Ravi Kumar

Drama Horror Tragedy

5.0  

Ravi Kumar

Drama Horror Tragedy

समाज का भूत

समाज का भूत

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"टक-टक" करती विक्रम की अगुंलियाँ उसके 28 इंच के लेपटाप पर फटाफट दौड़ती दिखी। स्क्रीन उसकी नजरो के सामने ही थी और स्पष्ट था कि वहां वो कोई आर्टिकल लिखने की तैयारी में था जिसका शीर्षक वो पहले ही टाइप कर चुका था। वो शीर्षक था - " पीपल का भूत"। ये शीर्षक पढ़कर आप ये मानने की भूल मत कर बैठना कि वो कोई डरावनी कहानी लिखने जा रहा था। यकीन मानिए इस कहानी में भूत तो जरुर था पर वो आपकी और हमारी सोच से एकदम परे था। एक ऐसा भूत जिसे आप रोज़ देखते व सुनते है पर नजरअदांज कर जाते है। विक्रम ने भी एक सप्ताह पहले एक ऐसे ही भूत से मुलाकात की थी जिसका वर्णन वो अपने इस आर्टिकल में करने जा रहा था। एक मनोचिकित्सक होने के नाते विक्रम इन अंधविश्वासी बातो पर यकीन तो नही करता था पर एक सप्ताह पहले हुई घ़टना से रूबरू होने के बाद उसे अपने विचारो में बदलाव लाना पड़ा।

विक्रम ने अपनी आंखो पर चढ़े चश्मे को ठीक किया और कुछ क्षण बाद उसकी अंगुलियाँ यकायक की-बोर्ड पर चल पड़ी। उस घटना की शुरुआत उस सुबह हुई जब विक्रम अपने बगीचे में रखी कुर्सी पर बैठा गर्मागर्म चाय की चुस्कियां लेते हुए अखबार की सुर्खियो पर नज़र डाल रहा था। उसे क्या पता था कि कुछ ही पलो में एक खबर स्वयं ही उसके पास उड़ते हुए पहुंच जाएगी। एक ही दिन बीता था उसे शहर से अपने गांव पहुंचे हुए और यहां की सुबह की ताज़ा ठंडी हवाएं उसे बेहद भा रही थी। चारो ओर बहती वो हवाएं उसके बगीचे को ही नही बल्कि उसके मन को भी महका रही थी। करीब 8 बजे का वक्त रहा होगा, विक्रम ने कल्पना करी कि वो इस वक्त शहर की डीजल व पेट्रोल से परिपूर्ण हवा में सांसे लेते हुए अपने आफिस पहुंचने की जद्दोजहद में लगा होता पर यहां ऐसा कुछ भी नही था। केवल एक सप्ताह के लिए ही वो यहां आया था पर उसका मन किया कि काश वो इस एक सप्ताह को एक माह में तब्दील कर सके पर अफसोस ये ख्याल उसे नामुमकिन सा लगा।

चाय की प्याली उठाए उसने अभी उसे होंठो से छुआ ही था कि पास वाली गली से एक अनजाना सा शोर गूंज उठा और विक्रम फौरन चाय को वापस टेबल पर रख, उठ खड़ा हुआ। घर से बाहर निकल कर विक्रम ने आस-पास के लोगो से जब इस शोर का कारण जानना चाहा तब वो जिस सच्चाई से वाकिफ हुआ, उसे जानकर तो उसकी भौंहे तन उठी। बात ही कुछ ऐसी थी कि जिस पर विश्वास करना उसे बेहद कठिन लगा। यकीन करना मुश्किल था पर गांव के हर श़ख्स के मुंह पे यही बात थी की जगदीश कुम्हार की बेटी रितु भूतिया गई थी। अरे, तभी तो वो पागलो की तरह चीख रही थी, जब मन में आया तो कभी हंस रही थी और कभी मदमस्त होकर नाच रही थी। गली के सभी सदस्य रितु को देखने जगदीश के घर दौंड़े चले जा रहे थे और विक्रम भी मामले की तह तक पहुंचने के लिए उस तरफ रुख करता दिखा। ये केवल जिज्ञासा ही नही बल्कि विक्रम के मन में उठे वो सवाल भी उसे घर से बाहर खींचे ले आएं जिनके जवाब शायद ही उसे किसी विज्ञान की किताब में मिलते।

लोगो का पीछा करते-करते विक्रम उस गली के मुहांने आ पहुंचा जहां से शोर उठा था और करीब आते ही उसने भीड़ का एक घना जमावड़ा वहां एकत्र पाया जिसका आकर्षण बिंदु रितु थी। भीड़ से धक्का-मुक्की कर विक्रम जब आगे पहुंचा तो उसे सामने एक 17 साल की लड़की दिखाई दी जो कभी पागलो की तरह अपने उथले सूखे बालो को नोच रही थी तो कभी भीड़ की तरफ देखकर उन्हे गालियां सुनाती और कभी मन में आता तो खुद ही मन ही मन गाने गुनगुना नाच उठती। विक्रम उसकी दशा देखकर समझ गया कि यही रितु है।

भीड़ के बीचो-बीच घिरी रितु को देखकर ऐसा लगा मानो वो कोई तमाशा खेल रही हो जिसे ये भीड़ दर्शक की भांति देख रही थी। लाल रंग का लहंगा पहना हुआ था उसने, जो अब मिट्टी मे बुरी तरह सन चुका था। चेहरे व बालो पर लाल गुलाल फेरकर वो भीड़ की आंखो में देखकर ज़ोर से चीखती, मानो उन्हे बता रही हो कि वो उनसे अब नही डरती। न जाने किस बात का गुस्सा था उसकी चिल्लाहट में कि सुनने वाला हर शख्स उससे भय खा गया और कोई भी उसके करीब जाने की हिम्मत नही जुटा पाया। ये उस लड़की का भय ही था कि जहां वो एक कदम भीड़ की तरफ बढ़ाती तो वही भीड़ दस कदम पीछे खींची चली जाती। ये देखकर कभी-कभी वो बहुत खुश होती और ठहाके लगा कर हंस पड़ती। "कायर-कायर" चिल्लाते हुए रितु ऐसे ही भीड़ को पीछे धकेलती रही पर जब वो विक्रम के सामने आई तो विक्रम ने भीड़ के बाकी लोगो की तरह अपने कदम पीछे नही खींचे बल्कि उसने अडिग नजरो से रितु के रौद्र रुप का सामना किया। विक्रम की पैनी निगाहो से स्पष्ट था कि वो रितु की मनोस्थिति का निरिक्षण कर रहा था।

