डॉ. रंजना वर्मा

Horror Thriller

5  

डॉ. रंजना वर्मा

Horror Thriller

मंदिर के पट

मंदिर के पट

38 mins
1.4K


    रात का अंधेरा धीरे-धीरे गहरा होता जा रहा था । आकाश में घने बादल छाए हुए थे । हवा तेज थी और अपने साथ पतझड़ में गिरे हुए पत्तों को उड़ाती एक विचित्र प्रकार की भयावनी ध्वनि उत्पन्न कर रही थी । सन्नाटा और भी गहरा हो चला था । नीरवता के उस साम्राज्य को कभी-कभी चमगादड़ या उल्लू के चीखते हुए स्वर तोड़ देते । कालिमा की उस फैली हुई चादर के नीचे सृष्टि किसी थके हुए नटखट शिशु की भांति सो रही थी ।       रजत को अमझरा घाटी आए हुए अभी कुल दो ही दिन हुए थे । वह पुरातत्व विभाग से संबंधित था और उत्तर प्रदेश तथा मध्य प्रदेश को मिलाने वाली सीमा रेखा के निकट घने वन में स्थित मंदिरों तथा प्राचीन भग्नावशेषों का अध्ययन करने अकेला ही अमझरा घाटी की सुरम्यता का पान करने आ पहुंचा था । 

       आते समय पथ प्रदर्शक के रूप में एक निकट का ग्रामवासी साथ था जो उसका सामान भी उठाए हुए था और मार्गदर्शन भी वही कर रहा था ।

      घाटी के सौंदर्य ने रजत को पूर्णतया अभिभूत कर लिया था । लंबे राजमार्ग के दोनों ओर चिरौंजी और आम के वृक्ष थे । कहीं कहीं पलाश के वृक्ष तथा कँटीली झाड़ियां थीं । पेड़ों का सिलसिला सड़क के निकट उतना घना न था किंतु जैसे जैसे उनका सड़क से फ़ासला बढ़ता गया था उनकी सघनता में भी वृद्धि होती गई थी ।

       बसंत बीत चुका था और पतझड़ पूरे यौवन पर था । हवा के हर झोंके के साथ पेड़ों से टूट टूट कर गिरने वाले सूखे पत्तों का मरमर संगीत बढ़ जाता था । कभी-कभी वनांचल से कोयल कूक उठती या पपीहा 'पी कहां' की आवाज लगा बैठता । 

      वन प्रदेश के उस मोहक सौंदर्य में भी एक रहस्यमयी संगीत की ध्वनि रजत को बराबर सुनाई दे रही थी । उसे यहां का वातावरण चिर परिचित सा प्रतीत हो रहा था । एक ऊंचे टीले पर चढ़ कर उसने दूर तक फैली उस वन- राशि को देखा और मुस्कुरा दिया था । फिर गाइड से पूछा -

"मंदिर किधर है ?"

"उस ओर घने जंगलों के बीच कई छोटे-बड़े टीले हैं । उन्हीं पर मंदिर और  खंडहरों का झुंड भी है ।

       "खंडहरों का झुंड' सुन कर बरबस ही उसे हँसी आ गई थी । शाम होते-होते वह घने वन में प्रविष्ट होकर उन टीलों पर पहुंच चुका था ।

       सामने दूर तक छोटे-बड़े टीले फैले हुए थे । एक ऊंचे टीले पर एक छोटा सा मंदिर दिखाई दे रहा था जिसके कंगूरे का कलश संध्याकालीन रक्तिम किरणों में विचित्र रूप से चमक रहा था । उसी के पास एक और टीला था । मंदिर वाले टीले की अपेक्षा कुछ अधिक ऊंचा ।

       उस पर जाने के लिये नीचे से ऊपर तक छोटी-छोटी सीढ़ियों की लंबी कतार थी । स्थान स्थान पर यह सीढ़ियां टूट चुकी थी फिर भी उनका प्रयोग विश्वास के साथ किया जा सकता था । जहां सीढियाँ समाप्त होती थीं वहां कोई बहुत छोटा सा शिवालय था या फिर तुलसी का देवल । नीचे से कुछ स्पष्ट नहीं दिखाई पड़ रहा था । 

       टीलों से कुछ हट कर एक खंडहर था जिसे देख कर अनुमान लगाया जा सकता था कि यह इमारत अपने समय में निश्चय ही अत्यंत भव्य रही होगी । इसी खंडहर में रजत ने ठहरने का निश्चय किया था । मंदिर और खंडहरों के अतिरिक्त अन्य कोई स्थान वहां ठहरने योग्य न था ।

       खंडहर में प्रवेश करते ही एक विचित्र सी गंध रजत के नसों में घुसी । वह कुछ ठिठक गया किंतु फिर दृढ़ता से भीतर प्रविष्ट हो गया । द्वार पार करने पर एक लंबा पतला गलियारा पार करना पड़ा । एक विशाल आँगन में जा कर यह गलियारा खत्म हो गया ।

      आंगन के पूर्व में एक दालान था । शेष तीनों और कमरे बने हुए थे जो अब जर्जर अवस्था में थे ।

      रजत ने आँगन की पश्चिमी दिशा में पड़ने वाले कमरे को खोला । जर्जर, उड़के हुए किवाड़ चरमरा कर खुल गए और वर्षो से बंद रहने की सीली सी बास एक भभका बन कर बाहर निकली ।

थोड़ा ठहर कर रजत ने कमरे का अंदर से निरीक्षण किया । द्वार दीवार के बीचोबीच में था और उसकी दोनों तरफ दो बड़ी खिड़कियां थीं जिनमें चीड़ की लकड़ियों के पल्ले जड़े हुए थे ।अपने गाइड से कह कर रजत ने कमरे की सफाई कराई । कमरा साफ़ करते करते ही उसने पूछा था -

"साहब ! क्या आप यही रहेंगे ?"

"हां । क्यों ?"

"साहब !..."कुछ कहते कहते गाइड हिचकिचाया ।

"क्या बात है ? निडर होकर कहो ।"

 रजत ने फिर पूछा तो वह बोला -

"पचास साठ वर्षों से इन खंडहरों का रुख़ किसी ने नहीं किया है साहब ! और यहां तो सुनते हैं कि आत्माएं रहती हैं ।"

"क्या ?"

"हां साहब ! वह उधर बस्ती की ओर जो मंदिर पड़ता है दुर्गा मैया का वह भी तो अपने आप बन गया था । गांव या शहर के किसी मजदूर या राजगीर ने एक ईंट तक न उठाई और रातों-रात मंदिर तैयार हो गया । दुर्गा मैया के आदेश से ही कोई इधर नहीं आता ।"

 गाइड ने बताया ।

"अच्छा । किसी ने दुर्गा मैया को देखा भी है ?"

