की सीमाएँ पेट और देह की भूख से अधिक प्रबल थीं । दो भूखे परस्पर भूख मिटाने लगे एक मौन समझौते के तहत ।