उसकी आंखों पर चढ़े चश्मे के शीशो पर उभरती रितु की दोहरी परछाई न जाने क्यों विक्रम को रितु के दुसरे व्यक्तित्व से मिलाती दिखी जिसे भीड़ में मौजूद कोई भी श़ख्स देख नही पाया। इससे पहले की विक्रम उसे ओर समझ पाता, रितु उसकी नज़रो से दूर हो चली और भीड़ में खड़ी एक हमउम्र लड़की की तरफ मुड़ कर उसे पास बुलाने का प्रयास किया पर रितु को देख वो लड़की भीड़ में ओझल हो गई शायद इसलिए कि वो उससे खौफ़ खा चुकी थी। समाज से दरकिनार हो चुकी रितु अचानक दहाड़ मारकर रो पड़ी और जमीन पर बैठकर अपने हाथो से मिट्टी बटोरकर हवा में उड़ाने लगी। अजीब मंजर था ये जिसे समझ पाने में विक्रम को थोड़ा वक्त लगा पर वो इतना जरुर मान चुका था कि रितु किसी मनोवैज्ञानिक विकार यानी कि किसी साइकोलोजिकल डिस-आर्डर से पीड़ित थी। आस-पास खड़ी भीड़ तो दर्शक की भांति मूक बनी रही। थक-हारकर रितु के पिता जगदीश ने आकर रितु को काबू में करना चाहा पर न जाने कहां से उस लड़की में इतनी ताकत आ गई कि उसने झटककर जगदीश को दूर जा फेंका और सारी भीड़ ये देखकर अवाक् रह गई। रितु की मां भी माथा पकड़ कर एक कोने में रोती दिखी। रितु की स्थिति को काबू से बाहर जाता देख किसी भी व्यक्ति में इतनी हिम्मत नही हुई कि कोई उसे नियंत्रण में वापस ला सके।

बाहर घूमते बच्चे और बेटियो को उनकी मांए जबर्दस्ती अपने घरो में वापस खींचती दिखी कि कहीं उन्हें भी ये भूत न पकड़ ले। किसी ने कहा कि " चुड़ैल है "तो किसी ने कहा कि "पीपल का भूत है" और ज्यादातर मत पीपल के भूत को मिले क्योंकि वो पहले भी गांव की लड़कियो को पकड़ चुका था। सब ने मान लिया था कि रितु भूतिया गई है और किसी झाड़-फूंक वाले को बुलाकर ही हल निकाला जा सकता है। ये सब विक्रम को महज एक मज़ाक लगा और उसने कोशिश करी कि वो स्वंय ही रितु को समझा बुझाकर शांत कर सके पर उसके पास खड़े एक श़ख्स, प्रकाश ने उसका हाथ थामकर उसे रोक लिया और बोला ,"रहने दो विक्रम, प्रेत का वास है उस पर। कही कोई जानलेवा हमला कर दिया तो लेने के देने पड़ जाएंगे। अभी ओझा को बुलाया गया है, वो आएंगे तो सब शांत हो जाएगा। ये तो यहां रोज का ही ड्रामा है" विक्रम ने मन मसोसकर प्रकाश की बात मान ली और ओझा के आने तक रुकने का विचार बनाया।

ओझा की बात चली तो ऐसे में याद आए चालिस बरस के रामकिशोर ओझा जो गांव के मशहुर ओझाओ में से एक थे और गांव की ऐसे ही कई ऊपरी समस्याओ को सुलझाने का अनुभव रखते थे। पहले भी वो कई बार इस पीपल के भूत से निपट चुके थे और उसे दूर भगा चुके थे पर ये भूत इतना कमबख़्त था कि हर साल दो साल में वापस आ ही जाता था। अभी दो ही वर्ष हुए थे जब पास के ही गांव की 10 साल की मुनिया भी इसी प्रेत से ग्रस्त थी तब वो रामकिशोर ही थे जिन्होने एक निर्दोष मुर्गे की बली देकर और देसी शराब चढ़ाकर इस भूत को मनाया था। शायद ये मांस और शराब की तलब ही थी जो इस भूत को वापस इस गांव की ओर खींच ले आता है। खैर इस तलब से तो इंसान भी अछुते नही थे तो ये भूत कहां पीछे रहता। जगदीश जी के आग्रह पर रामकिशोर ने रितु को देखना स्वीकार किया और भगवा धारण किए वो फौरन उनके घर पधारे। संपूर्ण भीड़ ने उन्हे आदर भाव से देखा और उनके बढ़ने के लिए रास्ता बनाया। विक्रम भी भीड़ में शामिल होकर उनकी कार्यविधि को ध्यान से देखता रहा। जगदीश व बाकी के तीन अन्य सदस्यो ने रितु को जबरन धर दबोचा और उसे ओझा के सामने ला बिठाया जिसे देख वो आग बबूला हो उठी। रामकिशोर जहां आंखे बंद करके धीमे स्वर में मंत्रो का जाप करते हुए हाथ में चावल के दानो को मसलता दिखा वही रितु भी उसके ध्यान को भंग करने हेतु उसे गालियां देती दिखी। कभी-कभी वो ओझा पर हड़कते हुए झपटी भी पर लोगो की पकड़ उसके जिस्म पर ज्यादा मज़बूत निकली और वो कुछ न कर पाई। हर पल रितु ने आज़ाद होने के लिए खूब हाथ-पैर पटके पर वो नाकाम रही। कुछ न बनते देख रितु गुस्से में चीख पड़ी और वो ओझा पर थूकने लगी। इस पर रामकिशोर का ध्यान टुट गया और गुस्से में आकर उसने रितु के गाल पर जोरदार थप्पड़ जड़ दिए। थप्पड़ खाकर रितु ज़ोर-ज़ोर से हंसने लगी और आस-पास की एकत्र भीड़ उसकी इस हरकत पर हैरान हो उठी। ओझा ने रितु के बाल अपने हाथो में भींच लिए और उन्हे खींचते हुए पूछ पड़ा, "बोल कौन है तु ?"। ओझा के कसते हुए हाथो को अपने बालो पर महसूस कर रितु का चेहरा शिकन से भर उठा और वो दहाड़ते हुए बोली, "ज़ोर से मत खींच ! तेरी जायदाद नही हूं मैं !"। जवाब पाकर वो ओझा क्रोध में आ गया और उसके बालो पर अपनी पकड़ ओर सख़्त कर दी। रितु का चेहरा दर्द से भींच उठा पर वो कराही नही। किसे पुकारती वो मदद के लिए, आखिर इस ओझा को उसके पिता ने ही तो बुलाया था। ओझा ने फिर अपना सवाल दोहराया," बता क्या नाम है तेरा ?"। इस सवाल पर रितु ने जवाब में कहा, "तु बड़ा ओझा बनता फिरता है। तु ही बतला दे कि मैं कौन हूं !"। ये कैसे जवाब दे रही थी वो लड़की, ओझा ही नही बल्कि उसे सुनने वाला हर कोई शख़्स इस पल हैरान रह गया पर भीड़ में खड़ा विक्रम उस 17 साल की लड़की के जवाब पर मुस्कुरा उठा। रितु का सवाल उस ओझा के लिए एक खुली चुनौती जैसा था जिसे सुनकर ओझा सकते में आ गया और कुछ न सूझते देख उसने फिर एक थप्पड़ रितु को जड़ दिया और रितु ने चीखकर उस थप्पड़ का विरोध किया। बार-बार थप्पड़ो की मार से रितु के गालो की चमड़ी लाल पड़ती दिखी। अपनी इकलौती बेटी की ऐसी प्रताड़ना को देखकर रितु की मां का दिल भर आया पर वो चाहकर भी उस पुछताछ को रोक नही पाई। एक हंसती खेलती लड़की थी रितु, जिससे सारा घर चहका करता था। घर के कामो से जी चुराती जरुर थी पर मां की ज़रा सी ड़ांट पर हर काम को शिद्दत से पूरा भी करती थी। उसे नाचने व गीत गुनगुनाने का बेहद शौक था। हर पल घर के किसी कोने से उसकी कोयल सी सुरीली आवाज़ गूंजा करती थी जो किसी के टोकने पर ही शांत होती थी, पर आज वो रितु कही गुम थी। उसकी मां ने सामने बैठी उस लड़की में अपनी खोई हुई रितु को बहुत तलाशा पर वो उसे ढूंढ नही पाई। कोयल के जैसी चहकने वाली लड़की आज उसके आंगन में दहाड़ रही थी, रो रही थी। उस लड़की का चेहरा रितु से मेल जरुर खाता था पर वो बेटी न जाने कहां खो गई थी। शायद इसी सवाल का जवाब आज सिर्फ वो मां ही नही बल्कि भीड़ में मौजूद हर वो श़ख्स ढूंढ रहा था जो उस रितु को जानता था। ओझा ने फिर उसके बाल झटके और तेज़ स्वर में बोला, "बता क्या चाहिए तुझे ? क्या लेगी तु इस लड़की को छोड़ने का ?"। न जाने क्यों इस सवाल का जवाब देना रितु को बेहद आसान लगा और सख़्त स्वर में उसने जवाब दिया, "सपने चाहिए मुझे ! बोल दे सकता है तु ?"। दोबारा रितु का उलझा हुआ जवाब पाकर ओझा अचंभे में पड़ गया पर रितु शांत न बैठी और दहाड़ते हुए अपने शब्द दोहराने लगी," बोल दे सकता है तु ?"। इस सवाल पर चारो तरफ सन्नाटा छा गया। जवाब न पाकर रितु खीझ उठी और अचानक ज़ोर-ज़ोर से चीखने लगी। ओझा ने फिर आंखे बंद करके मंत्रो का जाप किया और कच्चे चावल के छींटे रितु पर उड़ाने लगा। ये कैसा खेल रचा जा रहा था, विक्रम ने तो न कभी ऐसा कुछ देखा था और न ही ऐसा कुछ सुना था पर वो इतना जरुर समझ चुका था कि रितु कोई बीमार या भूतिया लड़की नही थी बल्कि वो तो अपनी आकाक्षांओ और सपनो की घुटन में पल-पल घुट रही थी जिसे समझने वाला वहां कोई नही था। धीरे-धीरे रितु अपनी हिम्मत हारने लगी और अचानक अपनी मानसिक प्रताड़ना के अंतिम पड़ाव पर पहुंचते ही "धम्म" से ज़मीन पर बेहोश होकर गिर पड़ी। संपूर्ण भीड़ में हलचल मच गई और रितु के आस-पास एकत्र लोगो ने उसे होश में लाने का प्रयास किया पर वो असफल रहे। अंत में रितु को अस्पताल ले जाने का निर्णय लिया गया जिस पर विक्रम भी सहमत दिखा। कुछ ही क्षणो में रितु को बेहोशी की हालत में भीड़ के बीच से निकालना पड़ा और एक पल ऐसा भी आया जब उसे विक्रम के करीब से गुजारा गया। विक्रम ने उसे सहानुभूति भरी निगाहो से देखा और प्रार्थना करी कि वो जल्द से जल्द ठीक हो जाएं।