 रजत ने दिलचस्पी से पूछा ।

"साहब ! हम पापी लोगों को तो दर्शन नहीं हुए लेकिन यहां के राजा जी और उनके वंशजों ने उनके कई बार दर्शन किए हैं ।"

"खैर, जो होगा देखा जाएगा ।"

 रजत ने बात टालने के ख्याल से कहा । उसे आत्माओं के अस्तित्व पर विश्वास था किंतु उनके दर्शन या रूप धारण करने की बात पर उसे रत्ती भर भी भरोसा नहीं था । भूत-प्रेतों या देवी देवताओं के आगमन की बात भला कौन पढ़ा लिखा व्यक्ति स्वीकार करता है ? 

 गाइड ने एक बार फिर आग्रह किया -"साहब ! यहां न ठहरें । इससे अच्छा तो आप उस टीले वाले मंदिर की यज्ञशाला में ठहर जाएँ ।"

"नहीं दोस्त ! मैं यही रहूंगा । अगर दुर्गा मैया को यह नाग़वार लगेगा तो वह स्वयं आकर मुझे मना कर देंगी । इसी बहाने उनके दर्शन मुझे भी मिल जाएंगे ।"

"लेकिन साहब !....."

"लेकिन लेकिन कुछ नहीं । मेरा सामान उधर रख दो और अब तुम जाओ । रात होने वाली है । ज्यादा समय की बीत गया तो जाने में भी मुश्किल होगी ।"

"साहब ! आप अकेले ...."

"हां भाई ! मैं अकेला ही रहूंगा । और हां, तुम कल सुबह मेरे खाने के लिए कुछ ला देना । या फिर सुबह आकर कुछ बना ही जाना ।"

"अच्छा साहब !"

 वह जाने के लिए मुड़ा तो रजत ने उसके हाथ पर सौ रुपये का नोट रख दिया ।

"ये रुपए रख लो । नाम क्या है तुम्हारा ?"

"गेंदा सिंह ।"

"खूब । अच्छा, कल आना ।"

"अच्छा साहब !"गेंदा सिंह ने लंबा सलाम ठोंका और चला गया । उसके जाने के बाद रजत बैठा नहीं । उसने अपने सामान को एक ओर जमाया और साफ़ की हुई फ़र्श पर अपना बिस्तर लगा दिया । आते समय वह अपने साथ कुछ अखरोट बादाम और सूखे मेवे ले आया था । थोड़े से अखरोट जेब में डाल कर वह कमरे से बाहर निकला ।

 द्वार अच्छी तरह बंद करके उसने एक बार पूरे खंडहर का चक्कर लगाया । कहीं कोई खास बात नजर न आयी । पुराने समय के जमींदारों के भवनों के ही समान ही यह भी था । जिस कमरे में रजत ने ठहरने का निश्चय किया था उसी के पार्श्व में एक छोटी सीढ़ी भी थी जो नागिन की तरह बलखाती ऊपर चली गई थी ।

 पूरे खंडहर का निरीक्षण करके रजत इस सीढ़ी से चढ़ कर ऊपर पहुंचा । खुली हुई छत कहीं कहीं टूट गई थी । किनारे की मुंडेर की ईटें भी खिसकने लगी थीं । काई की काली परत ने पूरी इमारत को स्याह रंग में रंग दिया था । इमारत के बाजू में एक कुंआ था जो अब भग्न अवस्था में था । कुंआ  देख कर रजत की प्यास चमक आई । उसकी बोतल में पानी था फिर भी उसने पानी की तलाश में चारों ओर देखा । अंधेरा गहरा हो चला था । कहीं कुछ स्पष्ट दिखाई न पड़ा । 

 मंदिर और टीले अंधेरे में दैत्यों के सायों के समान काँप रहे थे । अंधेरा थरथराने लगा था । रजत ने ऊपर सिर उठाया । नीला आकाश काली चादर ओढ़ चुका था । कालिमा की फटी चादर के सुराखों से रह रह कर किसी सुंदरी भिखारिन के बदन जैसा आकाश चमक रहा था ।

 रजत ने टार्च जला ली और उसकी प्रकाश - रेखा के सहारे धीरे-धीरे संभल संभल कर नीचे उतर आया ।

      कमरे में आकर उसने मोमबत्ती जला दी । टिफ़िन कैरियर से निकाल कर खाना खाया और बिस्तर पर लेट कर उपन्यास के पन्नों में डूब गया । रात खिसकती रही और जब नींद में उसकी पलकें बोझिल कर दीं तब हाथ की किताब सिरहाने रख कर वह सो गया ।

       नींद खुली तो सवेरा हो चुका था और सूर्य की सुनहरी  किरणें कमरे में खेलने लगी थीं । गेंदा सिंह की कथित आशंका की बात सोच कर वह मुस्करा उठा था । सारी रात उस वर्जित प्रदेश में बिता कर संभवतः उसने उन आत्माओं के प्रति धृष्ठता की थी लेकिन उसे इस वर्जित कृत्य से रोकने के लिए किसी आत्मा ने उस तक आने का कष्ट नहीं उठाया था ।

      नित्यकर्म से निवृत हो कर उसने आसपास के वातावरण का जायज़ा लिया । टीले पर के उस मंदिर में उसे एक विचित्र प्रकार का आकर्षण प्रतीत हो रहा था । बार-बार मंदिर के खुले पट उसका आह्वान सा कर रहे थे । चांदी सी चमकती धूप चारों ओर बिखरी हुई थी ।

 गेंदा सिंह उसके लिए बस्ती से सहज प्राप्त फल, सब्जियां और आटा लाया था । लकड़ियां बटोर कर उसने खंडहर के आंगन में ही एक ओर चूल्हा बना लिया था और अब रसोई के प्रबंध में जुटा था ।

       रजत का मन बार-बार मंदिर की ओर खिंचा जा रहा था । वह गेंदा सिंह से कहकर मंदिर की ओर बढ़ गया । मंदिर तक जाने के लिए उसे कुल उन्चास सीढ़ियां तय करनी पड़ीं । मंदिर के पट जो नीचे से देखने पर खुले प्रतीत हो रहे थे वस्तुतः बंद थे । उनका काला रंग कहीं-कहीं से उखड़ गया था । मंदिर की दीवारें पत्थर की थीं जिन पर सुंदर नक्काशी की गई थी । ऊपर गोल गुंबद और फिर ऊंची लंबी चोटी पर रखा हुआ पीतल का कलश जो धूप में सोने का भ्रम उत्पन्न कर रहा था ।

      रजत मंदिर के द्वार से टिक कर  खड़ा हो गया । चारो ओर दूर-दूर तक पेड़ और झाड़ियां फैली हुई थीं । रात में वन्य पशुओं के गर्जन से गूंजने वाला वन इस समय चिड़ियों की मधुर कलरव से गूंज रहा था ।

      मंदिर के पास ही एक आम का पेड़ था । फलों के भार से दबी हुई उसकी शाखाएं धरती का आंचल चूम रही थीं । सिंदूरी आम के फलों को देखने पर देखने वाले के मन में फूलों का भ्रम उत्पन्न होता था । वातावरण अत्यंत सुहावना था ।

      रजत ने घूम कर मंदिर का एक चक्कर लगाया । पीछे की ओर एक छोटा सा द्वार था और उसके पास ही बनी थी यज्ञ वेदी । उस पर जंगली फूलों की लताएं फैल गई थीं । थोड़े अंतर के बाद ही टीले की सीधी ढलान थी जो पीछे एक बड़े गड्ढे में खत्म हो जाती थी । यहां से अगर कोई गिर पड़े तो .....