न जाने ऐसे कितने अनकहे सवाल रह गए थे विक्रम के जेहन में जिन्हे वो रितु के सामने रखना तो चाहता था पर अफसोस कि रितु इस वक्त कुछ भी कहने की स्थिति में नही थी। रितु को फौरन नजदीकी अस्तपताल ले जाया गया और सारी भीड़ उसके घर के सामने से बिखरकर अपने-अपने गंतव्य की ओर रुख कर गई। कुछ औरते रितु की मां को दिलासा देने के लिए उसके घर के आस-पास खड़ी दिखाई दी। विक्रम ने भी भारी मन के साथ सबको वापस लौटता देख, अपने घर जाने का मन बनाया और उसके साथ खड़े साथी, प्रकाश ने भी इस पर सहमति जताई पर अचानक विक्रम का ध्यान एक लड़की पर गया जो उदास नज़रो से भीड़ को बिखरते हुए देख रही थी। ये वही लड़की थी जिसे कुछ घंटे पहले रितु भीड़ में से पुकार रही थी पर वो डरकर भीड़ में ही कही छिप गई थी। उसे देख विक्रम जिज्ञासापूर्वक उसकी ओर खींचा चला गया। विक्रम के करीब आते ही पहले तो वो लड़की सहम उठी पर विक्रम ने अपने चेहरे पर एक विनम्र मुस्कान बिखेरी और उससे पुछ पड़ा, "क्या तुम रितु को जानती हो ?"।

वो लड़की विक्रम के सवाल पर असहज हो उठी और जवाब दिए बगैर, उसने अपने कदम पीछे खींच लिए और मुड़ गई। विक्रम ने उसे रोकना चाहा पर वो उसे क्या कहकर पुकारे, ये उसे सूझ नही पाया। विक्रम उसे अपनी नज़रो दूर होता हुआ देखता रहा। इतने में प्रकाश भी विक्रम के साथ आ खड़ा हुआ और उस लड़की को दूर जाता देख बोल उठा, "वो सुषमा है, कायम सिंह की बिटिया"। चलो इतने सारे सवालो के बीच घिरे विक्रम को उसके एक सवाल का जवाब तो मिल चुका था और बाकि के जवाबो के लिए उसे अपनी एक नई मंजिल भी सोच ली थी।

शाम का सूरज आसमान में छिपने की तैयारी में था और उसकी लालिमा पूरे आकाश में इस कदर छाई हुई थी कि मानो किसी ने रंग की शीशी उड़ेल दी हो और आनन-फानन में ही ब्रश चलाकर उन रंगो को आकाश में फैला दिया हो। क्या इस आसमां के परे बसने वाला भी कोई कलाकार था ? नज़रे ऊपर उठाए हुए विक्रम के मन ने ये सवाल खुद से ही किया और मुस्कुरा उठा। शाम के वक्त खेतो मे टहलना विक्रम के टाइम-टेबल में शामिल नही था पर आज सुबह जो घटा उसके बाद तो उसने उस भूतिया पेड़ को देखने की ठान ही ली थी जो कही न कही सुबह की घटना में शामिल था।

रितु को अस्पताल में भर्ती करा दिया गया था पर उसकी स्थिति के बारे में कोई ठोस खबर खुलकर बाहर नही आई थी जिसकी वजह से विक्रम मन ही मन थोड़ा चिंतित भी था। न जाने क्यों वो उस अंजान लड़की के लिए इतना कुछ महसूस करने लगा था, ये एहसास भी अपने आप में एक पहेली सा था जिसमे ज्यादा उलझना उसने बेहतर न समझा और उस पीपल के भूत से मुलाकात करना उसे ज्यादा उचित लगा। क्या पता वो भूत ही उसे वो सारे जवाब दे दे जिन्हे वो इंसानो से न पा सका था। कुछ ही पलो में विक्रम चलते-चलते खेतो के किनारे आ खड़ा हुआ और नज़रे उठाकर उसने उस पेड़ के दीदार किए जो बस कुछ इंचो की दूरी पर खड़ा था। शानदार पेड़ था वो पीपल का। एकदम घना और हरा-भरा।

उसका कद लगभग 35 फीट ऊंचा था। उसके तने देखने भर से ही बेहद सख़्त व मज़बूत लगे और उस पेड़ की मोटाई चार इंसानो के बराबर लगी। कोई भी उसे देखकर कह सकता था कि ये वृक्ष सालो का नही बल्कि सदियो बरस का है। न जाने कितनी धारणाए उस पीपल के पेड़ से जुड़ी हुई थी। कोई भूल से अगर उस पेड़ का कुछ खा ले तो वो बीमार पड़ सकता था। कोई भूल से उस पेड़ के पास से सुगंधित परफ्यूम लगाकर गुजर जाए तो उस पर भूत सवार हो सकता था और तो और उस पेड़ के आसपास मल-मूत्र त्यागने तक की मनाही थी।

हालांकि इन धारणाओ में कितनी सच्चाई थी इसका प्रमाण किसी के पास नही था पर इन धारणाओ में लोगो का विश्वास अटूट था। विक्रम ने करीब आकर उस वृक्ष का नजदीक से निरिक्षण किया और उसकी सौंधी सी मिट्टी की खूश्बू उसके मन को तरो-ताजा कर गई। चिटियों का झुंड उस पेड़ की तनो पर रेंगता दिखा। आस-पास उड़ते पक्षियो का झुंड चहचहाते हुए वापस उस पेड़ पर लौटता दिखा। न जाने कितने जीवो का घर था वो पीपल का पेड़, वहां भला किसी भूत का वास कैसे हो सकता था। विक्रम ने अपनी अगुंलियां उस वृक्ष की सतह पर इसी उम्मीद से दौड़ा दी कि शायद वो उसे छूकर कुछ ऐसा महसूस कर सके जिससे कि किसी अनजान उपस्थिति का एहसास हो पर अफसोस वो उस वृक्ष को छूकर ऐसा कुछ भी महसूस नही कर पाया। कुल मिलाकर विक्रम को वो वृक्ष, एक साधारण वृक्ष जैसा ही लगा जिसकी घनी छाया के नीचे ठंडी हवाओ का वास था, जिसकी मज़बूत शिलाओ की भांति तनो पर उन खूबसूरत पक्षियों और उनके घौंसलो का वास था न की किसी भूत का। विक्रम उस वृक्ष की तफ्शीश में इतना मशगूल था कि अचानक अपने पीछे हुई एक अनजानी आहट पर वो चौंक उठा और "धक्क" से उसका दिल उसके सीने में उठ कर रह गया। कही वो आहट भूत की तो नही थी जो अपनी उपस्थिति विक्रम को जाहिर कर रहा था। विक्रम झट से पीछे मुड़ा और सामने थोड़ी सी दूरी पर खड़ी सुषमा को देखकर हैरान हो उठा।

सूखे पत्तों को अपने कदमों तले रौंदती हुई सुषमा, विक्रम को देखकर अपनी जगह थम गई और दोनो ने कुछ क्षण भर सिर्फ एक-दूसरे को ताका। विक्रम, सुषमा को देख वृक्ष से दूर जा हटा और बोला, "तुम्हे यहां नही होना चाहिए, सुषमा !"। अपना नाम सुनकर सुषमा ने हैरानी के भाव प्रकट किए जिस पर विक्रम ने स्पष्टीकरण दिया, "घबराओ मत, तुम्हारा नाम प्रकाश ने बताया था। जानता हूं मैं उसे और तुम्हारे पिता कायम सिंह जी को भी। तुम यहां क्या कर रही हो ?"। जवाब देने के बजाय सुषमा ने अपनी नज़रे ऊपर उठाकर उस पीपल के पेड़ की तरफ टिका दी जो घिरती शाम की स्याह रोशनी में ओर भी ज्यादा भयावह होता जा रहा था। विक्रम ने भी उसकी खामोश नज़रो का पीछा किया और अनुमान लगाते हुए बोला," क्या तुम भी उस भूत को ढूंढ रही हो जिसे मैं ढूंढ रहा हूं ?"। विक्रम के सवाल पर सुषमा की नज़रे भटकती हुई सी प्रतीत हुई और उसने असहज भरे स्वर में कहा, "खेल-खेल में रितु के कहने पर हम दोनो कई बार इस पेड़ के नीचे से होकर गुजरे है। वो कहती थी कि देखते है किसे ये भूत पहले पकड़ता है। लगता है… शायद आज वो जीत गई "। अपनी अगंलियो को टटोलते हुए सुषमा ने अपने कदम आगे बढ़ाए और बोली, "रितु ऐसी ही थी। हर बात पे कोई न कोई नई चुनौती ढूंढती रहती थी।

मैंने कई बार उसे टोका पर वो मेरी सुनती ही कहा थी "। चलते-चलते वो उस पीपल के पेड़ के नजदीक आ खड़ी हुई और उसे यूं ताकने कि मानो कुछ पुछ रही हो उससे। सुषमा आसानी से उन दिनो की कल्पना कर सकती थी जिनमे वो और रितु शामिल थे और कैसे वो दोनो इस पेड़ के नीचे से होते हुए दौड़ लगाते थे और उस दौड़ में भी ज्यादातर रितु ही विजयी रहती थी। सुषमा का ध्यान तोड़ते हुए विक्रम ने कहा, "लगता है रितु काफी हठी स्वभाव की थी। उसके इस स्वभाव की एक छोटी झलक तो आज सुबह ही देख ली थी मैंने, जब उसने उस ओझा को खुली चुनौती दे डाली थी"। इस बात पर सुषमा भी सहमत दिखी। शाम घिरने लगी थी और अंधेरा आकाश के मुंहाने तक आ पहुंचा था। सुषमा ने पास बने चबूतरे की तरफ अपने कदम धीमी गति से बढ़ाए और वहां बैठकर सामने डूबते सूरज को बादलो के बीच लुप्त होते हुए देखने लगी। उसे अपने मन की उदासी चारो ओर दिखाई दी और यूं लगा मानो सबकुछ बेरंग और नीरस हो चला हो। आज उसका घर जाने का मन बिल्कुल नही किया। सूरज को आसमान में खोता देख, सुषमा ने कहा, "न जाने कितने लोगो ने डर के कारण इस चबूतरे पर बैठना छोड़ दिया और शाम के इस खूबसूरत नजारे से महरुम रह गए। अब पता चला कि रितु क्यों अक्सर शाम को यहां आया करती थी"। सुषमा की बात सुनकर विक्रम भी उस चबूतरे की तरफ खींचा चला आया और उसके बगल में बैठकर सामने आकाश की ओर ताकने लगा।