       रजत को झुरझुरी हो आई । अर्ध परिक्रमा करता वह फिर मंदिर के सामने आ गया । कहीं कुछ नवीनता, कोई विचित्रता न होने पर भी रजत को जैसे कोई आत्मिक संबंध मंदिर की ओर खींच रहा था । उसने बंद किवाड़ों को धक्का दिया लेकिन वे टस से मस न हुए । रजत ने कई बार उन्हें खोलने का प्रयत्न किया और अंत में निराश होकर लौट आया ।

      दूसरे टीले पर एक छोटा सा शिवाला था । टीले का धरातल कठिनाई से दस वर्ग फीट का ही होगा । काले संगमरमर की छोटी सी शिव मूर्ति के ऊपर सफेद संगमरमर का क्षत्र के आकार का चंदोवा था ।  शिवलिंग के सामने ही थी नंदी की मूर्ति और वहीं ध्यानावस्थित पार्वती जी भी स्थित थीं । देवताओं पर श्रद्धा न रखने वाले रजत के मन में न जाने कैसे श्रद्धा जाग पड़ी । 

      उसने पास फैली जंगली लताओं से फूल चुन कर मूर्ति पर चढ़ा दिए । मस्तक नवा कर जब उसने सिर उठाया तो चौंक पड़ा । शिव मूर्ति के पीछे ही एक छोटा सा पक्का कुंड था जिसमें साफ पानी का सोता छलछला रहा था । पानी की पतली धार झरने के रूप में धीरे-धीरे बहती शिवलिंग के चरण धोती नीचे की ओर उतर गई थी । प्रकृति की इस विचित्र रचना पर रजत चकित रह गया । टीले पर फूटने वाला झरना ..... यह कल्पना भी असत्य लगती है ।

        दिन भर रजत गेंदा सिंह से बातें करता रहा और आसपास के वातावरण, मंदिरों और उस खंडहर का विवरण अपनी नोट बुक में नोट करता रहा और फिर आ गई वह रात ...

       चारों ओर फैला सन्नाटा । गहरा अंधेरा और पल-पल खिसकता समय । बढ़ती भयानकता । आज की रात रजत को रोमांचित कर रही थी । यद्यपि एक रात वह इसी खंडहर में सकुशल बिता चुका था किंतु आज उसका हृदय व्यग्र था । गेंदा सिंह बस्ती की ओर जा चुका था ।  मोमबत्ती जला कर देर से रजत पढ़ने की कोशिश कर रहा था लेकिन शब्द थे कि सब आपस में गड्डमड्ड हुए जाते थे । कई बार प्रयत्न करके भी वह कुछ न पढ़ सका तो किताब बंद करके रख दी और सोने की चेष्टा करने लगा ।

      पिघलती हुई मोमबत्ती आधी जल चुकी थी । रजत ने आंखें बंद कर लीं । नींद अभी आंखों से कोसों दूर थी  । और तभी उसे लगा जैसे कोई बड़ा सा काला ठंडा अंधेरे का टुकड़ा उसके ऊपर छाने लगा।

        रजत ने घबरा कर आंखें खोल दीं । बाहर हवा की सांय सांय बढ़ती जा रही थी । लगता था तूफान आएगा । हवा के थपेड़े बार-बार कमरे के द्वार से टकरा कर भड़भड़ा उठते । बिल्कुल ऐसे जैसे कोई जोर जोर से सांकल बजा रहा हो । 

 अजीब खौफ़नाक माहौल हो रहा था । अचानक हवा के एक तेज झोंके ने मोमबत्ती बुझा दी । बाहर का अँधेरा कमरे में उतर आया । रजत ने चादर अपने गिर्द लपेट ली । तभी सांकल जोर से बज उठी ।

रजत चौंक पड़ा । इस एकांत निर्जन स्थान में कौन है हो सकता है ? उसने जोर से पूछा -

"कौन है ?"

 उत्तर न मिला । रजत ने सोचा - हवा के झोंके ने यह शरारत की होगी और अपनी मूर्खता पर खुद ही उसे हँसी आ गई किंतु नहीं । यह भ्रम नहीं था । सांकल फिर बजी थी । बिल्कुल उसी ढंग से । उसी अंदाज में । 

रजत ने सांस रोक ली और कान लगा कर आहट सुनने लगा । अपने संदेह का वह निवारण करना चाहता था । थोड़े अंतराल के बाद फिर सांकल बजी किंतु इस बार कुछ आहिस्ता आहिस्ता ।

       रजत ने टटोल कर अपनी टार्च उठा ली और दूसरे हाथ से पिस्तौल का हत्था कस कर पकड़ लिया । कौन हो सकता है इस समय ? कहीं कोई आत्मा ? धत, यह सब मनुष्य का वहम है  कोरी कल्पना । आत्माओं का कोई अस्तित्व नहीं । फिर ?

 जरूर कोई डाकू होगा । चंबल की घाटियों में डाकू रहते ही हैं । उन्हीं में से कोई यहां आश्रय की तलाश में आया होगा और प्रकाश की रेखा के सहारे इस कमरे तक .....

सांकल एक बार फिर बजी ।

 रजत बिना आहट किए पांव दबा कर द्वार तक पहुंचा और खामोशी से आहिस्ता आहिस्ता कुंडा खोल कर आड़ में खड़ा हो गया । हवा का एक झोंका उढ़के हुए किवाड़ों को धकेल कर अंदर घुस आया ।

बहुत देर तक जब रजत ने कोई आहट न सुनी तो टार्च जला कर बाहर निकल गया । उसके दाहिने हाथ में अभी भी पिस्तौल का दस्ता दबा हुआ था । सावधानी से उसने पूरे आँगन और आसपास के कमरों का निरीक्षण किया ।

 आंगन में धूल की परतें और पत्तों का अंबार था किंतु किसी के आने का उसे कोई चिन्ह नहीं मिला । तो क्या वह उसका भ्रम था ? यह कैसे हो सकता है ?

 उसने तीन बार सांकल बजने की आवाज बिल्कुल साफ़ साफ़ सुनी थी । अपने अनुभव को झूठा कैसे समझ ले ? मन की तसल्ली के लिए उसने टार्च का रुख़ कर छत पर जाने वाली सीढ़ियों की ओर कर दिया । अचानक उसे लगा जैसे कोई साया तेजी से सीढ़ियों के ऊपरी मोड़ पर गुम हो गया । टार्च से निकले प्रकाश के दायरे में सीढ़ियों पर पड़ी धूल पर दो छोटे-छोटे मांसल पैरों के निशान पड़े हुए थे । 

 रजत ने उन्हें ध्यान से देखा । उसे लगा जैसे वह इन पद - चिन्हों को पहचानता है   आज से नहीं, वर्षो से वह इन चिन्हों को जानता है । जैसे ये चिन्ह किन्हीं बेहद खूबसूरत गुलाबी तलवों वाले मांसल संगमरी पाँवों के हैं जिनमें पायल बंधी हुई है फिर भी जिनके थिरकने से आवाज नहीं होती । खामोशी गुनगुना उठती है । हवाओं में संगीत भर जाता है । फिज़ा महक उठती है । 

      रजत मंत्रमुग्ध सा उन्हें देखता रहा । हर सीढ़ी पर एक पांव का चिन्ह बना था । एक पर दाएं पांव का, दूसरे पर बाएं पांव का । संभल संभल कर, उन चिन्हों से बच बच कर रजत ऊपर चढ़ता गया । पद - चिन्हों का यह सिलसिला अंतिम सीढ़ी पर जाकर समाप्त हो गया ।

      उसके बाद पूरी छत अछूती थी । कहीं कोई चिन्ह नहीं । कोई आहट नहीं । फिर भी लगता था जैसे कोई दैवी अस्तित्व अभी अभी यहीं कहीं खो गया हो ।

      देर तक रजत छत पर चिन्ह ढूंढता रहा किंतु निराशा ही हाथ लगी । वह फिर सीढ़ियों के पास आया । एक बार फिर उन पद - चिन्हों को देखने का औत्सुक्य वह संवरण न कर पा रहा था । किंतु यह क्या ? टार्च के दायरे में अब कोई चिह्न न था । धूल की मोटी परत अछूती थी   उस पर रजत के पांवों के निशान थे किंतु वे चिन्ह कहीं नहीं थे ।

      रजत का मस्तिष्क घूम गया । यह सब क्या गोरखधंधा है ? क्या उसने किसी चिन्ह को नहीं देखा ? क्या उसने जो देखा सुना वह सब भ्रम था ?  तो सत्य क्या है ? कहीं गेंदा सिंह के कहे अनुसार यह सब आत्माओं का खेल तो नहीं ? किंतु रजत का मन मस्तिष्क से समझौता न कर सका । उसका तर्क, उसी की बौद्धिकता उसे बार-बार कहती रही - यह सब भ्रम है । यह कुछ भी हो सकता है किंतु आत्मा कुछ नहीं है ।

       रजत ने एक बार फिर छत पर खड़े होकर चारों ओर दृष्टि डाली । अंधेरे में लिपटा हुआ जंगल भयानक हो चुका था । हिंसक पशुओं की हुंकारे बीच-बीच में उभर कर वातावरण की भयंकरता को और भी बढ़ा रही थीं ।

      रजत ने टीलों की ओर देखा जो रात की चादर में लगे धब्बे जैसे ही भयानक थे । अंधेरे में भी उसकी दृष्टि मंदिर वाले टीले पर ठहर गई । वह उसे अच्छी तरह पहचान पा रहा था और इस अंधेरे में भी उसे महसूस हो रहा था कि मंदिर के दोनों पट खुले हुए थे । 

       गहरे अंधेरे के बीच भी मंदिर जैसे अपने अस्तित्व का आभास दिला रहा था और उसके वे खुले हुए प्रतीत होने वाले पट .....

       न जाने कौन सा रहस्य उन किवाड़ों के पीछे बंद था । गेंदा सिंह से जब उसने इस संबंध में पूछा तो उसने कहा था -

"साहब ! यह देवी मैया की राजधानी है । मंदिर के पट पिछले दस वर्षों से नहीं खुले हैं । लगभग दस वर्ष पहले अचानक ही दिन रात खुले रहने वाले  पट आधी रात के समय जोर की आवाज के साथ बंद हो गए और तब से आज तक बंद हैं । राजा जू ने भी बड़ी मिन्नत की लेकिन कुछ फायदा नहीं हुआ । तब से इधर आने से लोग डरते हैं । कुमारी जू पहले यहां रोज पूजा के लिए आया करती थीं ।"

"कौन कुमारी जू ?"

"राजा जयसिंह की बेटी रूप कुंवर जू ।"

       वे ही पट इस समय खुले हुए थे ।  आधी रात के बाद ....। क्या वे पट सचमुच खुले हुए हैं ? रजत को आश्चर्य हुआ कि इतने घने अंधकार में भी वह कैसे समझ पा रहा है कि मंदिर खुला है ।

       गेंदा सिंह ने ही बताया था -

"उस दिन के बाद रूपकुंवर जू को किसी ने नहीं देखा । वह कभी घर से बाहर न निकलीं । किसी ने उनकी आवाज़ न सुनी ।"

"ओह ।"

        रजत गहन चिंतन में डूब गया ।

      

      वे खुले हुए मंदिर के पट । रजत का मन उसी ओर खिंचा जा रहा था । बड़ी ही आत्मीयता से, बड़े आग्रह से मंदिर के खुले हुए पट बाहें पसारे उसे बुला रहे थे । उस ओर जाने की तीव्र इच्छा को वह रोक नहीं पा रहा था । यह अदम्य अभिलाषा क्यों ?

      आकाश पर बादल छाने लगे थे ।  हवा की गति और तेज हो गई थी । थोड़ी ही देर में आकाश घने बादलों मैं छिप गया । बिजली चमकने लगी और आसमान की फटी चादर से ढेरों मोती तरल होकर बरस पड़े । बड़ी-बड़ी बूंदों के साथ छोटे-छोटे ओले भी गिरने लगे ।

       असमय की वर्षा और यह उपल पात । रजत नीचे उतर आया । कमरे का द्वार खुला था । टार्च के प्रकाश से उसने कमरे के अंधेरे को चीर दिया और बिस्तर पर बैठ गया । मन में उठने वाली इच्छा, मंदिर का आह्वान और आत्मिक आकर्षण उसे चैन नहीं लेने दे रहे थे । मस्तिष्क ने भी तर्क किया - यदि मंदिर के पट खुले हैं तो उनका रहस्य जानना ही चाहिए । कितनी अद्भुत खोज होगी यह । यदि ऐसा नहीं है तब भी शंका का निराकरण तो हो ही जाएगा । 

       अंततः मानसिक जिज्ञासा की ही विजय हुई । टार्च और पिस्तौल लेकर वह बरसते पानी में ही कमरे से बाहर निकल पड़ा । कमरे का द्वार अच्छी तरह बंद करके उसने आँगन पार किया और फिर सावधानी से कदम बढ़ाता गलियारा पार करके खंडहर के बाहर आ गया । 

      सामने लगभग डेढ़ फर्लांग की दूरी पर खड़ा टीला अभी भी उसे इशारा कर रहा था । मंदिर के कँगूरे पर स्थित कलश बिजली की चमक पाकर जल से उठता था । मंदिर का द्वार खुला हुआ ही प्रतीत हो रहा था ।

       रजत तेज कदमों से आगे बढ़ गया । ओले और भी तेजी से गिरने लगे थे । उनका आकार भी अब बड़ा हो चला था ।बदन से टकराते ओले रजत को सिहरा देते । 