खुले खेतो के ऊपर डूबता वो सूरज वाकई किसी ओर जहां का लगा। शहर में तो ये बादलो में छिपने से पहले ही वहां की ऊंची-ऊंची बिल्डिंगो में उलझकर ही कही खो जाता है पर यहां विक्रम उसे पल-पल आकाश में छोटा होता हुआ देख रहा था। ये एक विलक्षण नजारा था जिसका वर्णन शब्दो में करना नामुमकिन सा था, इसे तो सिर्फ महसूस ही किया जा सकता था। "क्या रितु अक्सर यहां अकेले ही आया करती थी ?" विक्रम ने पूछा। सुषमा ने अनिश्चतता व्यक्त करते हुए अपनी गर्दन हिलाई और कहा, "क्या पता। मैंने तो कई बार उसे ढूंढते हुए यही पाया है। यहां वो डांस की प्रैक्टिस भी किया करती थी"। विक्रम ने हैरानी भरे स्वर में पूछा," डांस ?"। सुषमा ने बताया," अगले महीने हमारे स्कूल में एक डांस प्रतियोगिता है। रितु का बड़ा मन था उस प्रतियोगिता में हिस्सा लेने का। पर…लगता है कि अब…"। सुषमा ने अपने वाक्य को अधूरा ही छोड़ दिया और अपने सिर को झुका लिया पर विक्रम उसके अनकहे शब्दो का आशय समझ गया और बोला, "तुम बेकार में ही परेशान हो रही हो। मुझे यकीन है कि रितु डांस प्रतियोगिता से पहले पूरी तरह ठीक हो जाएगी"। इस पर सुषमा ने फिर धीमे स्वर में जवाब दिया, " हो सकता है …पर मुझे नही लगता की वो ठीक होना चाहती है"। "क्या मतलब ?"

विक्रम ने चौंकते हुए पूछा। अचानक "सर्र" से एक ठंडी हवा का झोंका पश्चिम से दौड़ा चला आया। आस-पास की घनी झाड़ियां और पीपल का पेड़ उस झोंके में आवाज़ करते हुए सिहर उठे। सुषमा के खुले बाल भी हवा के रुख के साथ उड़ान भरने लगे और सुषमा ने उनकी इस हरकत को नजरअदांज करते हुए जवाब दिया, " रितु की शादी तय कर दी है उसके घरवालो ने। वो भी उसकी मर्जी के खिलाफ। जब से ये शादी की बात चली है तभी से ही वो उखड़ी-उखड़ी सी रहने लगी"। सुषमा ने विक्रम की ओर देखा और सख़्त स्वर में कहा," वो सिर्फ 17 साल की है। खुद को लेकर कई सपने जोड़ रखे है उसने पर किसी 28 साल के अनजान आदमी के साथ खुद को ब्याहते हुए देखना उसके सपनो में शामिल नही है। वो पढ़ना चाहती है , गांव की इन गलियो से निकलकर बाहर की दुनिया देखना चाहती है पर किसी रिश्ते में बंधकर नही बल्कि आज़ाद होकर, आत्म-निर्भर बनकर "। ये कहते हुए सुषमा की आंखो में भी वैसा ही क्रोध झलका जैसा विक्रम ने आज सुबह रितु की आंखो में देखा था। सुषमा यही नही रुकी, अपने शब्द बटोरते हुए उसने कहा," क्या आपको ये बात अजीब नही लगती कि ये भूत-प्रेत हमेशा सिर्फ औरतो और लड़कियो को ही क्यो परेशान करते है।

आखिर आदमी भी तो रहते है इस गांव में तो फिर हर बार औरते और लड़कियां ही क्यों इन भूत-प्रेतो का शिकार बनती है"। विक्रम इस प्रश्न पर मूक रह गया और इससे पहले कि वो कुछ कह पाता, जवाब में सुषमा स्वयं बोल उठी," असल में जिस भूत ने रितु को परेशान किया है वो इस पेड़ की नही बल्कि उस समाज की देन है जो रिवाजो और नियमो के नाम पर सिर्फ हमें जंजीरो में जकड़ना चाहता है। ये भूत उस समाज का है जो हमे आज भी सपने देखना तो दूर, इजाजत के बगैर घर से बाहर निकलने तक नही देता। ये भूत उस समाज का बनाया हुआ है जो आज भी हमें बोझ समझता है और हमें या तो पैदा होने से पहले मार देता है या फिर पैदा करने के बाद रीति-रिवाजो के नाम पर पल-पल मारता है। सदियो से समाज का ये भूत हम लड़कियो को ऐसे ही परेशान करता आया है और अगर इसे रोका न गया तो आगे भी करता रहेगा "। सुषमा ने अपनी बात जारी रखी," शायद मेरे लिए ये बाते आपसे कहना इसलिए आसान है क्योकि आप एक अजनबी है और सच तो यही ये कि हम गांव की लड़कियो को तो वक्त से पहले बड़ा होना ही पड़ता है फिर चाहे उसकी कीमत हमें अपने सपने घोंट कर चुकानी पड़े या फिर अपनी रुह घोंट कर। आज रितु ने इसी घुटन का विरोध किया है और इल्जाम इस पीपल के पेड़ पर लगा जबकि असली मुजरिम तो उसके घरवाले है और ये समाज है जो उसका साथ देने की बजाय बस उसका तमाशा देखना चाहता है "।

विक्रम, सुषमा की बातो में इस कदर खो गया कि वो कुछ कहने के लिए शब्द टटोल ही नही पाया। सुषमा के उठाए गए सवाल जायज भी थे और काफी हद तक ठोस बुनियाद भी रखते थे। उसकी बात से स्पष्ट था कि रितु आज किसी भूत के वश में नही थी बल्कि वो तो उस क्रोध का प्रदर्शन कर रही थी जो तब उभरा जब रितु अपनी रुह की घुटन को बर्दाश्त नही कर पाई। उसका भीड़ के आगे चीखना-चिल्लाना, वो उसका भीड़ की आंखो में आंखे डालकर देखना और उसका मदमस्त होकर नाचना उसके पागलपन का नही बल्कि ये उसकी उस चुनौती का हिस्सा थे जिसे वो हर उस शख्स को दे रही थी जो उसे रोकना चाहता था। ये विरोध उस समाज और उन लोगो के खिलाफ था जो सिर्फ उसे एक घर से दुसरे घर की दहलीज तक बांधना चाहते थे। वो रुद्र प्रदर्शन रितु की उस अदम्य रुह का प्रदर्शन था जो किसी के आगे झुकना नही चाहती थी फिर चाहे सामने समाज खड़ा हो या फिर उसके अपने। विक्रम, रितु की उन आंखो की कल्पना कर सकता था जिनमे वो आज सुबह कुछ पलो के लिए झांक पाया था और अब वो उन आंखो के क्रोध का असली अर्थ समझ पाया था। न जाने ऐसे ही कितनी औरतो व लड़कियो ने अपनी घुटन का प्रदर्शन पागलो की तरह चीखकर-चिल्लाकर सिर्फ इसलिए किया होगा ताकि ये बहरा समाज उन्हे सुन सके पर उन सब पर "चुडैल" या "भूत" का साया बताकर इस समाज ने चुप्पी साध ली होगी। विक्रम के जेहन को इस सच ने झकझोर दिया।