       वर्षा के तेज होने के साथ रजत दौड़ने लगा । दौड़ते हुए रास्ता तय किया उसने और जल्दी-जल्दी सीढ़ियां चढ़ने लगा । यह शीघ्रता बहुत खतरनाक थी । वर्षा के कारण सीढ़ियों पर फिसलन हो गई थी । ऊबड़ खाबड़ सीढ़ियां थोड़ी सी भी असावधानी होने पर उसे नीचे धकेल देती लेकिन रजत इन सारी विपत्तियों से बेफिक्र ऊपर चढ़ता जा रहा था ।

      जब वह मंदिर के सामने पहुंचा वह हाँफ रहा था । कुछ देर तक रुक कर उसने अपनी सांसे ठीक कीं और आगे बढ़ने के लिए टार्च का रुख फर्श की ओर किया । एक बार फिर उसे चौंक जाना पड़ा । उसके सामने वही चरण - चिन्ह उपस्थित थे ।

      उसने आंखें मल कर देखा । कहीं यह कोई स्वप्न तो नहीं है ? किंतु वह स्वप्न नहीं हो सकता । वही छोटे-छोटे सुडौल और मांसल पांवों के निशान .... जैसे धीरे-धीरे मस्तानी चाल से कोई सुंदरी अभी-अभी यहां से गुजरी हो । इतनी तेज वर्षा की धारा भी उन चरण चिन्हों को बहा नहीं पाई थी । कितने स्पष्ट, उभरे हुए थे वे पैरों के निशान । 

       मंदिर की देहरी पर जाकर वे चिन्ह समाप्त हो गए । रजत ने मंदिर के द्वारों पर दृष्टि डाली । द्वार वैसे ही बंद थे जैसे वह उन्हें दिन में देख गया था । फिर ये किसके पड़ चिन्ह हैं ? कहां गई इन चिन्हों की स्वामिनी ? उसने टार्च का प्रकाश मंदिर के आसपास डाला और खोजपूर्ण नेत्रों से इधर-उधर देखने लगा ।

       मंदिर के समीप स्थित आम्र वृक्ष पर उसकी दृष्टि ठहर गई । वृक्ष की फलों से भरी डालों के बीच एक साया लहरा रहा था । हां साया ही था वह । रजत ने फिर अपनी आंखें मलीं और देखा -

    वह साया एक नारी मूर्ति में बदल रहा था । आकार उभर रहा था । एक पन्द्रह सोलह वर्षीया युवती बालिका का चेहरा था वह । उसकी बड़ी-बड़ी आंखों में ढेर सारा भोलापन और कौतुक भरा था । गुलाबी अधर काँप रहे थे सफेद साड़ी में लिपटी हुई उस बालिका ने अपने केश के खोल रखे थे । ऐसा लगता था जैसे अभी अभी नहा कर आई हो । 

      उसके बालों से पानी की बूंदें टपक रही थीं । काली काली अलकों से घिरा वह सुंदर मुख स्पष्ट नहीं था परंतु रजत उसके अपरिमित सौंदर्य को अनुभव कर पा रहा था । पत्तों की ओट लेकर वह खड़ी थी । सफेद साड़ी के नीचे झांक रहे थे दो सुंदर संगमरमरी पाँव जिनमें पायल बंधी थी पर बेआवाज । उनकी छम छम खोई हुई थी । उसके अधर खामोश थे । प्रस्तर प्रतिमा जैसा वह अपरिमित सौंदर्य बिना बोले ही जैसे कोई दर्दीली कथा कह रहा था । उसके खामोश थरथराते अधर, उसकी मासूम नजरें बिना बोले ही बहुत कुछ बोल रही थीं । एक ऐसी कहानी जो आदि से अंत तक दर्द में डूबी थी ।

       रजत उसे एकटक देख रहा था । वह उसके सुंदर रूप में डूबा हुआ था । उसकी वेदना से अभिभूत था । बाएं हाथ में पूजा का थाल लिए वह एक हाथ से वृक्ष की डाल पकड़े आगे की झुक कर खड़ी थी ।

       रजत पर नशा जैसा छाता जा रहा था । उसने अपनी चेतना को संभाल कर लड़खड़ाते पांवों से उसकी ओर बढ़ने का प्रयत्न किया किंतु उसके पांवों पर मानो मनो का बोझ था । चाह कर भी वह आगे नहीं बढ़ पा रहा था । तभी बादल जोर से गड़गड़ा उठे । बिजली की तेज चमक ने उसकी आंखें बंद कर दीं और जब चकाचौंध से दूर हुई वह सुंदरी बालिका वहां नही थी । 

        रजत की जड़ता भी टूट चुकी थी । पागलों की तरह वह वृक्ष की ओर झपटा किंतु वहां कुछ भी न था । 

      रजत ने वहां का चप्पा चप्पा छान मारा और अंत में निराश होकर वहीं मंदिर की देहरी पर सिर रख कर बैठ गया । वर्षा कब बंद हु,कब उसे नींद ने धर दबाया इसका उसे एहसास भी न हो सका ।

       नींद टूटने पर उसने स्वयं को उसी कमरे में पाया जहां वह ठहरा हुआ था । गेंदा सिंह उसके पास बैठा था । रजत को आंखें खोलते देख कर उसने चाय का प्याला बढ़ा दिया -

"साहब ! चाय पी लीजिए ।"

"मैं यहां कैसे आया गया गेंदा सिंह ?"

"साहब ! आपको कमरे में न पाकर मैं डर गया था । आस पास ढूंढने पर जब आप नहीं मिले तो मैं मन्दिर की ओर चला गया । वहीं मंदिर के सामने आपको पड़े देखा और उठा कर यहां ले आया । आपके सारे कपड़े भीग गए थे । साहब ! अब रात में वहां क्यों गए थे ?"

"कुछ नहीं । ऐसे ही ।"

      रजत बात टाल गया । 

      वह स्वयं रात की घटना पर विश्वास नहीं कर पा रहा था । गेंदा सिंह से कहने पर वह उसे देवी मैया की कृपा कहेगा या फिर भूत-प्रेतों का उत्पात बताएगा । रजत इन बातों को मानने के लिए तैयार नहीं था । वह उस रहस्य की तह तक जाना चाहता था । सारे दिन वह खंडहर और उसके निकट के टीलों पर घूमता रहा ।

      उस दिन उसका किसी काम में मन लगा । तीसरे पहर ही वह अपने कमरे में लौट आया और आर्ट पेपर पर रात देखें सौंदर्य को साकार रूप देने लगा ।

       शाम होते-होते उसने पेंसिल स्केच तैयार कर लिया । शाम गहरी होने लगी थी इसलिए रंग भरने का कार्य दूसरे दिन पर छोड़ कर वह चक्करदार सीढ़ियों से होता हुआ छत पर जा पहुंचा । मुंडेर के पास खड़े होकर चारों ओर बिखरे प्राकृतिक सौंदर्य में वह खो सा गया ।

      प्राकृतिक दृश्यों में आज कुछ नया ही सौंदर्य था । कोयल की कूक में अनोखी ही मादकता थी । सनसनाती हुई हवा पिछली रात देखे सौंदर्य का गीत गा रही थी । फिज़ा में वही खामोश संगीत - लहरी गूंज रही थी । उन थरथराते अधरों की अनकही कहानी हजारों स्रोतों से होकर अपना दर्द वातावरण में उड़ेल रही थी ।

       रजत को इंतजार था रात गहराने का ।  रात के अंधेरे में वह फिर उस सौंदर्य को देखना चाहता था । उसके अनबोले अधरों की कहानी सुनना चाहता था । उन खूबसूरत पग - चिन्हों को एक बार फिर देखना चाहता था  जो अपनी स्वामिनी के दर्द के भागीदार थे । पायल की वही खामोश छम छम सुनने के लिए उसका मन व्याकुल था किंतु .... क्या वह आज भी आएगी ? वे खूबसूरत नक्शे पा क्या वह फिर देख सकेगा ? 

       आज उसका मन नीचे जाने का न हुआ । मुंडेर के पास बैठ कर ही वह मंदिर के बन्द दरवाजों को देखता रहा । उनकी कशिश महसूस करता रहा । उनके आह्वान को सुनता रहा और प्रतीक्षा करता रहा उस अनजाने अस्तित्व की ।

       रात भीगती गई । एक बज गया । वह प्रतीक्षा करते करते थक कर मुंडेर पर सिर रखे अपनी नींद से बोझिल पलकों को आराम देने लगा ।

       कितनी देर सोया कुछ पता न चला । एक हल्की सी आहट से उसकी आंखें खुल गयीं । उसने देखा -  उसके चारों ओर सफेद बादलों का एक टुकड़ा मडरा रहा था । उसने उठने का प्रयत्न किया लेकिन सफल न हो सका । जैसे शरीर अपने स्थान पर जड़ हो गया था । वह अपने हाथ पांव भी नहीं हिला सकता था । 

      थोड़ी देर में बादलों के उस टुकड़े की धज्जियां बिखर गयीं । हल्की सी धुंध चारों ओर बिखरी रही और उसमें से धीरे-धीरे एक आकार स्पष्ट होने लगा । वह धुंधला सा आकार ... वही अनुपम सौंदर्य । काली घनी अलकों से घिरा चांद जैसा मुखड़ा । काली-काली विशाल आंखें और थरथराते गुलाब की पत्तियों जैसे अधर । आज भी उसके बालों से पानी टपक रहा था । सफेद साड़ी में लिपटा हुआ उसका बदन और कपड़ों के नीचे से झांकते मरमरी पांव ।

       रजत मुग्ध सा उसे देखता रहा ।  वह कुछ पूछना चाहता था । कुछ कहना चाहता था किंतु उसके बोल साथ नहीं दे रहे थे । उस चंद्र मुख पर छायी विषाद की रेखाएं उससे कुछ अनुनय कर रही थीं । कुछ कहना चाह रही थीं । कुछ अपेक्षा रखती प्रतीत हो रही थीं ।

       कुछ ही क्षणों बाद वह आकृति धुंध में समा गई । रजत चौंक कर उठ बैठा । उसने देखा - रुई के फाहे जैसे बादल तेजी से मंडराते हुए मंदिर के कंगूरे पर जाकर लुप्त हो गए ।

      उसके बाद रजत सो न सका । पौ फटने में एक घंटे की देर थी । सूनी छत पर बैठा हुआ वह दूर-दूर तक फैले अंधकार के साम्राज्य को देखता रहा । उस अपरिचिता के विषय में सोचते सोचते सवेरा हो गया । 

       नित्यकर्म से निबट कर जब वह अपने कमरे में पहुंचा गेंदा सिंह आ चुका था और चाय की केतली चूल्हे पर रखे आग ठीक कर रहा था ।

     रजत कमरे में जाकर एक दिन पूर्व  खिंचे खाके में रंग भरने की तैयारी करने लगा । अभी उसमें रंग भरना शुरू ही किया था कि गेंदा सिंह चाय ले आया । 

       चाय का प्याला रखते समय उसकी दृष्टि चित्र पर पड़ी और वह चीख पड़ा । 

"क्या हुआ ?"

       रजत ने घबरा कर पूछा ।

"कुमारी जू .... आप कुमारी जू को जानते हैं ?"

       गेंदा सिंह ने चकित और भयभीत दृष्टि से चित्र की ओर देखते हुए पूछा ।

"कौन कुमारी जू ? मैं उन्हें कैसे जानूंगा ?"

"कुमारी रूप कुंवर जू । यह चित्र तो उन्हीं का है । दस बरस पहले जब वे मंदिर में पूजा करने आती थीं तब ऐसे ही सफेद धोती पहने, बाएं हाथ में पूजा का थाल लिए आती थीं । तुरंत नहा कर मंदिर में जाते समय उनके बालों से पानी टपकता रहता था । बिल्कुल वही मूरत । वही रूप है साहब ! लेकिन आपने उन्हें कब देखा ?"

"तुमने उन्हें कब से नहीं देखा गेंदा सिंह ?"

       रजत ने उसके प्रश्न का उत्तर न देते हुए पूछा ।

"कोई दस बरस हुए होंगे जब वह पूजा के लिए आती थी । सारा गांव देखता था कुमारी जू को । बड़ा प्यारा स्वभाव था उनका लेकिन जब से मंदिर के कपाट बंद हुए उन्हें फिर किसी ने नहीं देखा ।"

"ओह !"

       रजत गहरे सोच में डूब गया । उसकी आंखों में रूप कुमार का भोला मुख डोल गया ।  उसकी भोली निश्छल दृष्टि में छिपी आरजू उसका हृदय मसलने लगी । तो क्या रूपकुंवर मर चुकी है ? लेकिन यह कैसे संभव है ? वह मर चुकी है तो रातों को इस तरह भटकती क्यों है ? कहीं उसकी अतृप्त आत्मा का कोई भयानक सफ़र तो नहीं है ?

       गेंदा सिंह कहता है कि रूपकुंवर को दस वर्षों से न किसी ने देखा न उसकी आवाज सुनी फिर भी वह उसे मृत नहीं मानता । इस हिसाब से तो वह अब पच्चीस छब्बीस वर्ष की युवती होगी । फिर यह सुंदरता की प्रतिमा कौन है ? 

"तुम क्या पूरे एतबार से कह रहे हो गेंदा सिंह कि यह रूपकुंवर की ही तस्वीर है ?"

       रजत ने पूछा ।

"हां साहब ! मैंने ऐसा रूप कहीं नहीं देखा । कुमारी जू मुझसे बहुत छोटी हैं । मैंने उनके जैसा मीठा स्वभाव, उनके जैसी सुंदरता और निश्छलता कहीं नहीं देखी । मैं कसम खाने को तैयार हूँ । यह रूप कुंवर जू ही हैं ।"

"लेकिन इस लड़की को मैंने कल भी देखा है । परसों भी देखा था । वह इतनी ही बड़ी है । ऐसी ही है । तुम्हारी रूपकुंवर जू तो अब तक बहुत बड़ी हो गई होंगी । यह तो ..... "

"यह कैसे हो सकता है साहब ? यह कुमारी जू ही हैं ।"

       गेंदा सिंह ने पूरे आत्मविश्वास के साथ कहा ।

"क्या रूपकुवर जिंदा हैं ?"