"अगर हम किसी की मदद कर सकते है तो उनकी मदद करना हमारा फर्ज़ बनता है और समाज की इन जंजीरो को शिक्षा और सपनो के बल पर तोड़ा जा सकता है बस हमें जरुरत है उस बराबर आजादी की जिसे हमारे हिस्से से ये कहकर छीन ली गई कि हम लड़कियां है" सुषमा के इस अंतिम वाक्य पर हवा का रुख बदल गया और उसके झोंके ओर भी तेज़ हो गए। पीपल का वो पेड़ भी उन तेज़ झोंको में इस कदर सिहर उठा मानो वो उनमें झूम रहा हो। विक्रम, सुषमा की बातो से बेहद प्रभावित हो उठा। एक सत्रह साल की लड़की के पास इस गंभीर विषय की इतनी गहरी जानकारी होना भी अपने आप में एक उपलब्धि थी। शायद वो सही कह रही थी कि लड़कियों को वक्त से पहले बड़ा होना ही पड़ता है ताकि कोई उनका शोषण न कर पाए। विक्रम इस विषय पर सुषमा से ओर भी ज्यादा बात करना चाहता था पर रात घिर आई थी और गांव के मौजूदा हालात को देखते हुए सुषमा को घर पहुंचाना उसने ज्यादा जरुरी समझा। विक्रम ने सुषमा को आगाह करने के लिए मुंह खोला ही था कि तभी एक अनजाने स्वर ने उसका ध्यान अपनी ओर खींच लिया,"अरे विक्रम "।

अपना नाम सुनकर विक्रम ने फौरन सुषमा के चेहरे से अपनी नज़रे हटाई और सामने की ओर घुमा दी जहां से वो स्वर आया था। विक्रम को सामने खेत के किनारे पर बनी पगडंडी पर प्रकाश खड़ा दिखाई दिया जो अब अपनी साइकिल से उतर चुका था और एकटक उसे ही ताके जा रहा था। विक्रम का ध्यान अपनी ओर पाकर प्रकाश ऊंचे स्वर में बोल पड़ा, "यहां अकेले बैठे क्या कर रहे हो, तुम ? घर नही जाना क्या ?"। विक्रम उसके सवाल पर मुस्कुरा पड़ा और बोला, "अकेला कहां हूं मैं ! मैं और सुषमा तो बस…!"। अचानक विक्रम अपने शब्द बीच में ही भूल गया और उसकी आंखे अंचभे में चौड़ी हो गई। ये क्या ? विक्रम ने स्वंय को उस चबूतरे पर अकेला पाया। सुषमा नदारद थी। विक्रम को इस पल यूं लगा कि मानो उसने किसी बिजली के तार पर हाथ रख दिया हो। उसे अपनी आंखो पर यकीन ही नही हुआ ! ये कैसे मुमकिन था ! अभी तो कुछ पल पहले तो वो यही थी, उसके बगल में !

लेकिन अब वहां कोई नही था। क्या जमीन निगल गई उसे या आसमान खा गया ? विक्रम फौरन चबूतरे से उठ खड़ा हुआ और हड़बड़ाहट में अपने आस-पास घूमते हुए सुषमा के सुराग ढूंढने लगा। पर अफसोस वहां ऐसा कुछ भी नही था जिससे की सुषमा की मौजूदगी के सूबूत मिल सके। तेज़ हवाओ के झोंको ने विक्रम को झंझोड़ा और उसने मुड़कर पीपल के पेड़ की तरफ देखा जो उन मदमस्त झोंको में झूम रहा था और विक्रम को वो पेड़ उस पर हंसता हुआ सा प्रतीत हुआ। इसी बीच प्रकाश भी विक्रम की तरफ तेज़ कदमो से बढ़ा चला आया और उसके करीब पहुंचा। विक्रम ने मुड़कर उसका सामना किया। विक्रम के चेहरे पर उड़ती हवाईयां देखकर प्रकाश चिंतित स्वर में पूछ पड़ा, "क्या हुआ, विक्रम ? इतनी बैचेनी से क्या ढूंढ रहे हो ?"। विक्रम समझ नही पाया कि वो कैसे अपनी स्थिति को बयां करे। क्या वो यकीन कर पाएगा ? विक्रम को डर लगा कि कही वो भी रितु की भुलभुलैया में उलझकर पागलपन की गहराई में तो नही उतर गया। विक्रम ने फिर मुड़कर उस पीपल के पेड़ की तरफ देखा। ये कैसा खेल रच डाला था इस मूक पेड़ ने जिसमे विक्रम भी ठग लिया गया। क्या कुछ देर पहले यहां बैठी वो लड़की उसकी नज़रो का छलावा थी या फिर उसके अवचेतन मन की कोई शरारत जिसे वो हकीकत मान बैठा। विक्रम के अंर्तमन की हलचल समुद्र की लहरो की तरह उफान भरने लगी और उसे शांत करने का उसे सिर्फ एक ही रास्ता सूझा। विक्रम ने फौरन प्रकाश के कंधो पर अपना हाथ रखा और हड़बड़ाहट भरे शब्दो में बोला , "मुझे अभी इसी वक्त रितु के घर ले चलो"।

विक्रम फौरन रितु के घर जा पहुंचा जहां उसकी भेंट रितु की मां से हुई। रितु अभी भी अस्पताल में ही भर्ती थी और घर के सभी मुख्य सदस्य भी वही थे जिसकी वजह से रितु की मां अकेले ही घर की देखभाल कर रही थी। विक्रम ने स्वयं का परिचय एक मनोचिकित्सक के ओहदे से कराया और बिना कोई वक्त जाया किए वो रितु की शादी के बारे में पूछ पड़ा। जिस पर रितु की मां थोड़ा हिचकिचाई पर विक्रम ने उन्हे आश्वासन दिया कि वो रितु की मदद कर सकता है। इस पर रितु की मां ने असहज होकर बताया कि घर की आर्थिक स्थिति ठीक न होने के कारण रितु के पिता उसे जल्द से जल्द ब्याहना चाहते थे ताकि वो स्वयं को चिंता मुक्त कर सके। रिश्ता अच्छा भी था और दहेज में उनकी कोई मांग भी नही थी हालांकि लड़के की उम्र कुछ ज्यादा थी पर रितु के पिता ने आपसी सहमति के बाद हामी भर दी। रितु ने इस शादी का पुरज़ोर विरोध किया पर पिता की जिद के आगे उसकी एक न चली। खुद रितु की मां भी इस रिश्ते को लेकर खुश नही थी पर पति ने उसे ये कहकर चुप करा दिया कि उसे दुनियादारी की क्या समझ।