"यह आपने क्या कहा साहब ?"

 "तुम ही सोचो गेंदा सिंह ! रूपकुंवर को दस वर्षों से किसी ने नहीं देखा ।  उनकी आवाज भी किसी ने नहीं सुनी तो क्या यह संभव नहीं कि वे मर चुकी हों ? यदि वे जीवित होतीं तो क्या अब तक उन्हें कोई न देख पाता ? उनका विवाह भी तो नहीं हुआ ।"

       रजत ने कुछ सोचते हुए पूछा ।

"आप ठीक कहते हैं साहब ! लेकिन उनके मरने की कोई खबर भी तो नहीं मिली किसी को । पता नहीं । मुझे तो साहब ! बहुत डर लगता है ।  आपको यह सब कैसे मालूम हुआ ? कुमारी जू को आपने कैसे देखा ?"

      रजत ने कोई उत्तर नहीं दिया । वह गहरी सोच में डूब गया । उसकी आंखों के सामने बार-बार रूपकुँवर का चेहरा घूमता रहा । उन अधरों की खामोश थरथराहट में कौन सी विनय कैद थी ? क्या वह रूपकुंवर ही थी या कोई और ?

      कितने ही प्रश्न उसके जेहन में चक्कर काट रहे थे । सारे दिन वह मंदिर के गिर्द भटकता रहा । मंदिर के चप्पे-चप्पे की उसने जांच कर ली लेकिन उसका बंद द्वार न खुल सका । बाहर से उसने सब कुछ अच्छी तरह टटोल लिया लेकिन रहस्य की तहें खुलती नजर न आयीं ।

      शाम हुई तो उसने गेंदा सिंह को छुट्टी दी । वह बोला -

"साहब ! आज मैं भी आपके साथ रहूंगा ।"

"क्यों ?"

       कुछ अचरज से रजत ने पूछा ।

"मैं भी आज कुमारी जू को देखूंगा ।  देखूंगा कि वह कुमारी जू ही हैं या कोई और । मैं आज आपको छोड़ कर नहीं जाऊंगा साहब !"

       रजत ने उसे बहुत समझाया । भूत-प्रेतों की बातें भी कहीं लेकिन वह अपने निश्चय पर अडिग रहा ।

      धीरे-धीरे समय बीतता रहा । रात गहरी होने लगी । रजत मोमबत्ती जला कर कुछ पढ़ने की कोशिश कर रहा था । पास ही बैठा गेंदा सिंह किसी अनहोनी की प्रतीक्षा में सन्नद्ध था ।

       रजत का मन भटक रहा था ।  अपने हृदय में आज वह कुछ अधिक ही उतावली, ज्यादा ही बेचैनी का अनुभव कर रहा था ।

       रात के ग्यारह बज गए । उसके लिए बैठे रहना असह्य होता जा रहा था । जब न रहा गया तो बोला -

"गेंदा सिंह ! चलो । बाहर चलें । मेरा मन बहुत व्याकुल हो रहा है ।"

"डर लग रहा है साहब ?"

        गेंदा सिंह ने पूछा ।

"नहीं । बड़ी अजीब सी बेचैनी महसूस हो रही है ।"

      रजत ने पहलू बदलते हुए कहा । 

      थोड़ा समय और बीता । एक बज गया तो रजत उठ खड़ा हुआ । उसने एक हाथ में टार्च और दूसरे में पिस्तौल ले लिया और बाहर निकल आया । गेंदा सिंह उसके साथ था ।

      खंडहर के बाहर आकर वह ठहर गया । सामने मंदिर की ओर देख कर वह चीख पड़ा -

"तुम कुछ देर देख रहे हो गेंदा सिंह ?"

"हां साहब ! मंदिर के पास कोई खड़ा है । अंधेरे में साफ दिखाई नहीं दे रहा है ।"

        गेंदा सिंह ने उत्तर दिया ।

"वह साया रूप कुंवर का ही है गेंदा सिंह ! और ध्यान से देखो । उसके बाएं हाथ में पूजा की थाली है और...और उसके काले बालों की लटें हवा में लहरा रही हैं ।"

       गेंदा सिंह ने कोई उत्तर नहीं दिया । रजत वातावरण में बिखरते उस खामोशी के संगीत को सुन रहा था । हवा में बिखरती उस दर्द भरी दास्तान का एक-एक शब्द उसके जेहन के करीब से गुजरता जा रहा था ।

       साये के लहराते आंचल के पीछे पीछे उसके कदम उठ रहे थे । सीढ़ियों पर बने पद - चिन्हों को हसरत भरी नजर से देखता हुआ वह टीले पर चढ़ता गया । गेंदा सिंह खामोशी से उसका अनुकरण कर रहा था । 

      मंदिर की दहलीज तक जाकर वह ठिठक गया । उसके मुख से चीख निकलते निकलते रह गई । गेंदा सिंह का तो खून ही ज़र्द हो गया था । रजत ने लड़खड़ा कर मंदिर की चौखट का सहारा ले लिया ।

      वर्षों से बंद मंदिर के द्वार इस समय किसी अभिसारिका की बाहों के समान खुले हुए उनका आह्वान कर रहे थे । फटी फटी आंखों से दोनों मंदिर के भीतर का दृश्य देखने लगे ।

      सामने भवानी की विशाल भव्य मूर्ति खड़ी थी । उनकी बड़ी बड़ी आंखें सुर्ख थीं । मूर्ति के पास ही एक छोटा सा दिया जल रहा था । दिए की काँपती लौ के प्रकाश में थरथराते हुए साये वातावरण की भयावहता में वृद्धि कर रहे थे । 

      मूर्ति के सम्मुख वही किशोरी बैठी थी । पूजा का थाल उसकी बाईं तरफ रखा हुआ था । उसके मधुर कंठ से वन्दना के स्वर बिखर रहे थे । धीरे-धीरे वह फूल आदि भवानी को चढ़ा रही थी । 

      रजत द्वार से टिका खड़ा था । उसका शरीर  जड़ बन चुका था ।

      रूप कुंवर ने पूजा पूरी की और हाथ जोड़ कर मस्तक नवाया । तभी अचानक मूर्ति के पास स्थित स्तंभ के पीछे से एक हाथ बाहर निकला । कटार के एक ही वार से रूपकुंवर का सर कट कर भवानी के चरणों में जा गिरा । दीपक की लौ और भी तेज हो गई ।रूपकुंवर का सिर और धड़ कुछ देर तड़प कर शांत हो गए । खून का फव्वारा देवी के चरण धोता रहा । स्तंभ के पीछे खड़े व्यक्ति की एक झलक भर देख पाया रजत । उसकी चेतना जवाब दे चुकी थी । 

       थोड़ी ही देर बाद उसका बेहोश शरीर मंदिर की दहलीज पर गिर पड़ा । गेंदा सिंह तो बहुत पहले ही होश खो चुका था ।

      काफी दिन चढ़ने के बाद रजत की मूर्छा टूटी । उसने देखा - गेंदा सिंह का शरीर अब भी टीले की धूल में पड़ा था । मंदिर के पट खुले हुए थे किंतु उसके अंदर रात देखे दृश्य का कोई भी चिन्ह शेष न था । एक बार फिर रजत का सिर चकरा गया ।

"तो क्या वह सब स्वप्न था ? रूप कुंवर को किसने मारा ? उसकी लाश कहां गई ? और खून की वह धारा .... उफ़ ! हे भगवान ... क्या था वह सब ?"

       उसने दोनों हाथों से अपना सिर दबा लिया ।

       कुछ देर बाद जब वह कुछ ठीक हुआ तो उठ कर शिवालय के पास स्थित सोते से पानी लाकर गेंदा सिंह के मुंह पर डाल कर उसका शीतोपचार करने लगा । थोड़े से प्रयत्न के बाद वह होश में आ गया किंतु उसकी आंखों में अब भी भय की परछाइयां काँप रही थीं । भयभीत दृष्टि से उसने मंदिर के खुले द्वार पर  टिका दी । उस के रोएं खड़े हो गए ।

       रजत ने सांत्वना दी -

"वहां अब कुछ नहीं है गेंदा सिंह ! चलो ।"

      गेंदा सिंह कुछ कह न सका । रजत ने उसे सहारा दिया और दोनों टीले से नीचे उतर आए ।

       नहा धोकर जब वे कुछ स्वस्थ हुए तो गेंदा सिंह ने नाश्ते का प्रबंध किया । रजत उसके पास ही बैठा रहा ।

      अपने साथ उसने गेंदा सिंह को भी नाश्ता कराया और स्नेह भरे स्वर में पूछा -

"गेंदा सिंह ! वह रूप कुंवर ही थी न ?"

"हां साहब ! कुमारी जू ही थीं लेकिन ..."

"वह सब छोड़ो गेंदा सिंह ! लो, थोड़ी चाय और पियो ।"

"आप क्या अभी यहां ठहरेगें ?"

        उसने पूछा ।

"नहीं, अब मेरा मन यहां न लगेगा ।  मेरा काम भी पूरा हो चुका है । मैं सोचता हूँ आज ही वापस चला जाऊं ।"

        रजत ने कुछ सोचते हुए कहा ।

"साहब ! आज राजा जू से मिलने न चलेंगे ?"

"क्यों ?"

"उनसे मिल कर कुमारी जू के बारे में कुछ मालूम हो सकता है । फिर आप उन्हें मंदिर के पट खुलने की सूचना भी दे दीजिएगा ।"

"हां, यह तुम ठीक कह रहे हो । चलो । सामान समेट लो । आज ही मैं उनसे मिल कर उधर से ही शहर चला जाऊंगा ।"

       रजत ने स्वीकार किया । एक घंटे बाद वे अपने सफ़र पर रवाना हुए ।  रजत ने चलने से पूर्व शिवाले में जाकर सिर नवाया और 'जय भवानी' का नारा लगा कर चल पड़ा । रात की घटना का प्रभाव अभी भी उसके हृदय पर तारी था ।

      राजा जू की उपाधि धारी ठाकुर जय सिंह की हवेली पहुंच कर एक बार फिर रजत को चौंक जाना पड़ा । जय सिंह के सामने आते ही वह चीख पड़ा-

"तुम ? तुम हत्यारे हो ...तुम खूनी हो ।"

        गेंदा सिंह ने रजत को संभाला अन्यथा आवेश में वह जयसिंह से भिड़ ही जाता ।

"साहब ! धीरज रखें साहब ! थोड़ा बुद्धि से काम लें । यह राजा जू हैं ।"

"नहीं । यह हत्यारा है । रूप कुंवर का हत्यारा ।"

       रजत चीख पड़ा । जिस व्यक्ति की झलक उसने मंदिर में देखी थी वह राजा जू ही थे किंतु इस समय राजा जू के चेहरे पर स्थायी पीड़ा घनीभूत हो चुकी थी । 

      मंदिर में देखा व्यक्ति निश्चित रूप से यही था किंतु उसमें और इसमें बहुत अंतर था । वह एक भरपूर जवान हट्टे कट्टे शरीर का स्वामी था और यह एक ढलती उम्र का व्यक्ति जिसकी शक्ति उससे विदा ले रही थी । रजत के आरोप को सुन कर वह चौका किंतु क्रोधित नहीं हुआ ।

        रजत के बार बार जोर देने पर वह आहत स्वर्ग में चीत्कार कर उठा । उसके स्वर में आवेश की अपेक्षा रुदन अधिक था । व्यथा से कराह कर कहा उसने -

"हां बाबू ! मैंने रूप कुँवर को मारा है ।  मैंने ही अपनी बेटी को मारा है । अपनी बेटी किसी के लिए दुश्मन नहीं होती । और फिर रूप कुंवर जैसी बेटी पर हाथ हाथ उठाने के पहले तो भगवान का दिल भी कांप उठता । लेकिन ..... लेकिन मैंने उसे मार डाला । भवानी मैया को अपनी ही बेटी की बलि चढ़ा दी । मेरे सामने दूसरा कोई रास्ता नहीं बचा था । बाबू !  रूपा डाकू ने मेरी बेटी मांगी थी । उसने धमकी दी थी कि वह रूपकुवर को अपने साथ एक महीने के भीतर ही उठा ले जाएगा  और अगर उससे धोखा हुआ तो वह गांव में आग लगा देगा । तुम ही बताओ बाबू ! कोई बाप अपनी बेटी को किसी डाकू के हाथ कैसे सौंप सकता है ? उस हत्यारे के पास उसे भेज कर मैं अपने कुल की इज्जत और उसका जीवन मिट्टी में कैसे मिलने देता ? 

     रूप कुंवर को उस दिन नहला धुला कर आधी रात के बाद भवानी के मंदिर में मैं पूजा कराने ले गया था । मैंने पूजा के बाद प्रणाम करते समय अपनी बेटी का सिर भवानी मैया के चरणों पर चढ़ा दिया । उसके पवित्र खून से मैया के चरण धो डाले लेकिन मेरे मंदिर से बाहर आते ही मंदिर के पट तेज आवाज के साथ बंद हो गए और फिर न खुले । भवानी मैया भी मेरी विवशता को नहीं समझ पायीं तो कोई दूसरा कैसे समझेगा ? हाय ...मेरी बच्ची ....मेरी रूप कुवर....."

       राजा जू फूट-फूट कर रो पड़े । रजत स्तब्ध सा उसे देखता रह गया । बहुत देर बाद उसके कंपित अधरों से कुछ बोल फूट पड़े -

"राजा जू ! मंदिर के पट खुल गए हैं ।"


                       


Rate this content
Log in

Similar hindi story from Horror