दो महीने बाद रितु 18 साल की होने वाली थी जिसके बाद ही दिसंबर के अंत तक उसकी शादी की तारिख तय करने की बात हो चुकी थी। बस उसी दिन के बाद से ही रितु घर के सभी लोगो से उखड़ी-उखड़ी सी रहने लगी थी। ये सब सुनकर विक्रम का माथा फिर ठनका। अगर पीपल के पेड़ पर मिली वो लड़की सिर्फ उसकी नज़रो का या उसके अवचेतन मन का कोई छलावा थी तो वो बाते कैसे सच हो सकती थी जो उसने रितु के बारे में बताई थी। उसका कहा गया एक-एक शब्द यहां सच साबित हो चुका था। अब तो खुद विक्रम भी उस घुटन को महसूस कर सकता था जिसे रितु ने इस घर की चारदीवारी में उस दिन के बाद से पल-पल महसूस की होगी। कहा जाती वो ? किससे कहती वो अपने मन की बात ? आखिर कौन सुनता उसे ? पर कई सवाल यही नही रुके। आखिर पीपल के पेड़ के पास मिली वो लड़की कौन थी और विक्रम क्यो इन सबके बीच घिरा हुआ था। विक्रम को इतना यकीन तो जरुर था कि वो लड़की , वो सुषमा नही थी जिससे वो सुबह मिला था। सुबह जो लड़की सिर्फ उसके नजदीक आने भर से ही सहम उठी थी वो भला शाम को उसका नाम जाने बगैर कैसे उससे बात कर सकती थी। विक्रम रितु के घर से बाहर निकल तो आया पर उसका उलझा हुआ मन अभी भी उन बातो को दोहराता रहा जो उसने उस शख्स से सुनी थी जिसका कोई अस्तित्व ही नही था। बैचेन और परेशान विक्रम ने अपने घर जाने का मन बनाया और इन सबको एक बुरा सपना मानकर भुला देने के बारे में सोचा पर फिर मन में एक बात यकायक गूंज उठी जिसने उसके बढ़ते कदमो को थाम लिया -"अगर हम किसी की मदद कर सकते है तो उनकी मदद करना हमारा फर्ज़ बनता है"। न जाने क्यों ये बात रह-रहकर उसके मन में गूंजने लगी और वो चाहकर भी इन शब्दो के शोर को दबा नही पाया। कभी-कभी किसी पहेली को सुलझाने के लिए उसमे खुद को उलझाना पड़ता है। विक्रम को भी लगा कि इस गुत्थी को सुलझाने के लिए उसे इसमे ओर उलझना पड़ेगा और उसने अपने कदमों का रुख बदल दिया।

अस्पताल का गलियारा रितु के कई परिजनो से भरा हुआ था जिसमे उसका पिता जगदीश भी शामिल दिखा। पूरा दिन वहां के चिकित्सको ने रितु पर तरह-तरह के कई मेडिकल टेस्ट कर डाले पर वो उसे होश में लाने में अब तक नाकाम रहे जिसके कारण सबके चेहरे पर चिंता की लकीरे खींची पड़ी थी। इस गमगीन माहौल में जब सब अपनी हिम्मत हार रहे थे तब एक अजनबी के कदमो की आहट ने सबका ध्यान अपनी ओर खींच लिया। गलियारे में खड़े कई लोगो की निगाहे सामने की तरफ एक साथ उठ गई जहां उन्होने विक्रम को उनकी ओर बढ़ता हुआ पाया।

पसीने से तर-बतर भीगी हुई विक्रम की शर्ट इस बात का सूबूत थी कि वो यहां तक पैदल चलकर आया था। विक्रम ने फौरन वहां के चिकित्सको से एक पेशेवर मनोचिकित्सक के तौर पर मुलाकात की और उन्हे उन पहलुओ से अवगत कराया जिन्हे रितु के घरवाले छिपा ले गए थे। उसने उन्हे बताया की रितु जबरन शादी कराए जाने की बात पर डिप्रेशन की शिकार हो गई थी और लंबे समय तक भीषण तनाव में थी। कुछ न कह व कर पाने की जद्दोजहद में वो अवसाद के जाल में इस कदर जकड़ गई की वो नर्वस ब्रेकडाउन का शिकार हो गई और अपना मानसिक संतुलन खो बैठी। उसने उन्हे सलाह दी कि रितु को उन मेडिकल टेस्टो व उन दवाईयो से दूर रखा जाए जो उसे किसी भी प्रकार से शारीरिक व मानसिक तनाव दे सकती है। रितु को केवल एक ही चीज़ की जरुरत है और वो है आराम। विक्रम की बातो पर फौरन अमल किया गया और उसके अनुसार रितु का इलाज का आरंभ हुआ। अस्पताल से बाहर निकलने से पहले विक्रम, रितु के पिता से भी मिला और उसे सबके सामने रितु की इस मानसिक प्रताड़ना के लिए जिम्मेदार ठहराया।

आस-पास के कई लोग उसके इस आरोप पर तिलमिला उठे और विक्रम से जूझने पर उतारु हो गए पर विक्रम पीछे नही हटा और वहां खड़े रितु के परिजनो से उसने कहा कि रितु अभी नाबालिग है और शादी जैसे गंभीर रिश्ते में बंधने के लिए वो अभी तैयार नही है। उसने उन लोगो से विनती करी कि वो रितु को पढ़ने दे और उसे अपने सपनो को हासिल करने का कम से कम एक अवसर तो जरुर दे और साथ ही साथ ये सख्त हिदायत भी दी की अगर उसकी बातो को नजरअंदाज किया गया और रितु पर कोई दवाब बनाया गया तो वो पुलिस की भी मदद ले सकता है जिसमे अस्पताल का प्रशासन भी उसकी सहायता करेगा। जाते-जाते विक्रम ने जगदीश से एक ही बात कही की , "दुनिया का हर बच्चा खुद को सबसे ज्यादा महफूज़ अपने माता-पिता के साथ महसूस करता है पर तब वो कहा जाए जब उसके माता-पिता ही उसके सपनो का, उसकी उस खुशियो का दम घोंटने लगे"। जवाब में जगदीश की निगाहे नीचे झुक गई और विक्रम सिर उठाए वहां से रुखसत हुआ पर इस वादे के साथ कि वो हर पल रितु की स्थिति का जायजा लेता रहेगा।

दो दिन बाद विक्रम का सप्ताह पूरा होने को आया और उसका शहर उसे वापस बुलाने लगा। शहर लौटने की सारी तैयारी करने के बाद न जाने क्यों उसके मन ने एक बार फिर उस पेड़ से मिलने की इच्छा जताई जिसे वो शायद ही ताउम्र भुला पाएगा और शाम को वो फिर उस पीपल के पेड़ के पास आ खड़ा हुआ जिस पर कोई यकीन करे या न करे पर विक्रम जानता था कि उस पेड़ ने किसी के जीवन को बचाया है। आज भी वो वृक्ष वैसा ही था जैसा दो दिन पहले था, कोई बदलाव नही आया था उसमे पर उसकी वजह से कुछ लोगो के जीवन में बदलाव जरुर आ गया था। विक्रम ने अपनी निगाहो को ऊपर तानकर उस वृक्ष को निहारा। करीब जाकर उसे छुआ और उस पर हाथ रखकर कुछ पल के लिए अपनी आंखे बंद करके उसने इस कदर महसूस किया मानो उसकी धड़कनो को सुन रहा हो शायद। विक्रम ने चाहा कि काश कही से एक बार फिर किसी की आहट मिल जाएं,

काश यही किसी कोने से वो साया फिर चला आए जिसने उससे बात की थी। वो साया जो उन सबकी खामोशियो को पढ़ सकता था जो इस पेड़ के नीचे आकर सुकुन ढुंढा करते थे। वो साया सिर्फ विक्रम को ही नही बल्कि रितु को भी जानता था फर्क सिर्फ इतना था कि रितु ने कभी उसे देखा नही था। कम से कम रितु से बात करने के बाद विक्रम ने तो यही तर्क लगाया। दो दिन पहले, रितु के होश में आने के बाद विक्रम उसे अस्पताल में देखने आया था और हालांकि रितु को बीते कुछ घंटो के बारे में कुछ भी याद नही था पर उसने इस बात को जरुर स्वीकारा कि वो अपनी शादी की बात को लेकर तनाव में थी और काफी उदास रहने लगी थी। इस पर विक्रम ने उसके सिर पर प्यार से हाथ रखा और आश्वासन देते हुए कहा, "तुम्हे चिंता करने की कोई जरुरत नही है। इस बारे में मैनें तुम्हारे पिता से बात कर ली है। अब तुम्हे खूब पढ़ना है और उन ख्वाबो को पूरा करना है जो तुमने अपने लिए देखे है।

कोई भी तुम्हे रोकेगा या टोकेगा नही"। ये सुनकर रितु की आंखे भीग गई पर उनमें एक नई उम्मीद भी दिखी जिसकी चमक उन भीगी पलको पर ओस बनकर दमकती दिखी। उसके आंसुओ को देख, विक्रम ने कहा," जिन्हे चुनौतियां पसंद होती है उनकी दोस्ती आंसुओ से नही होती"। रितु को विक्रम की बात पसंद आई और अपने आंसुओ को थामकर, एक भीनी मुस्कान अपने होंठो पर सजा ली। विक्रम ने उससे विदा ली और कहा, "अपना ख्याल रखना ताकि जल्दी ठीक हो सको। अगले महीने होने वाली डांस प्रतियोगिता को तुम्हे ही जीतना है "। इतना कहकर विक्रम मुड़ा ही था कि रितु के एक सवाल ने उसके बढ़ते कदमो को रोक लिया। रितु ने हैरानी भरे स्वर में उससे पूछा , "आपको ये डांस वाली बात कैसे पता चली ? "

सवाल सुनकर विक्रम के कदम ठिठक कर रुक गए और चेहरे पर उलझन लिए उसने रितु का सामना किया। अब विक्रम, रितु को कैसे बताए कि ये बात उसे एक ऐसे शख्स से पता चली जिसका अस्तित्व सच्चाई से कोसो दूर था। ऐसे में विक्रम ने जवाब देने के लिए अपने मन को खगाला और शब्दो को तोल-मोल कर सुषमा का नाम ले डाला जिस पर खुशकिस्मती से रितु संतुष्ट दिखी। "क्या तुम किसी के पेड़ के पास अपनी डांस की प्रेक्टिस भी किया करती थी ?" जाते-जाते विक्रम ने जिज्ञासावश रितु से प्रश्न किया। इस पर रितु ने झट से कहा, " हां, वो पीपल वाला पेड़।

पर किसी को बताना मत" l विक्रम ने मुस्कुराकर आश्वासन दिया , "नही बताऊंगा पर तुम वहां क्यों जाती थी ? "। रितु ने बड़ी मासूमियत से बताया," घर पर हमेशा कोई न कोई मेरी प्रेक्टिस को टोक दिया करता था पर वहां उस पेड़ के पास कोई आता-जाता नही था। वहां मैने हमेशा सूकुन भरा एकांत पाया। वहां शाम की ठंडी हवाओ के साथ थिरकना, वहां के चबूतरे पर बैठकर सूरज को ढलता हुआ देखना और वहां चहचहाते पक्षियो से अपने मन की बाते करना अच्छा लगता था। वहां कोई भूत-वूत नही रहता। लोग यूं ही उस पेड़ को बदनाम करते रहते है" l ये सब सुनकर विक्रम हंस पड़ा। शायद रितु सही कह रही हो। वहां कोई भूत-वूत नही रहता, बस रहती थी वो बाते जो वहां की हवाओ के साथ घुलकर वही बस जाती थी।

आज फिर विक्रम उस पेड़ के पास ही खड़ा था लेकिन आज न तो उसे कोई आहट सुनाई दी और न ही कोई साया चलकर उसके पास आया। चबूतरे पर बैठकर विक्रम ने रितु की बातो का स्मरण किया और सोच में डूब गया। इन दो दिनो में कितना कुछ जान चुका था वो रितु के बारे में। क्या कोई कल्पना कर सकता था कि कैसे एक मासूम लड़की के सपनो को एक भूतिया कहे जाने वाले पेड़ के नीचे उस वक्त आसरा मिला जब ये जीती जागती दुनिया उन सपनो को कचोटने चली थी। इस चबूतरे पर बैठकर रितु ने न जाने अपने कितने सपने बांटे होंगे। थक-हारकर उदासी की घुटन में सिसकते हुए न जाने कितनी शामे उसने यहां बिताई होगी और आसमान को छुते इन पक्षियो से गुस्से में आकर उसने न जाने कितनी शिकायते की होगी। तब कौन था यहां जिसने उन सिसकियो को महसूस किया होगा ? किसने सुना होगा उन शिकायतो को ?

शायद उन बहती हुई हवाओ ने उसे सुना हो जिनकी धुन पर वो थिरका करती थी या उन चहचहाते पक्षियों ने जिनसे वो अपने मन की सारी बाते कहा करती थी या फिर इस पीपल के पेड़ ने उसे सुना हो, जिसे रितु के सपनो की ही तरह कई साल पहले समाज द्वारा ठुकरा दिया गया था और उस घुटन में घुटते हुए आज भी अकेला और वीरान खड़ा था। क्या इस पेड़ में इतनी ताकत थी कि वो रितु की घुटन को समझ पाता ? आज विक्रम फिर सवाल लिए इस चबूतरे पर बैठा था पर अफसोस जवाब देने कोई नही आया। कुछ पल बीताकर विक्रम चबूतरे से उठ खड़ा हुआ और पलटकर पीपल के पेड़ को ताकने लगा सिर्फ इसी उम्मीद में की काश वो पेड़ कुछ बोल पाता तो न जाने कितने गुनाहो का गवाह बन जाता पर अफसोस वो पेड़ ऐसा कुछ भी नही कर सका।

देरी होते देख विक्रम ने एक ठंडी सांस भरी और मुड़कर उस पेड़ से दूर चल पड़ा पर इस इरादे के साथ कि वो इस घटना का उल्लेख अपने आर्टिकल में जरुर करेगा ताकि जो रितु के साथ घटा वो किसी ओर के साथ न हो। पीपल का वो पेड़ उसे दूर जाता देख मूक खड़ा रहा और अचानक इतनी ज़ोर से सिहर उठा कि उसके कुछ पत्ते आवाज़ करते हुए टूटकर जमीन पर बिखर गए पर विक्रम उसकी इस हरकत से अनजान रहा और बिना मुड़े अपनी राह पर बढ़ता चला गया। ताज्जुब की बात थी कि आस-पास हवा का कोई नामो-निशान ही नही था पर फिर भी वो कुछ पल सिहरता रहा और अंत में वीरानियत के सायों ने उसे घेर लिया और वो कुछ न कर पाया।


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